Book Title: Prakrit Vidya 1999 07
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 7
________________ सम्पादकीय विद्वत्सेवा की रजत-जयन्ती ___-डॉ० सुदीप जैन प्राचीनकाल में विद्वानों के समागम शिक्षाकेन्द्रों के अतिरिक्त मात्र संतों की संगति में एवं राजधानियों में ही हुआ करते थे। वर्तमान भारत गणतन्त्र की राजधानी नई दिल्ली में विद्वानों की ऐसी कोई समागम-संस्था नहीं थी, जो मात्र विद्वत्सेवा एवं ज्ञानप्रसार के लिए ही समर्पित हो। विद्वानों की भावना थी कि यदि ऐसी संस्था में संतों के सान्निध्य का भी राजधानी में सुलभ हो सके, तो प्रतिभा एवं साधना का सुमेल चमत्कारी निष्कर्ष प्रदान कर सकता है। ___सुसंयोगवश शासननायक भगवान् महावीर के 2500वें निर्वाण-महोत्सव वर्ष (1974ई०) के सुअवसर पर जब पूज्य मुनिश्री विद्यानन्द जी दिल्ली में विराजमान थे, तो दिल्ली समाज के प्रमुख पंच धर्मानुरागी श्री परसादीलाल जी पाटनी ने पूज्य मुनिश्री से विनती की कि “पूज्यपाद ! आपश्री के मन में विद्वानों के प्रति जो अपार वात्सल्य है, उसे मूर्तरूप प्रदान करने की कृपा करें।” पूज्य मुनिश्री ने पूछा कि “पाटनी जी ! आप क्या कहना चाहते हैं? कृपया स्पष्ट करें।" पाटनी जी बोले कि "मुनिवर ! राजधानी दिल्ली में विद्वानों के लिए समर्पित कोई संस्था नहीं है, आप कृपा कर समाज को ऐसी संस्था बनाने की प्रेरणा दें। आपश्री के मंगल आशीर्वाद से इस शुभ अवसर पर यह कार्य आसानी से सम्पन्न हो सकता है।" पूज्य मुनिश्री ने तब विचार करने' का आश्वासन देकर उन्हें संतृप्त किया। ___ इसके बाद समाज के सर्वमान्य नेता धर्मानुरागी श्री साहू शान्तिप्रसाद जी जैन, बाबू घनश्याम दास जी मुल्तानी, पं० बाबूलाल जी जमादार, पं० वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री एवं पं० बलभद्र जी आदि से आचार्यश्री ने इस विषय में व्यावहारिक पक्षों पर व्यापक विचार विमर्श किया। इस प्रक्रिया में लगभग 2-3 माह का समय व्यतीत हो गया। अंतत: वर्ष 1974 ई० के दशलक्षण महापर्व' उत्तम त्यागधर्म के दिन भाद्रपद शुक्ल द्वादशी के दिन पूज्य आचार्यश्री ने अपने मंगल आशीर्वाद के द्वारा संस्था का नामकरण 'कुन्दकुन्द भारती' किया एवं समाज के धर्मप्राण नर-नारियों ने इसकी स्थापना के निमित्त मुक्तहस्त से द्रव्य दान में दिया। माताओं-बहिनों ने तो अपने स्वर्णाभूषण भी विपुल मात्रा में समर्पित किये। समाज के प्रमुख पन्द्रह गणमान्य महानुभावों को इस संस्थान का न्यासी (ट्रस्टी) नियुक्त किया गया एवं इसे न्यास (ट्रस्ट) के रूप में विधिवत् रजिस्टर्ड भी करा दिया गया। इसके संविधान के अनुसार प्रत्येक तीसरे वर्ष में इसके विधिवत् प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '99 005

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