Book Title: Pariksha Mukham
Author(s): Manikyanandisuri, Gajadharlal Jain, Surendrakumar
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Samstha
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हिंदीवंगानुवादसहितं परीक्षामुखं । अनिश्चितोऽपूर्वार्थः ॥४॥ दृष्टोऽपि समारोपात्ताहा ॥५॥
हिंदी-जो पदार्थ पूर्वमें किसी भी प्रमाणद्वारा निश्चित न हुआ हो, उसे अपूर्वार्थ ( अनिश्चित पदार्थ) कहते हैं। तथा किसी भी प्रमाणसे निर्णीत होनेके पश्चात् पुनः उसमें संशय, विपर्यय अथवा अनध्यवसाय हो जाय तो उसे भी अपूर्वार्थ समझना ॥ ४-५॥
बंगला-पूर्व कोनओ प्रमाणद्वारा याहा ( जे पदार्थ ) निश्चित करा हय नाइ ताहाके अपूर्वार्थ बले । एवं कोनओ प्रमाणद्वारा निर्णीत हओयार पश्चात् पुनराय यदि संशय, विपर्यय एवं अनध्यवसाय हय तबे ताहाकेओं 'अपूर्वार्थ' बला जाय ॥ ४-५॥
स्वोन्मुखतया प्रतिभासनं स्वस्य व्यवसायः ॥६॥ अर्थस्येव तदुन्मुखतया ॥ ७॥
हिंदी-जिसप्रकार पदार्थकी ओर झुकनेपर पदार्थका ज्ञान होता है उसीप्रकार ज्ञान जिससमय अपनी ओर झुकता है तो उसे अपना भी ज्ञान (प्रतिभास) होता है। इसीको स्वव्यव साय अर्थात् ज्ञानका ज्ञान होना कहते हैं ॥ ६-७ ॥
बंगला-ये रूप पदार्थेर सम्मुखीन हइले पदार्थेर ज्ञान हय सेइ प्रकार ज्ञान यखन स्वाभिमुख हय तखन निजेरओ प्रतिभास ( ज्ञान ) हय । इहाकेइ स्वीयज्ञान (ज्ञानेर ज्ञान हओया ) बला जाय ॥ ६-७ ॥ घटमहमात्मना वेभि ॥८॥कर्मवत्कर्तृकरणक्रियाप्रतीतेः ॥९॥ हिंदी-मैं अपवेद्वारा घटको जानता हूं इस प्रतीतिमें कर्म.