Book Title: Prashamrati Prakaranam
Author(s): Umaswati, Umaswami, 
Publisher: Jain Dharm Prasarak Sabha

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Page 224
________________ सारी रीते समजी शकाय एवी छ, भने निरन्वय नाश साबीत करवामां तो जैनौनी दलील विरुद्ध कोई पर्ण व्याजबी हेतु भने दृष्टांतनो' संभव नथी, माटे परिणामीणाथी सिद्धना जीव 'ज्ञानदर्शन उपयोग स्वभाषी रहे थे परंतु तेनो प्रभाव थतो नधी: स्व-आत्मा, लक्षण उपयोग तेनो माव जे स्वालवण्य ते स्वालक्षण्य हेतु थकी जीप कदापि पण उपयोग लक्षण स्वभावने तजे नहि. वळी स्वतः अर्थ सिद्धि होवाथी एटले के प्रात्मानुं ज्ञानदर्शन उपयोग स्वभावपणुं स्वतः सिद्ध के. ते बीजा कोइ निमित्तथी उत्पन्न थयेल नथी, ए तो अनादिकाळथी एवुज छे. जो के पूर्वला उपयोगथी उपरत-च्युत थइ जइ उपयोगान्तर ( बीजा उपयोग) पामे छे, तो पण ज्ञानस्वभावताने लही उपयोगपणुं तो कायमज रहे थे, ते कंद जतुं रहेतुं नथी. तथा एक भाव अन्यभावपणे संक्रमे छ पण तेनो सर्वथा उच्छेद थइ जतो नथी. द्रव्य क्षेत्र काळ भावनी अपेक्षाए ग्रामान्तर गयेल पुरुषादिकनी परे तेनो सर्वथा अभाव थइ गयो लेखाय नहि. एटले जे सर्वथा राग द्वेष मोह रहित वीतराग सर्वज्ञ तेमना कथेला प्रवचन-मागम अर्थरूप प्राज्ञा तेना उपदेश थकी सिद्धात्मा-मुक्तात्मा ज्ञान दर्शन स्वभाववाळा होय छे. एम सिद्ध थाय छे. २६० एसिद्धात्मामो महिंज मनुष्यलोकमा शा माटे स्थिति न करे ? तेनुं समाधान हवे करवामां आवे छे:त्यक्त्वा शरीरबन्धनामहैव काष्टकक्षयं कृत्वा । न स तिष्ठत्यनिबन्धादनाश्रयादप्रयोगाच ॥ २६१॥ Fer Personal Private Use Only by On

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