Book Title: Pariksha Mukham
Author(s): Manikyanandisuri, Gajadharlal Jain, Surendrakumar
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Samstha

View full book text
Previous | Next

Page 34
________________ ( २५ ) मानसे रूपका अनुमान माननेवालेको अवश्य ही कोई कारणलिंग भी मानना पडेगा । कहोगे कहींपर कारण रहते भी कार्यका अनुमान नहीं होता, और जहां कारणकी सामर्थ्य किसी माण मंत्र आदिसे रुक गई है वहां भी कारणसे कार्यका अनुमान नहीं होता इसलिये कारणलिंग व्यभिचारी होनेसे नहिं मानना चाहिये ? सो ठीक नहीं क्योंकि-जहां जितने कारणोंकी आवश्यकता है वहां वे सब होंगे और जहांपर कारणकी सामर्थ्यको रोकनेवाला कोई मणि मंत्र आदि न होगा वहां नियमसे कारणोंसे कार्यका अनुमान हो जायगा, वहां कारण लिंग व्यभिचारी नहीं हो सकता इसलिये बौद्ध जैसा स्वभावलिंग और कार्यलिंग मानता है उसे चाहिये वैसे ही वह युक्तिसिद्ध कारणलिंग भी स्वीकार करै ॥ ६० ॥ बंगला-रसेर सजातीय रस ओ रूपेर सजातीय रूप । एवं रसेर विजातीय रूप ओ रूपेर विजातीय रस । रूप ओ रस उभयेरइ सहचर भाव । रस रूप छाडा थाके ना अत एव रसेर उत्पत्ति ते ये रूप प्राक्तन रसकारण हय से रूप रूप ओ कारण हय । तबे ये समये आमरा अंधकारमयरात्रिते कोनओ फलेर रसास्वादन करि, से समये ताहार सामग्रीरओ अनुमान हय । अर्थात्-ए रसेर उत्पादिका कोनओ सामग्री आछे एवं से सामगीर अनुमान हइते रूपेरओ अनुमान हइया थाके । अर्थात् प्राक्तन रूप येमन सजातीय रूपके उत्पन्न करे सेरूप विजा

Loading...

Page Navigation
1 ... 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90