Book Title: Prashamrati Prakaranam
Author(s): Umaswati, Umaswami,
Publisher: Jain Dharm Prasarak Sabha
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भी प्रशमरति प्रकरणम्
॥28॥
सम्यग्दृष्टिानी विरतितपोध्यानभावनायोगैः। शीलाइसहस्राष्टादशकमयत्नेन साधयति ॥२४३॥
अर्थः-सम्यदृष्टि अने ज्ञानी साधु संयम, तप, ध्यान अने भावना योगवडे करीने अढार हजार शीलांगने सुखे साधी शके छे. २४३.
विवेचन-यथार्थ तत्त्वश्रद्धानरूप सम्यग्दर्शन अने यथार्थ तच्च अवबोधरूप सम्यग्ज्ञान जेने संप्राप्त थयेल के ते महाशय, पांच महाव्रत अने रात्रीभोजनथी सर्वथा विरमणरुप मूळ गुण अने निर्दोष आहार गवेषणादिक उत्तर गुण लक्षणवाळी विरतिवडे, अनशन उणोदरी प्रमुख बाह्य तप अने प्रायश्चित्त-विनयप्रमुख अभ्यन्तर तपवडे, धर्म अने शुकलप्रशस्त ध्यानवडे, अनित्य अशरणादि द्वादश अने मैत्री प्रमुख चार अथवा पांच महाव्रत संबंधी पचवीश भावनावडे तेमज मन वचन अने काया संबंधी प्रशस्त व्यापाररुप योगवडे, अढार हजार शीलांगने अनायासे लीला मात्रमा ज साधे छे-स्वीकारे छ. २४३.
ते अढार हजार शीलांग कया ? अने ते कया उपायवडे नीपजे ते संबंधी खुलासो प्रकरणकार पोते ज करे छेधर्माभूम्यादीन्द्रियसंज्ञाभ्यः करणतश्च योगाच । शीलाङ्गसहस्राणामष्टादशकस्य निष्पत्तिः ॥२४४॥
अर्थ:-दशविध धर्म, पृथ्व्यादि दश प्रकारनी हिंसाथी विरमण, पांच इंद्रिय, आहारादि चार संज्ञा तथा तन, मन, वचनथी करवा कराववा अने अनुमोदवावडे करीने अढार हजार शीलांगनी सिद्धि थाय छे. २४४.
18॥
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