Book Title: Pariksha Mukham
Author(s): Manikyanandisuri, Gajadharlal Jain, Surendrakumar
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Samstha

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Page 61
________________ ( ५२ ) ज्ञान ) दर्शन संशय एवं आदिपदग्राह्य विपर्ययज्ञान ओ अनध्यवसाय ज्ञान एइ सकल प्रमाणाभास, येहेतु एइ सकलज्ञान वास्तविकरूप निजविषयेर निश्चय करेना । येमन द्वितीय पुरुषेर ज्ञान, पथे चलिवार समय तृणादिस्पर्शज्ञान, इहा कि स्थाणु वा पुरुष एइ संशय ज्ञान, सूत्रेर आदिपदग्राह्य शुक्तिते रजतज्ञान ओ प्रमाणाभास । केनना उहा ओ वास्तविकरूप निजविपयर निश्चय करायना ॥ २ ॥ ३ ॥ ४ ॥ चशूरसयोर्द्रव्ये संयुक्तसमवायवच्च ॥ ५॥ . हिंदी-द्रव्यमें चक्षु और रसका संयुक्त समवाय संबंध रहने पर भी जैसा वह प्रमाण नहिं माना जाता क्योंकि नैयायिक मतानुसार वहां कोई प्रमाणका फल नहिं होता उसी प्रकार चक्षु और रूपका संयुक्त समवाय संबंध भी प्रमाण नहिं कहा जा सकता क्योंकि वहां भी प्रमाणका फल नहिं होसकता इसलिये सन्निकर्ष भी प्रमाण नहिं होसकता इस सूत्रसे सन्निकर्षरूप प्रमाण विशेषका खंडन किया गया है ॥ ५॥ बंगला-द्रव्ये चक्षु ओ रसेर संयुक्त समवाय संबंध थाकिलेओ येमन चक्षु द्वारा रसेर प्रमाण जन्मेना केनना नैयायिकमते ए स्थले कोन प्रमाणेर फलइ हयना, से रूप चक्षु ओ रूपेर संयुक्त समवाय ओ प्रमाण नहे । इझा वलायाय ये से खानेओ कोनओ प्रमाणेर फल जन्मेना सुतरां सन्निकर्ष

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