Book Title: Prashamrati Prakaranam
Author(s): Umaswati, Umaswami, 
Publisher: Jain Dharm Prasarak Sabha

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Page 204
________________ कल्पातीत देवो तेमनी प्राणीओने विस्मय करावनारी जे ऋद्धि-विभूति तेने कोटी लच गुणी करी होय तो पण ते साधुजननी समृद्धिना हजारमा भागे पण आवे नहि-हजारमा भागे पण मुनिजनोनी ऋद्धिनी तुलना करी शके नहि. ते विभूतिनो जय करीने एटले तेमां पण निःस्पृहताधारी मुनि (केमके उत्पन्न थयेली लब्धिमोनो पण साधुजनो खास कारण वगर वारंवार उपयोग करता नथी.) क्रोधादिक कषाय शत्रुनोने परास्त करीने लाखो भवे पण मळवू दुर्लभ एवं तीर्थकर तुन्य यथाख्यात चारित्र पामे छे. अर्थात् जेम तीर्थकर ते स्थान पामे छे तेम आ महाशय पण पामे छे. पछी शुक्ल ध्यानना पहेला बे पाया पृथक्त्व वितर्क सप्रविचार अने एकत्व वितर्क अप्रविचारने प्राप्त थइ ए महाशय शु करे के ? तो के मोहर्नु उन्मूलन करे छे. केवा मोहने ? तो के पाठे कर्मना नायक अने संसारवृक्षना आद्य बीजरूप जे मोह तेने समूळगो उखेडी नाखे छे. २५६-२५८ (हवे आगळ क्षपकणिर्नु स्वरुप कहेशे.) केवा प्रकारे ते महाशय मोहन उन्मूलन करे छे ते हवे शास्त्रकार कहे छ:पूर्व करोत्यन्नतानुबन्धिनाम्नां क्षयं कषायाणाम्। मिथ्यात्वमोहगहनं क्षपयति सम्यक्त्वमिथ्यात्वम् ।।२५९ सम्यक्त्वमोहनीयं क्षपयत्यष्टावतः कषायांश्च । क्षपयति ततो नपुंसकवेदं स्त्रीवेदमथ तस्मात् ॥ २६० ॥ हास्यादि ततः षट्कं क्षपयति तस्माच्च पुरुषवेदमपि । संज्वलनानपि हत्वा प्रामोत्यथ वीतरागत्वम् ॥२६॥ Jain Education international For Personel Private Use Only www.jainalibrary.org

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