Book Title: Prashamrati Prakaranam
Author(s): Umaswati, Umaswami, 
Publisher: Jain Dharm Prasarak Sabha

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Page 222
________________ अस्पर्श गतिने पामी एकज समये मुक्ति पामनार अविग्रह एटले सर्वथा अवक्रगतिवडे स्खळना रहित लोकान्ते जइ, (अहीं पुनः अविग्रह पद लीधुं छे ते समयनुं विशेषण जाणवू. केमके एक समयमा विग्रह संभवेज नहि.) समस्तपणे कर्मनाश ते सिद्ध, तेनुं क्षेत्र, जेमा सिद्ध भगवाननो अवगाह के ते इषत्प्राग्भार पृथ्वी, तेना उपरना तळाथी, जे उपरनुं (उत्सेध अंगुलनु) एक योजन, ते जोजन- पण उपरनुं एक गाउ, ते गाउनो पण जे उपलो छठो भाग ३३३३ धनुष्य (एटलो भाग बटाच्या पछी अलोकज आवे) तेटला प्रमाणवाळु जे श्राकाश ते सिद्धक्षेत्र कहेवाय छे. जेमा समस्त सिद्धो (सकळ कर्मथी मुक्त थयेला परमात्माओ) स्व स्व अवगाहना मुजब अवगाही रहे छे. ते सिद्धक्षेत्र विमळ एटले मळ-पटल वर्जित छ. त्या जन्म, जरा, मरण अने ज्वरादिक रोगथी सर्वथा मुक्त थइ, पूर्वोक्त ३३३३ धनुष्य प्रमाण लोकना उर्व भागरूप लोकान्तने पामी सिद्धे छे. पूर्वोचित गतिसंस्कारभाव छते सिद्ध थया कहेवाय छे. त्यां ज्ञान उपयोगमा वर्तता छता सिद्धे छ, पण दर्शन उपयोगे सिद्धता नथी. केमके सर्वे लब्धिमो ज्ञान उपयोगे वर्ततां ज उपजे एवो भागमवाद छे. त्यारवाद सिद्धोने ज्ञान भने दर्शन बंने उपयोग ( समयान्तरे ) होय छे. २८६-२८८ सादिकमनन्तमनुपममव्याबाधसुखमुत्तमं प्राप्तः । केवलसम्यक्त्वज्ञानदर्शनात्मा भवति मुक्तः ॥ २८६ ॥ __अर्थ-त्यां सादि अनंत, अनुपम अने अन्यावाध एवा उत्तम सुखने पाम्या सता, क्षायिक सम्यक्त्व ज्ञान अने दर्शन स्वरूपी थइने मुक्त थाय छे. २८९ १८ For Personal Private Use Only www.jainelibrary.org

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