Book Title: Prashamrati Prakaranam
Author(s): Umaswati, Umaswami, 
Publisher: Jain Dharm Prasarak Sabha

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Page 205
________________ प्रशमरति ॥९४॥ अर्थ-प्रथम ते अनंतानुबंधी कषायोनो क्षय करे छ, पछी मिथ्यात्व मोहनीय, मित्र मोहनीय, समकित मोहनीयनो चय करे छे, ते पछी आठ कषाय (अप्रत्याख्यानी तथा प्रत्याख्यानी), ते पछी नपुंसक वेद अने स्त्री वेद, पछी हास्यादि षद्क, ते पछी पुरुषवेद, पछी संज्वलन कषायोने अनुक्रमे हर्णीने ते वीतरागपणुं पामे छे. २५९-२६०-२६१. भावार्थ-क्षपकश्रेणिर्नु स्वरूप बतावे छ:-श्रेणिए चढतो पुरुष प्रथम अनन्तानुबंधी ( क्रोध, मान, माया, लोभ) कषायने खपावे के. पछी जेमां गाढो मोह के एवा मिथ्यात्व मोहनीय, ते पछी मिश्र मोहनीय, ते पछी सम्यक्त्व मोह नीयने खपावे छे. त्यारबाद अप्रत्याख्यान कषायनी चोकडी अने प्रत्याख्यानावरण कषायनी चोकडीने खपावे छे. पछी T नपुंसकवेदने अने पछी स्त्रीवेदने खपावे छे. जो स्त्री श्रेणि आरोहती होय तो स्त्रीवेदने पछी खपावे छे भने नपुंसक आरो हतो होय तो नपुंसक वेदने पछी खपावे छे. पछी हास्य, रति, अरति, भय, शोक, दुगंछा ए छ ने खपावे छे. पछी पुरुष वेदने भने पछी संज्वलन कषायोने खपावी वीतरागपणाने पामे के. अहावीश प्रकारना मोहर्नु उन्मूलन कर्ये छते तेश्रो वीतराग थाय छे. २५९-२६०-२६१ सर्वोद्घातितमोहो निहतक्लेशो यथा हि सर्वज्ञः। भात्यनुपलक्ष्यराद्वंशोन्मुक्तः पूर्णचन्द्र इव ।। २६२ ॥ अर्थ-मोहनो जेणे सर्वथा उच्छेद कर्यो के भने क्लेशनो समग्रपणे नाश कर्यो के एवा ते सर्वज्ञनी पेरे, नहीं देखाता एवा राहुना अंशथी सर्वथा मुक्त थयेला पूर्णचन्द्रनी जेम शोभे छ. २६२ ॥९४॥ Jain Education internator For Personal Private Use Only witw.jainelibrary.org .. . --

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