Book Title: Prakirnak Sahitya Manan aur Mimansa
Author(s): Sagarmal Jain, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan

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Page 14
________________ 2 : प्रो० सागरमल जैन वर्गों में कहीं भी प्रकीर्णक-वर्ग का उल्लेख नहीं है / यद्यपि इन दोनों ग्रंथों में आज हम जिन्हें प्रकीर्णक मान रहे हैं उनमें से अनेक का उल्लेख कालिक एवं उत्कालिक आगमों के अन्तर्गत हुआ है / यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि आगमों का अंग, उपांग, छेद, मूल, चूलिका और प्रकीर्णक के रूप में उल्लेख सर्वप्रथम आचार्य जिनप्रभ के विधिमार्गप्रपा (लगभग ईसा की तेरहवीं शती) में मिलता है / इससे यह फलित होता है कि तेरहवीं शती से पूर्व आगमों के वर्गीकरण में कहीं भी प्रकीर्णक वर्ग का स्पष्ट निर्देश नहीं है, किन्तु इससे यह निष्कर्ष नहीं निकाल लेना चाहिये कि उसके पूर्व न तो प्रकीर्णक साहित्य था और न ही इनका कोई उल्लेख था / अंग आगमों में सर्वप्रथम समवायांगसूत्र में प्रकीर्णक' का उल्लेख हुआ है / उसमें . कहा गया है कि भगवान ऋषभदेव के 84 हजार शिष्यों द्वारा रचित 84 हजार प्रकीर्णक थे। परम्परागत अवधारणा यह है कि जिस तीर्थंकर के जितने शिष्य होते हैं, उसके शासन में उतने ही प्रकीर्णक ग्रंथों की रचना होती है। सामान्यतया प्रकीर्णक शब्द का तात्पर्य होता है- विविध ग्रंथ / मुझे ऐसा लगता है कि प्रारम्भ में आगमों के अतिरिक्त सभी ग्रंथ प्रकीर्णक की कोटि में माने जाते थे। अंग आगमों से इतर आवश्यक, आवश्यक व्यतिरिक्त, कालिक एवं उत्कालिक के रूप में वर्गीकृत सभी ग्रंथ प्रकीर्णक कहलाते थे / मेरे इस कथन का प्रमाण यह है कि षट्खण्डागम की धवला टीका में 12 अंग आगमों से भित्र अंगबाह्य ग्रंथों को प्रकीर्णक नाम दिया है। उसमें उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, ऋषिभाषित आदि को भी प्रकीर्णक ही कहा गया है / यह भी ज्ञातव्य है कि प्रकीर्णक नाम से अभिहित अथवा प्रकीर्णक वर्ग में समाहित सभी ग्रंथों के नाम के अंत में प्रकीर्णक शब्द तो नहीं मिलता है, मात्र कुछ ही ग्रंथ ऐसे हैं जिनके नाम के अंत में प्रकीर्णक शब्द का उल्लेख हुआ है / फिर भी इतना निश्चित है कि प्रकीर्णकों का अस्तित्व अतिप्राचीन काल में भी रहा है, चाहे उन्हें प्रकीर्णक नाम से अभिहित किया गया हो अथवा न किया गया हो / नन्दीसूत्रकार ने अंग आगमों को छोड़कर आगम रूप में मान्य अन्य सभी ग्रंथों को प्रकीर्णक कहा है / अतः 'प्रकीर्णक' शब्द आज जितने संकुचित अर्थ में है उतना पूर्व में नहीं था / उमास्वाति और देववाचक के समय में तो अंग आगमों के अतिरिक्त शेष सभी आगमों को प्रकीर्णकों में ही समाहित किया जाता था। इससे जैन आगम साहित्य में प्रकीर्णकों का क्या स्थान है, यह सिद्ध हो जाता है / प्राचीन दृष्टि से तो अंग आगमों के अतिरिक्त सम्पूर्ण जैन आगमिक साहित्य प्रकीर्णक वर्ग के अन्तर्गत आता है। वर्तमान में प्रकीर्णक वर्ग के अन्तर्गत 10 ग्रंथ मानने की जो परम्परा है, वह न केवल अर्वाचीन है अपितु इस सन्दर्भ में श्वेताम्बर आचार्यों में परस्पर मतभेद भी है कि इन 10 प्रकीर्णकों में कौन से ग्रंथसमाहित किये जाएँ / प्रद्युम्नसूरि ने विचारसारप्रकरण (१४वीं शताब्दी) में 45 आगमों का उल्लेख करते हुए कुछ प्रकीर्णकों का उल्लेख किया है / आगम प्रभाकर मुनि पुण्यविजय जी ने चार अलग-अलग सन्दर्भो में प्रकीर्णकों की अलग-अलग सूचियाँ प्रस्तुत की हैं / 5 अतः 10 प्रकीर्णक के अन्तर्गत किन-किन ग्रंथों को समाहित करना चाहिए, इस सन्दर्भ में श्वेताम्बर आचार्यों में कहीं भी एकरूपता देखने को नहीं मिलती है / इससे यह

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