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[ १६ ] अप्पा लद्धउ णाणमउ कम्म-विमुक्त जेण । मेल्लिवि सयलु वि दव्वु परु सो परु मुणहि मणेण ॥१५॥
आत्मा लब्धो ज्ञानमयः कर्मविमुक्तेन येन । मुक्त्वा सकलमपि द्रव्यं परं तं परं मन्यस्व मनसा ।।१५।।
.. आगे सब परद्रव्योंको छोड़कर कर्मरहित होकर जिसने अपना स्वरूप केवलज्ञानमय पा लिया है, वही परमात्मा है, ऐसा कहते हैं--(येन) जिसने (कर्मविमुक्तेन) ज्ञानावरणादि कर्मोंको नाश करके (सकलमपि परं द्रव्यं) और सब देहादिक परद्रव्योंको (मुक्त्वा) छोड़ करके (ज्ञानमयः) केवलज्ञानमयी (आत्मा) आत्मा (लब्धः) पाया है, (तं) उसको (मनसा) शुद्ध मनसे (परं) परमात्मा (मन्यस्व) जानो। - भावार्थ-जिसने देहादिक समस्त परद्रव्यको छोड़कर ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म, रागादिक भावकर्म, शरीरादि नोकर्म इन तीनोंसे रहित केवलज्ञानमयी अपने आत्माका लाभ करलिया है, ऐसे आत्माको हे प्रभाकरभट्ट, तू माया, मिथ्या, निदानरूप शल्य वगैरह समस्त विभाव (विकार) परिणामोंसे रहित निर्मल चित्तसे परमात्मा जान, तथा केवलज्ञानादि गुणोंवाला परमात्मा ही ध्यान करने योग्य है और ज्ञानावरणादिरूप सब परवस्तु त्यागवे योग्य है, ऐसा समझना चाहिये ॥१५॥ इस प्रकार जिसमें तीन तरहके आत्माका कथन है, ऐसे प्रथम महाधिकारमें त्रिविध आत्माके कथनकी मुख्यतासे तीसरे स्थलमें पांच दोहा-सूत्र कहे । अब मुक्तिको प्राप्त हुए केवलज्ञानादिरूप सिद्ध परमात्माके व्याख्यानकी मुख्यताकर दश दोहा-सूत्र कहते हैं ।
लक्ष्यमलक्ष्येण धृत्वा हरिहरादिविशिष्टपुरुषा यं ध्यायन्ति तं परमात्मानं जानीहीति प्रतिपादयति
तिहुयण-वंदिउ सिद्धि-गउ हरि-हर झायहिं जो जि । लक्खु अलक्खें धरिवि थिरु मुणि परमप्पउ सो जि ॥१६॥
त्रिभुवनवन्दितं सिद्धिगतं हरिहरा ध्यायन्ति यमेव । .. लक्ष्यसलक्ष्येण धृत्वा स्थिरं मन्यस्व परमात्मानं तमेव ।।१६।।