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श्री प्रशमरति
प्रकरणम्
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rathaat मूर्छा, तथा रात्रिभोजन- ए सर्व थकी जे निवर्त्या छे; एवी रीते मूळ गुण कही हवे उत्तर गुण कहेवा इच्छता जावे -पोते प्राणी वर्गने हणे नहि, बीजा पासे हणावे नहि अने हणनारने सारो जाणे नहि, ए त्रण कोटि; तथा पोते रसोइ करे नहि, बीजा पासे करावे नहि अने करनारने सारो जाणे नहि, ए बीजी ऋण कोटि तेमज पोते खरीद करे नहि, बीजा पासे करावे नहि ने करनारने सारो जाणे नहि ए त्रीजी ऋण कोटि ए सर्व एकठी करतांनव कोटि थाय. ते नव कोटिवडे तेमज अन्वेषणादिकवडे शुद्ध-निर्दोष भिक्षायोगे संयमयात्रानो जे निर्वाह करे छे एटले शुद्धतम आहार, उपधि अने पात्र ग्रहण करवा जे तत्पर छे; सर्वज्ञभाषित जीवादिक पदार्थ संबंधी परमार्थ स्वरूप भाववामां जे कुशळ छे; जीवाजीवने आधारभूत संपूर्ण लोकनुं स्वरूप जेणे सारी रीते जाण्युं छे; भने जेनुं स्वरूप यागळ कहेवामां आवशे एवा मटार हजार शीलांग तेने धारण करवा जेणे प्रतिज्ञा करेली छे; संयममार्गमां शुद्ध प्रकर्षयोगे अपूर्व परिणामने जे प्राप्त थयेल छे; पांच महाव्रत संबंधी २५ भावनाओ अथवा आगळ कहवाशे ते अनित्यत्वादिक द्वादश शुभ भावनाओोवडे जे भावित छे तेमज भावनामय ज्ञानवडे समय - सिद्धान्तमां कहेला भाव - श्रभिप्रायना तारतम्यने ( या बेमां आ प्रधान छे, तेथी वळी या वधारे प्रधान छे-एवी ररीते ) जे जाणी - जोइ शके छे; सम्यग् दर्शन, ज्ञान अने चारित्ररूप वैराग्यमार्गमां जे सारी रीते स्थित थयेल हे; संसारवासथी जेने त्रास लागेलो छे अने मुक्तिसुख मेळवावा माटे तेने अनुकूल साधन सेववामां ज जेनी प्रीति बंधायेली छे तेवा महाशय - मुमुक्षुने आवी कल्याणकारी शुभ चिन्ता उपजे छे. ५९-६३.
' तेज चिन्ताने स्पष्ट करे छे. '
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