________________
॥ श्रीः ॥ श्रीत्रिविक्रमदेवविरचितं प्राकृतशब्दानुशासनम्
(हिन्दी अनुवाद) श्री (महा) वीर रूप पूर्वगिरिसे उदित हुए, सब (वस्तुओं) को प्रकाशित करनेवाले, दिव्य ध्वनिरूप सूर्यको मैं अक्षरोंकी पद्धति (मार्ग) की प्राप्तिके लिये वंदन करता हूँ ॥ १ ॥
अर्हनंदि जो कि त्रैविद्यमुनि तथा जिनागमके स्वामी थे, उनके पदकमलोंमें भ्रमर (के समान), श्रीबाणके शोभन कुलरूप कमलको सूर्य (के समान) आदित्यवर्मा का पोता, श्रीमल्लिनाथका पुत्र, लक्ष्मी (माता) के गर्भरूप अमृतसागरमें चंद्रमा (के समान जन्म लेनेवाला), आचार और विद्याका स्थान होनेवाले भामका भाई, प्रकृतिसेही निपुण, ऐसा त्रिविक्रम (नामक) सुकवि, श्रीवीरसेनार्य और जिनसेनार्य आदिके वचनरूप समुद्रके ज्वारसे कुछ प्राकृतशब्दरूप रत्न सुकृति (= शोभन ग्रंथ या तज्ज्ञ) के भूषणके लिये संगृहीत करता है ॥२-४ ॥
बहुत अर्थसे संपन्न, सुलभरूपसे जिसका उच्चारण किया जाता है, और जो साहित्यका जीवन है ऐसा जो शब्द वह प्राकृत (शब्द) ही है, ऐसा सूत्रानुसारी ( विद्वान) लोगोंका मत है ।। ५॥
यह प्राकृत (शब्द) तत्सम, देश्य और तद्भव एवं तीन प्रकारका है। तत्सम यानी संस्कृतसम (प्राकृतशब्द), संस्कृत (व्याकरण) के लक्षणोंसेही जानना है ॥ ६॥
देश्य और आर्ष (प्राकृत) रूढ तथा बहुशः स्वतंत्ररूप होनेसे, • उन्हें लक्षणोंकी अपेक्षा नहीं है; उसका बोध संप्रदाय (परंपरा) ही कर । सकता है।॥ ७॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org