Book Title: Prashamrati Prakaranam
Author(s): Umaswati, Umaswami, 
Publisher: Jain Dharm Prasarak Sabha

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Page 217
________________ S प्रशमरति प्रकरणम् ॥१०॥ marrian सूक्ष्म क्रियमप्रतिपाति काययोगोपयोगतो ध्यात्वा । विगतक्रियमनिवर्तित्वमुत्तरं ध्यायति परेण ॥ २८० ॥ अर्थ-जे पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय प्रथम समये जघन्य मनोयोगवाळो होय तेथी पण असंख्यातगुणहीन मनोयोगनो निरोध करता अंते संपूर्ण मननो निरोध करी मनरहित थाय छे. प्रथम समयना पर्याप्त बेइंद्रियना जे वचनयोग तथा साधारण वनस्पति जीवना जे श्वासोश्वास तेथी असंख्यगुणहीन निरोध करतां समस्त वचनयोग अने श्वासोश्वास निरोध करे छे. एवी रीते मन वचननो निरोध थया बाद जघन्य पर्याप्त पनक जीवना काययोगथी असंख्यगुणहीन काययोगनो निरोध करतां अंते सकल काययोगने निरोधे छे. काययोगना निरोधकाले सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाति [शुक्लध्यानना त्रीजा पायारूप ] ध्यानने ध्यायीने पछी विगत क्रिया अनिवृत्तिरूप शुक्लध्यानना चोथा पादने ध्याने छे. २७८-२८० भावार्थ-योग सहित-सयोगीने सिद्धि जे मोक्ष, ते योग छतां नहोय तेथी अवश्य योग निरोध करवो पडे छे. तेमां प्रथम मनोयोगने निरोधे छे. जनावडे मनोद्रव्य वर्गणा ग्रहण करायचे ते मनःपर्याप्त नामर्नु करण शरीरसंबद्ध छे. तेनुं वियोजन करवा माटे अनंत वीर्य-शक्तिधारी मनोयोगनो निरोध करे छे. केवी रीते ? तेज कहे छे के मनःपर्याप्तिवडे प्रथम समयनो पर्याप्तो संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव तेनो जे सर्व जघन्य मनोयोग-मनोवर्गणा ग्रहण करवा योग्य शक्तिनो व्यापार तेथी पण असंख्यातगुणहीनपणे पोताना मनोद्रव्यवर्गणाना स्थानोने समये समये निरोधे के अने एम करीने पछी अमनस्क एटले मन रहित थाय छे. ए अवचूरिकारनो मत छे. टीकाकारने मते तो प्रथम समयनो मनपर्याप्तो संज्ञी पंचेन्द्रिय १००॥ Jain Education inte For Personal Private Use Only PTAILr.jainelibrary.org

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