Book Title: Prashamrati Prakaranam
Author(s): Umaswati, Umaswami,
Publisher: Jain Dharm Prasarak Sabha
View full book text
________________
प्रशमरति
प्रकरणम्
॥९३॥
एवी आकाशगमनादिक विभूति पामीने, तथाप्रकारनां सदाचरणवडे प्रशमरति सुखमा अभिरक्त बन्या छतां, पूर्वोक्त विभूतिने विषे किंचित् पण प्रीति (राग) धरता नथी, आकाशगमनादिक ऋद्धिने खास शासनप्रभावनादिक कारण वगर फोरवता नथी, तेनो खरे प्रसंगे ज उपयोग करे छे. २५५
परम अतिशय प्राप्त थवाथी सर्व समृद्धिवंत मुनिजनोने जे ऋद्धि होय छे ते शास्त्रकार बतावे छेया सर्वमुरवरद्धिर्विस्मयनीयापि सानगारद्धैः। नार्घति सहस्रभागं कोटिशतसहस्रगुणितापि ॥ २५६ ।। तज्जयमवाप्य जितविघ्नरिपुभवशतसहस्रदुष्पापम् । चारित्रयथाख्यातं संप्राप्तस्तीर्थकृत्तुल्यम् ॥ २५७ ॥ शुक्लध्यानाद्यद्वयमवाप्य कर्माष्टकप्रणेतारम् । संसारमूलबीजं मूलादुन्मूलयति मोहम् ॥ २५८ ॥
अर्थ-विस्मयकारी एवी पण सर्व सुरवरोनी ऋद्धिने लक्ष-कोटी गुणी करी होय तोपण ते मुनिनी ऋद्धिना सहस्रमे भागे प्रावती नथी. विघ्नरिपुने हठावी तेनो जय करीने लक्ष गमे भवोमां दुर्लभ एवं यथाख्यात चारित्र तीर्थकर भगवाननी तुल्य संप्राप्त करी, शुक्लध्यानना आदिना वे पायाने पामीने आठ कर्मना उत्पादक अने संसारवृद्धिना मूल कारणरूप मोहनुं ते मूळथी उन्मूलन करे छे. २५६-२५८
विवेचन-सर्व देवताओना जे वडा प्रधानभूत देवनायको-शक्रादिक इन्द्रो अने नव ग्रैवेयक तथा पांच अनुत्तरवासी १ अणिमा, गरिमा प्रमुख अष्ट सिद्धि विगेरे, अथवा आकाशगामिनी अने वैक्रिय प्रमुख लब्धियो विगेरे.
॥९३॥
Jain Education International
For Personal Private Use Only
ww.jainelibrary.org

Page Navigation
1 ... 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240