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श्री
प्रशमरति
प्रकरणम् ॥२१॥
वस्त्र-आभरणथी अलंकृत पुरुष पामी शकतो नथी. ६६-६८. गुर्वायत्ता यस्माच्छास्त्रारम्भा भवन्ति सर्वेऽपि । तस्माद्गुवाराधनपरेण हितकांक्षिणा भाव्यम् ॥ ६६ ।। धन्यस्योपरि निपतत्यहितसमाचरण धर्मभिर्वापी। गुरुवदनमलयनिमृतो वचनसरसचन्दनस्पर्शः॥७॥ दुष्परिकारौ मातापितरौ स्वामी गुरुश्च लोकेऽस्मिन् । तत्र गुरुरिहामुत्र च सुदुष्करतरप्रतीकारः।। ७१ ॥
भावार्थ----जे कारण माटे सर्व शास्त्रारंभ गुर्वाधीन छे ते कारण माटे आत्मार्थी जीवे गुरुमहाराजनुं आराधन करवा तत्पर थq. अहिततापने शमावनार गुरुमुख मलयथी नीकळेला वचनरूप सरस चंदननो स्पर्श कोइ धन्य कृतपुण्यने थाय छे. या लोकले विषे माता, पिता, स्वामी अने गुरुनो बदलो वाळवो बहु मुश्केल छ, तेमां पण गुरुमहाराजना उपकारनो बदलो तो पा लोक ने परलोकमा अत्यंत मुश्केलीथी वळी शके छे. ६९-७१
विवेचन-शास्त्रार्थनु प्रतिपादन करे ते गुरु कहेवाय छे अने शास्त्रपठन तथा अर्थश्रवणनी प्रवृत्ति तेमज काल| ग्रहणादिक सकल शास्त्रारंभ गुर्वाधीन छे. तेथी स्वहित संपादन करवा इच्छनारे सदाय गुरुमहाराजनी चरणसेवामा रसिक थर्बु युक्त छे.
"गुरु महाराज हितशिखामण आपे त्यारे विचार के-हुं धन्य कृतपुण्य छु. केमके गुरुमहाराज मारीउपर अनुग्रह | कर ले ते हकीकत विशेष प्रकारे बतावे छे."
॥२१॥
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