Book Title: Prashamrati Prakaranam
Author(s): Umaswati, Umaswami, 
Publisher: Jain Dharm Prasarak Sabha

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Page 209
________________ श्री | अर्थ जेथी अन्यकृत कर्मने विषे अन्यकृत कर्म संक्रमता नथी अथवा वहेंचाता नथी, तेथी जे जेनां करेला कर्म प्रशमरति, होय ते तेणेज वेदवां जोइए. २६५ प्रकरणम् भावार्थ-बीजा जीवोए करेला कर्म एटले अन्य कोइए कर्म करेल छे ते वीजा कोइना करेला कर्ममा संक्रमी शकता नथी. कोइ शंका करे के कदाच वर्धा कर्म संक्रमी न शके पण तेनो एक देश (विभाग) संक्रमी शके के केम ? तेनुं समाधान करे के के-परकृत कर्मनो-एक देश-विमाग पण अन्यत्र संक्रमी शके नहि. केमके एम थवाथी तो कृतनाश अने अकृताभ्युपगम नामना दोष लागु पडे. तेथी प्राणीनां कर्म जे जेनां होय ते तेणेज वेदा-अनुभवां जोइए. पण तेनी अन्यत्र संक्रान्ति-संक्रमण थाय नहि. २६५ हवे मोहनीय कर्मनो क्षय थतां शेष कर्मनो अवश्य क्षय थाय ते बतावे छेमस्तकसूचिविनाशात्तालस्य यथा ध्रुवो भवति नाशः। तद्वत्कर्मविनाशो हि मोहनीयक्षये नित्यम् ॥२६६॥ अर्थ-जेम ताडना अग्रभाग उपर उगेली चिनो नाश थवाथी निश्चये ते (ताड ) नो नाश थाय छे तेम मोहनीय कर्मनो क्षय थये छते समस्त कर्मनो नियमा नाश थाय छे. २६६ भावार्थ-ताडवृक्षना मस्तके जे सूचि (सूइना आकारे ) उगे के तेनो विनाश थये छते ताडवृचनो अवश्य नाश थाय छे तेम मोहनीय कर्मनी सकळ (भठ्ठावीश) प्रकृतिनो नाश थये बाकीनां सात कमनो निश्चे नाश थायज छे. अन्वय ॥९६॥ Jan Education in For Personal Private Use Only ainelibrary.org

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