Book Title: Pariksha Mukham
Author(s): Manikyanandisuri, Gajadharlal Jain, Surendrakumar
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Samstha

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Page 84
________________ हिंदीबंगानुवादसहितं परीक्षामुखं । ७५ विवेचित हइवे केनना सहकारी कारणेर सहायता छाडा कार्य करे ना एवं सहकारीर सहायतार्य करें, एइ. कथा परिणाम स्वीकार ना करिले बला याइते पारे ना । यदि बल ये असमर्थ हइया सामान्य आदि कार्य करे तवे ताहाओ युक्तियुक्त हइल ना । कारण ये असमर्थ, से येमन सहकारी कारणेर संघटनेर पूर्वे किछु करिते पारे ना, तेमन सहकारी कारणेर संघटनेर परेओ किछु करिते पारिबे ना, सामान्य आदि असमर्थ हइले से कोन भावेइ काज करिते पारिबे ना ॥ ६२-६५॥ ____ फलाभासं प्रमाणादभिन्न भिन्नमेव वा । अभेदे तव्यवहारानुपपत्तेः । व्यावृत्त्यापि न. तत्कल्पना फलांतराद् व्याहत्त्याऽफलत्वप्रसंगात् । प्रमाणांतराद् व्यावृत्त्येवाप्रमाणत्वस्य । तस्माद्वास्तवो भेदः । भेदे त्वात्मांतरवत्तदनुपपत्तेः समवायेऽतिप्रसंगः ॥६६।७७७८१६६७०७१।७२॥ हिंदी-प्रमाणसे फल भिन्न ही है अथवा अभिन्न ही है यह कहना फलाभास है । यदि प्रमाणसें फलका सर्वथा अभेद ही मानलिया जायगा तो यह प्रमाण है और यह फल है ऐसा व्यवहार ही न बन सकेगा, यदि यहां पर यह कहा जाय कि अभेद मानने पर भी अफलकी व्यावृत्तिसे फलकी कल्पना हो जायगी जैसा कि बौद्ध मानते हैं सो भी ठीक नहीं क्योंकि अफलकी व्यावृत्तिसे फलकी कल्पनाकी तरह दूसरे किसी समानजातीय फलकी व्यावृत्तिसे सर्वथा अफलकी ही कल्पना

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