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भावार्थ - जो देहको आत्मा समझता है, वह वीतराग निर्विकल्प समाधि से उत्पन्न हुए परमानन्द सुखामृतको नहीं पाता हुआ मूर्ख है, अज्ञानी है । इन तीन प्रकारके आत्माओंमें से बहिरात्मा तो त्याज्य ही है- -आदर योग्य नहीं है । इसकी अपेक्षा यद्यपि अन्तरात्मा अर्थात् सम्यग्दृष्टि वह उपादेय है, तो भी सब तरहसे उपादेय ( ग्रहण करने योग्य ) जो परमात्मा उसकी अपेक्षा वह अन्तरात्मा हेय ही है, शुद्ध परमात्मा ही ध्यान करने योग्य है, ऐसा जानना ||१३||
अथ परमसमाधिस्थितः सन् देहविभिन्न ज्ञानमयं परमात्मानं योऽसौ नानाति सोऽन्तरात्मा भवतीति निरूपयति
देह - विभिउ गाणमउ जो परमप्पु लिएइ । परम-समाहि- परिट्टियउ पंडिउ सो जि हवेइ ॥ १४ ॥
देहविभिन्नं ज्ञानमयं यः परमात्मानं पश्यति । परमसमाधिपरिस्थितः पण्डितः स एव भवति ||१४||
आगे परमसमाधि में स्थित, देहसे भिन्न ज्ञानमयी ( उपयोगमयी ) आत्माको जो जानता है, वह अन्तरात्मा है, ऐसा कहते हैं - (यः) जो पुरुष ( परमात्मानं ) परमात्माको ( देहविभिन्नं ) शरीर से जुदा ( ज्ञानमयं ) केवलज्ञानकर पूर्ण ( पश्यति) जानता है, ( स एव ) वही ( परमसमाधिपरिस्थितः ) परमसमाधि में तिष्ठता हुआ ( पंडित: ) अन्तरात्मा अर्थात् विवेकी (भवति) है |
भावार्थ - यद्यपि अनुपचरितासद्भूतव्यवहारनयसे अर्थात् इस जीवके परवस्तुका सम्बन्ध अनादिकालका मिथ्यारूप होनेसे व्यवहारनयकर देहमयी है, तो भी निश्चयनयकर सर्वथा देहादिकसे भिन्न है, और केवलज्ञानमयी है, ऐसा निजशुद्धात्माको वीतरागनिर्विकल्प सहजानन्द शुद्धात्माकी अनुभूतिरूप परमसमाधि में स्थित होता हुआ जानता है, वही विवेकी अंतरात्मा कहलाता है । वह परमात्मा ही सर्वथा आराधने योग्य है, ऐसा जानना || १४ ||
व्यथ समस्तपरद्रव्यं मुक्त्वा केवलज्ञानमयकर्मरहितशुद्धात्मा येन लब्धः स परमात्मा भवतीति कथयति