Book Title: Prashamrati Prakaranam
Author(s): Umaswati, Umaswami, 
Publisher: Jain Dharm Prasarak Sabha

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Page 210
________________ अने व्यतिरेकथी मोहनीय साथे शेष कर्मनो संबंध जाणवो. २६६ छद्मस्थवीतरागः कालं सोऽन्तर्मुहूर्तमथ भूत्वा । युगपद्विविधावरणान्तरायकर्मक्षयमवाप्य ॥ २६७ ॥ शाश्वतमनन्तमनतिशयनुपममनुत्तरं निरवशेषम् । संपूर्णमप्रतिहतं संप्राप्तः केवलज्ञानम् ॥ २६८ ॥ __अर्थ-पछी अंतर्मुहर्च काळ ते छमस्थ वीतराग थइ एकी साथे ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय अने अंतराय कर्मनो (सर्वथा ) क्षय करीने शाश्वत, अनंत, सर्वातिशायी, अनुपम, अनुत्तर, निरवशेष, संपूर्ण अने अप्रतिहत एg | केवळज्ञान संप्राप्त करे छे. २६७-२६८ विवेचन-छद्म अटले आवरण तेमा रहेल ते छद्मस्थ अने कपाय मात्रनो क्षय कर्याथी वीतराग अन्तर्मुहूर्त काळ सुधी विश्रान्ति लही एकी साथे बे घडीनी अंदर मतिज्ञानादि पांच प्रकारनां आवरण तथा चार प्रकारनां दर्शनावरण तथा दानान्तरायादि पांच प्रकारनां अंतरायनो क्षय करीने कायम स्वरूपस्थित (जेवू ने तेवु) बन्युं रहे ते माटे शाश्वत, क्षय न पामे ते माटे अनन्त, तेनी साथे कोइ होड करी न शके एवं महा अतिशयवाळु होवाथी अनतिशय, तेना सर कोइ नहि होवाथी-उपमा रहित होवाथी अनुपम, तेना करतां कोई प्रधान-चढीयातुं ज्ञान नहि होवाथी अनुत्तर, परिपूर्ण पणे उत्पन्न थवाथी निरवशेष, सकळ ज्ञेय-पदाथने ग्रहण करे तेथी संपूर्ण, पृथ्वी समुद्रादिथी क्यांय पण क्यारे पण ( सर्वतः अने सर्वदा) प्रतिघात वगरनु होवार्थी अप्रतिहत एवा केवळज्ञानने प्राप्त करे छे. २६७-६८ Jain Education International For Personal Private Use Only www.jainelibrary.org

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