Book Title: Pariksha Mukham
Author(s): Manikyanandisuri, Gajadharlal Jain, Surendrakumar
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Samstha
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ उस्मानाबाद निवासि - बालचंद्रकस्तूरचंद्रस्य स्मरणार्थ । सनातनजैनग्रंथमाला । ११ आचार्यवर्यश्रीमाणिक्यनंदिविरचितं परीक्षामुखं । हिंदीभाषानुवादक-न्यायतीर्थश्रीगजाधरलाल जैनः | बंगानुवादक - ब्रह्मचारिसांख्यतीर्थः श्रीसुरेंद्रकुमारः । प्रकाशक : गांधी हरिभाई देवकरणएंड सन्सद्वारा संरक्षितायाः भारतीयजैनसिद्धांत प्रकाशिनीसंस्थायाः व्यवस्थापकः श्रीपन्नालालजैनः मुद्रक : पं० आत्मारामशर्मा काशीस्थ - जार्जप्रिंटिंवर्क्स व्यवस्थापकः । वीरनिर्वाण संवत् २४४२ । ईशवीय सन् १९१६ । प्रथमावृत्तिः ] [ मूल्यं ६ आणकाः । * Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमोऽनेकाताया सामातनजैनग्रंथमाला। आचार्यवर्यश्रीमाणिक्यनंदिविरचितं. परीक्षामुख हिंदीवंगानुवादास्ता मंगलाचरणं । प्रमाणादर्थसंसिद्धिस्तदाभासाद्विपर्ययः। इति वक्ष्ये तयोर्लक्ष्म सिद्धमल्पं लघीयसः॥१॥ हिंदी अनुवाद-प्रमाणसे पदार्थोका वास्तविक ज्ञान होता है, प्रमाणाभाससे वास्तविकज्ञान नहिं होता; अतएव न्यायशास्त्रसे अनभिज्ञ शिष्योंके हितार्थ इन दोनोंका (प्रमाण और प्रमाणाभासका) संक्षिप्त लक्षण जो कि पूर्वाचार्योंद्वारा प्रसिद्ध है कहा जायगा ॥ १॥ वंगानुवाद-प्रमाणद्वारा पदार्थेर यथार्थज्ञान हय, प्रमाणाभासद्वारा पदार्थेर वास्तविकज्ञान हय ना; अतएव न्यायशास्वानभिज्ञ शिष्यगणेर हितार्थे उभयेरइ आर्षग्रंथ-प्रसिद्ध-लक्षण संक्षेप करिया बलितछि ॥१॥ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनातनजैनग्रंथमालायांस्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणं ॥१॥ हिंदी-अपना और अपूर्व (जो पूर्वमें किसी भी प्रमाणसे निश्चित न हो ऐसे ) पदार्थका निश्चय करानेवाला ज्ञान (सम्यग्ज्ञान) प्रमाण है ॥ १॥ बंगला-स्वीय एवं अपूर्वपदार्थेर ( याहा पूर्वे कोनओ प्रमाणद्वारा सिद्ध हय नाइ) निश्चयबोधक ज्ञानके ( सम्यग्ज्ञानके ) प्रमाण बले ॥१॥ हिताहितप्राप्तिपरिहारसमर्थ हि प्रमाणं, ततो ज्ञानमेव तत।२। हिंदी-प्रमाण ही हितकी प्राप्ति और अहितके परिहार करनेमें समर्थ है, इसलिये ज्ञान ही प्रमाण हो सकता है । अज्ञानस्वरूप सन्निकर्षादि प्रमाण नहिं होते ॥ २ ॥ बंगला-प्रमाणइ हितेर प्राप्ति ओ अहितेर परिहार करिते समर्थ, अतएव ज्ञानइ प्रमाण हइते पारे, अज्ञानस्वरूप सन्निकर्षादि प्रमाण हइते पारे ना ॥ २ ॥ तनिश्चयात्मकं समारोपविरुद्धत्वादनुमानवत् ॥३॥ हिंदी-वह प्रमाण (सम्यग्ज्ञान ) समारोपका (संशय विपर्यय अनध्यवसायका) विरोधी होनेसे बौद्धोंद्वारा मानेहुये अनुमानकी तरह निश्चयात्मक है ।। ३ ॥ वंगला-उक्त प्रणाण समारोपेर (संशय विपर्यय अनध्यबसायेर) विरोधी । अतएव बुद्धकथित अनुमानसदृश निश्चयकारक ॥ ३ ॥ विरुद्ध अनेक कोटिर अवलंबनकारक ज्ञानके संशय बले यथा- · एइ सीप किं रूपा'। विपरीत ज्ञानके विपर्यय बले यथा-सीपके रूपा बला। रास्ताय चलिबरा समय तृणप्रमृतिर स्पर्शादि हइले ‘किछु आछे' एइप्रकार ज्ञानके अनध्यवसाय बाहय । Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंदीवंगानुवादसहितं परीक्षामुखं । अनिश्चितोऽपूर्वार्थः ॥४॥ दृष्टोऽपि समारोपात्ताहक् ॥५॥ हिंदी-जो पदार्थ पूर्वमें किसी भी प्रमाणद्वारा निश्चित न हुआ हो, उसे अपूर्वार्थ ( अनिश्चित पदार्थ) कहते हैं। तथा किसी भी प्रमाणसे निर्णीत होनेके पश्चात् पुनः उसमें संशय, विपर्यय अथवा अनध्यवसाय हो जाय तो उसे भी अपूर्वार्थ समझना ॥ ४-५॥ बंगला-पूर्वे कोनओ प्रमाणद्वारा याहा (जे पदार्थ ) निश्चित करा हय नाइ ताहाके अपूर्वार्थ बले । एवं कोनओ प्रमाणद्वारा निर्णीत हओयार पश्चात् पुनराय यदि संशय, विपर्यय एवं अनध्यवसाय हय तबे ताहाकेओ 'अपूर्वार्थ' बला जाय ॥ ४-५ ॥ स्वोन्मुखतया प्रतिभासनं स्वस्य व्यवसायः ॥६॥ अर्थस्येव तदुन्मुखतया ॥७॥ हिंदी-जिसप्रकार पदार्थकी ओर झुकनेपर पदार्थका ज्ञान होता है उसीप्रकार ज्ञान जिससमय अपनी ओर झुकता है तो उसे अपना भी ज्ञान (प्रतिभास) होता है। इसीको स्वव्यव साय अर्थात् ज्ञानका ज्ञान होना कहते हैं ॥ ६-७॥ बंगला-ये रूप पदार्थेर सम्मुखीन हइले पदार्थर ज्ञान हय सेइ प्रकार ज्ञान यखन स्वाभिमुख हय तखन निजेरो प्रतिभास ( ज्ञान ) हय । इहाकेइ स्वीयज्ञान ( ज्ञानेर ज्ञान हओया ) बला जाय ॥ ६-७॥ घटमहमात्मना वेनि ॥८॥ कर्मवत्कर्तृकरणक्रियाप्रतीतेः ॥९॥ हिंदी-मैं अपनेद्वारा घटको जानता हूं इस प्रतीतिमें कर्म. Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनातनजैनग्रंथमालायां की तरह कर्ता करण क्रियाकी भी प्रतीति होती है । अर्थात्'मैं अपनेद्वारा घटको जानता हूं। इस प्रतीतिमें जैसा कर्म (घट) ज्ञानका विषय मालूम पडता है उसीप्रकार (मैं) कर्ता (अपनेद्वारा) करण (जानता हूं) क्रिया, ये भी ज्ञानके विषय होते हैं ॥८-९॥ ___बंगला-आमि स्वीय ज्ञानेरद्वारा घटके जानि, एइ वाक्ये ये रूप घटेर ज्ञान हय, सेइरूप कर्ता, करण एवं क्रियारओ प्रतीति ( ज्ञानेर विषय ) हय ॥ ८-९ ॥ शब्दानुच्चारणेऽपि स्वस्यानुभवनमर्थवत् ॥१०॥ - हिंदी-जिसप्रकार घटपटादि शब्दोंका उच्चारण न करनेपर भी घटपटादि पदार्थोंका ज्ञान हो जाता है, उसीप्रकार 'ज्ञान' ऐसा शब्द न कहनेपर भी ज्ञानका ज्ञान हो जाता है ॥ १० ॥ __वंगला- शब्दर उच्चारण ना करिलेओ. घटपटप्रभृति पदार्थेर येमन ज्ञान हइते पारे, सेइरूप 'ज्ञान' एइ शब्देर उच्चारण ना करिलेओ ज्ञानेर ज्ञान हुइया जाय ॥ १० ॥ को वा तत्प्रतिभासिनमथेमध्यक्षामिच्छंस्तदेव तथा नेच्छेत् ॥ ११ ॥ प्रदीपवत् ॥ १२ ॥ हिंदी-घट पट आदि पदार्थ और अपना प्रकाशक होनेसे जैसा दीपक स्वपरप्रकाशक समझा जाता है, उसीप्रकार ज्ञान भी घट पट आदि पदार्थोंका और अपना जाननेवाला है, इसलिये उसे भी स्वपरस्वरूपका जाननेवाला समझना चाहिये क्योंकि ऐसा कौनं लौकिक वा परीक्षक है जो ज्ञानसे जाने पदार्थको तो प्रत्यक्षका विषय माने और ज्ञानको प्रत्यक्षका विषय न माने ॥११-१२॥ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंदीवंगानुवादसहितं परीक्षामुखं । बंगला-घटपट प्रभृति पदार्थक एवं निजेके प्रकाश कराते दीपक येमन स्वपरप्रकाशक, सेरूप ज्ञानओ घटपट प्रभृति पदार्थेर एवं निजेर ज्ञापक बलिया ताहाकेआ स्वपर बोधक स्वीकार करते हइबे । कारण एमन के लौकिक (अप्राप्त. ज्ञानप्रकर्ष ) एवं परीक्षक ( प्राप्तज्ञानप्रकर्ष ) आछन यिनि ज्ञानद्वारा प्रकाशित पदार्थके प्रत्यक्ष ज्ञानेर विषय स्वीकार करेन किंतु सेइ ज्ञानके प्रत्यक्ष ज्ञानेर विषय स्वीकार ना करेन ॥११-१२॥ तत्प्रामाण्यं स्वतः परतश्च ॥१३॥ हिंदी-उपर्युक्त प्रमाणकी प्रमाणता (सच्चावट) अभ्यास दशामें अपने गामके निकट देखे भाले नदी कूपादि पदार्थोमें ) अपने आप सिद्ध हो जाती है और अनभ्यास दशामें (अपरिचितपदार्थोके निर्णयमें ) किसी अन्य पुरुषादिसे सिद्ध होती है ॥१३॥ वंगला-पूर्वोक्त प्रमाणेर प्रामाण्य अभ्यासदशाय स्वतः ( काहारओ साहाय्यभिन्न ) एवं अनभ्यासदशाय परतः ( अपरेर साहाय्ये ) हइया थाके ॥ १३ ॥ इति परीक्षामुखसूत्रार्थे प्रथमोद्देशः॥ १॥ अथ द्वितीयोद्देशः। तवेधा ॥१॥ प्रत्यक्षतरभेदात् ॥२॥ विशदं प्रत्यक्षं ॥३॥ हिंदी-वह प्रमाण प्रत्यक्ष और परोक्षके भेदसे दो प्रकारका है । विशद ( स्पष्ट ) ज्ञानको प्रत्यक्ष कहते हैं ॥१-२-३॥ बंगला-प्रमाण प्रत्यक्ष ओ परोक्षभेदे दुइ प्रकार । विशद (स्पष्ट) ज्ञानके प्रत्यक्ष बला हय ॥