Book Title: Pariksha Mukham
Author(s): Manikyanandisuri, Gajadharlal Jain, Surendrakumar
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Samstha

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Page 17
________________ सनातनजैनग्रंथमालायां स्वावरणक्षयोपशमलक्षणयोग्यतया हि प्रतिनियतमर्थ व्यवस्थापयति ॥ ९॥ हिंदी-जाननेरूप अपनी शक्तीको ढकनेवाले कर्मकी क्षयोपशमरूप अपनी योग्यतासे ही ज्ञान घटपटादि पदार्थों की जुदी २ रीतिसे व्यवस्था कर देता ( जनादेता) है, इसलिये पदार्थोंसे ज्ञान उत्पन्न होता है और इसीलिये वह उनका प्रकाशक है; इस सिद्धांतके माननेकी कोई आवश्यकता नहीं ॥९॥ वंगला--स्वीय ज्ञायक शक्तिके आच्छादक कर्मेर क्षयोप शमरूप स्वीय योग्यताद्वाराइ ज्ञान घटपटादि पदार्थ समूहके भिन्नभिन्नभावे व्यवस्था करिया थाके अर्थात् निश्चय करिया थाके । अतएव पदार्थसमूह हइते ज्ञान उत्पन्न हय, एवं सेइजन्येइ ताहादेर प्रकाशक, एरूप स्वीकार करिबार कोनओ आवश्यकता हय ना ॥९॥ --- कारणस्य च परिच्छेद्यत्वे करणादिना व्यभिचारः॥१०॥ हिंदी-जो पदार्थ ज्ञानका कारण होता है नियमसे वही पदार्थ ज्ञानका विषय होता है। यदि ऐसा कहोगे तो इंद्रिय और मन आदिमें व्यभिचार आवैगा क्योंकि इंद्रियादिक पदार्थोंका ज्ञान तौ कराते हैं किंतु स्वयं अपना ज्ञान नहिं कराते ॥१०॥ १ जैनदर्शनमें जीवकी शक्तियोंको ढकनेवाले वा हानिपहुंचानेवाले आठ प्रकार के कर्म हैं। उनमेंसे ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय अंतराय ये चारकर्म आत्माकी. अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, ( सामान्यावलीकनरूप ज्ञान ) सम्यग्दर्शन सम्यक्चारित्र, अनंतीर्य आदि शक्तियोंको आच्छादन करनेवाले घातियाकर्म हैं। इन कर्मोका यथासमय उदय तथा क्षय वा उपशम होता रहता हैं । ज्ञानावरणीय कर्मके उदय. होनेसे ज्ञान ढक जाता (कम हो जाता) है । द क्षयोपशम होनेसे ज्ञान बढता रहता है।

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