Book Title: Prashamrati Prakaranam
Author(s): Umaswati, Umaswami, 
Publisher: Jain Dharm Prasarak Sabha

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Page 179
________________ प्रशमरति प्रकरणम् ॥ १॥ हवे सम्यग्दर्शन, ज्ञान अने चारित्रादिनुं स्वरूप कहेवाना प्रारंभमां प्रथम सम्यग्दर्शननुं स्वरूप कहे छ:एतेष्वध्यवसायो योऽर्थेषु विनिश्चयेन तत्त्वमिति । सम्यग्दर्शनमेतत्तु तन्निसर्गादधिगमाद्वा ॥ २२२ ॥ शिक्षागमोपदेशश्रवणान्येकाथिकान्यधिगमस्य । एकार्थः परिणामो भवति निसर्गः स्वभावश्च ॥ २२३ ॥ भावार्थ-श्रा नव पदार्थोने विषे विशेषे करीने निश्चयपूर्वक 'आज तत्व ' एवो जे अध्यवसाय ते सम्यग्दर्शन. ए सम्यग्दर्शन स्वभावथी अथवा गुरुउपदेशथी थइ शके छे. शिक्षा, भागमोपदेश अने शास्त्रश्रवण ए गुरुउपदेशना एकार्थवाचक छे. तेमज परिणाम, निसर्ग अने स्वभाव ए पण एकार्थवाचक छे. २२२-२२३ विवेचन-उपर कही गयेला जीवादि नव पदार्थोने विषे जे निश्चय-अर्थात ते यथार्थ छे-तथ्य छे-सत्य के एवा निर्णयवाळो अध्यवसाय ते सम्यग्दर्शन कहेवाय छे. तेमां पारकी दाक्षिण्यता के अनुवृत्ति न होवी जोइए-आत्मानाज शुद्ध अध्यवसाय एवा होवा जोइए. ते सम्यग्दर्शन के प्रकारे प्राप्त थाय छे. निसर्गथी ने अधिगमथी. निसर्गथी एटले स्वभावथी. संसारमा परिभ्रमण करता जीवने अनाभोगे कर्मनो क्षय थवाथी अर्थात् कर्म ओछा थवाथी-यथाप्रवृत्ति करणवडे कर्मोनी स्थिति घटवाथी ग्रंथी-देशने पामीने, अपूर्व करणना लाभवडे, ते ग्रंथीनो भेद करीने अर्थात् अति निविड एवी जे रागद्वेषनी परिणति तेने निवारीने अनिवृत्ति करण पामवाथी एटले शुभ परिणामनी अनिवृत्ति-स्थिरता थवाथी प्राणी स्वभावे ज समकित पामे छे तेने निसर्ग समकित कहे छे. तेनुं लक्षण-चिन्ह तत्त्वार्थश्रद्धान छे. जे भग Jain Education in For Personal Private Use Only HIN ainelibrary.org

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