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धर्मध्यानाभिरतस्त्रिदण्डविरतस्त्रिगुप्तिगुप्तात्मा। सुखमास्ते निद्वंद्वो जितेंद्रियपरीषहकषायः॥ २४१॥ विषयसुखनिरभिलाषः प्रथमगुणगणाभ्यलंकृतः साधुः। द्योतयति यथा न तथा सर्वाण्यादित्यतेजांसि ॥ ( सम्यग्दृष्टिज्ञानी विरतितपोबलयुतो ऽप्यनुपशान्तः । तं न लभते गुणं यं प्रशमगुणमुपाश्रितो लभते)॥
भावार्थ-आत्मगुणनो अभ्यास करवामां तत्पर, परवृत्तांतमां अंध, मूक अने बधिर, तथा मद, मदन, मोह, मत्सर, रोष अने विषादवडे करीने अजित एवा, शान्त अव्यावाध सुखना अभिलाषी तथा साधुधर्मने विषे सुस्थिरतावंत मुनिने देव मनुष्ययुक्त आ सकल लोकने विषे शी उपमा पापी शकाय ? स्वर्गनां सुख परोक्ष छे. मोक्षनुं सुख तो अत्यंत परोचज छे, पण नहीं परवश अने नहीं व्ययप्राप्त एवं प्रशम सुख प्रत्यक्ष छे. मद, मदनने सर्वथा जीतनारा, तन मन वचनना दोष रहित अने निःस्पृह एवा सुविहित साधुओने अहींज मोक्ष छे. अनित्य एवा शब्दादि विषयना परिणामने दुःखदायी जाणीने अने रागद्वेषथी यता दुःखोने समजीने संसारमा जे पोताना शरीर उपर पण राग करतो नथी, शत्रु उपर पण द्वेष करतो नथी भने रोग जरा तथा मरणना भयथी व्हीतो नथी-अबाधित रहे छे ते नित्य सुखी छे. धर्मध्यानमा मग्न, त्रण दंडथी मुक्त, त्रण गुप्तिथी गुप्त अने इंद्रिय, परीषद तथा कषायने जीतेलो एवो सर्व प्रपंचरहित पुरुष सुखसमाधिमा मस्त बन्दो रहे छे. विषयसुखथी विरक्त अने प्रशमादिक गुणगणथी विभूषित साधु जेवो उद्योत करे
के तेवो उद्योत सूर्यना सघळा किरणो पण करी शकता नथी. सम्यग्दृष्टि, ज्ञानी, संयमी अने तपोबळ युक्त छतां पण ke अनुपशान्त साधु, जेबो गुण शान्त गुणवाळो साधु पामे के तेवो गुण पामी शकतो नथी. २३५-२४२.
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