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प्रशमरति प्रकरणम्
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अभ्यंतर तपनी वृद्धि करे अने क्षुधा, तृषा, शीत, उष्णता अथवा द्वेषादिक दोषने दूर करे तेवी वस्तु उत्सर्ग के अपवाद मार्गे ( सामान्य के विशेष प्रसंगे) तेमने कल्पे छे. अर्थात् ज्ञानादिक गुणोने उपकारक थाय अने रागद्वेषादिक दुष्ट दोषोने निग्रहकारी थाय ते आहारादिक वस्तु खरेखर साधुजनोने लेवी कम्पे छे. अने चाकीनी बधी वस्तुभो लेवी कल्पती नथी. एज वातने शास्त्रकार वधारे स्पष्ट करी बतावे छे. | जे आहारादिक वस्तुने सेवतां सम्यग् ज्ञान, दर्शन अने चारित्र व्यापारने अर्थात सद्धर्म अनुष्ठानने अथवा ते ते धर्म अनुष्ठान करवामां सहायरूप थता मन वचन कायाना योगने हानि पहोंचे ते तथा दारु, मांस, कन्दमूळ अने अभोज्य घरनी भिक्षा के जे लेवाथी पवित्र शासननी निंदा गर्दा थवा पामे ते बधी वस्तु (अन्यथा कल्प्य होय तोपण) अकल्प्य लेवाने अयोग्य जाणवी. शासन निंदाकारक सघळी वस्तु अकल्प्यज छे.
घी, दुध, दहि, गोळ प्रमुख विगयोनो आहार दोषरहित छता कामविकारादि उत्पन्न थवामा कारणरूप होवाथी ते अनर्थ उत्पन्न करे माटे वयं छे; तेज वस्तु तथाप्रकारना रोगादिक कारणे कल्प्य पण छे. आहार, शय्या, वस्त्र, पात्र
अने औषधादिक सघळी वस्तुना ए रीते कल्प्याकल्प्य भेद घटे छे. उक्त वस्तु क्यारे कल्पे अने क्यारे न कल्पे ते संबंधी | विवेक ग्रंथकार बतावे छे.
ज्यां साधुजनोनो परिचय न होय एवा देशमां, दुर्भिक्षादिक काळमां अने राजा अमात्यादिक दीक्षित पुरुषने निमित्ते, अकल्प्य वस्तु पण लेवी कल्पे छे. तेमज मांदगी विगेरे अपवाद प्रसंगे सवैद्यना उपदेशथी भने शुद्ध परिणाम योगे पण
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