१-२-३॥ .. Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनातन जैन ग्रंथमालायां प्रतीत्यंतराग्यवधानेन विशेषवत्तया वा प्रतिभासनं वैशद्यं ॥ ४ हिंदी - जो प्रतिभास विना किसी दूसरे ज्ञानकी सहाय ताके 'स्वतंत्र' हो, तथा हरा पीला आदि विशेष वर्ण और सीधा टेढा आदि विशेष आकार लिये हो, उसे वैशद्य ( स्वच्छता) कहते हैं ॥४॥ ६ बंगला – जे प्रतिभास अपर कोनओ ज्ञानेर साहाय्यभिन्न हय, एवं हरितपीतादि वर्ण ओ सरलवकादि विशेष आकार विशिष्ट हय, ताहाके वैशद्य ( स्पष्टता, स्वच्छता ) बले ॥४॥ इंद्रियानिंद्रियनिमित्तं देशतः सांव्यवहारिकं ॥ ५ ॥ हिंदी --जो ज्ञान स्पर्शन रसना घ्राणादि इंद्रिय और मनकी सहायता से एकदेश विशद हो, उसे सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहते हैं ||५|| बंगला -- ये स्पर्शन रसना घ्राण प्रभृति इंद्रिय ओ मनेर साहाय्ये एकदेशविशद हय ताहाके सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष बले ||५|| नाथलोको कारणं परिच्छेद्यत्वात्तमोवत् ||६|| हिंदी - ज्ञेय होनेके कारण जिसप्रकार अंधकारको ज्ञानके प्रति कारण नहिं माना जाता, उसीप्रकार ज्ञेय होनेसे पदार्थ और प्रकाश भी ज्ञानके कारण नहिं हो सकते । इसमें और भी समाधान देते हैं, ॥६॥ बंगला - ज्ञेय बलिया येरूप अंधकार के ज्ञानेर कारण बलिया स्वीकार करा जाय ना, सेरूप ज्ञेय बलिया पदार्थ एवं प्रकाशओ ज्ञानेर कारण हइते पारे ना। एविषये आरओ समाधान करिते छेन ॥ ६ ॥ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंदीवंगानुवादसहितं परीक्षामुखं । तदन्वयव्यतिरेकानुविधानाभावाच्च केशोंडुकज्ञानव नक्तंचरज्ञानवच्च ॥७॥ हिंदी - मच्छर न होनेपर भी केशों में मच्छरोंका ज्ञान हो जाता है किंतु यहांपर ज्ञानका मच्छरोंके साथ अन्वय व्यतिरेक न रहनेसे ( अन्वयव्यतिरेकव्यभिचारसे) जिसप्रकार मच्छर ज्ञानके प्रति कारण नहिं होते और कृष्ण पक्षकी रात्रि में प्रकाश न होनेपर भी बिल्ली, उल्लू आदि जीवोंको पदार्थों का ज्ञान हो जाता है । यहांपर ज्ञानका प्रकाशके साथ अन्वय व्यतिरेक न रहनेसे ( अन्वयव्यतिरेक के व्यभिचारसे) प्रकाश ज्ञानका कारण नहिं होता, उसीप्रकार पदार्थ और प्रकाश कदापि ज्ञानके कारण नहिं हो सकते ॥७॥ बंगला - येमन मशक केश ना हइलेओ केश मशकेर ज्ञान हइते पारे किंतु ए स्थले केश मशकेर संगे ज्ञानेर अन्वयव्यतिरेक ना हयाते येरूप केश मशक ज्ञानेर कारण एवं कृष्ण पक्षेर रात्रि प्रकाश हइलेओ विडाल उलूक प्रभुतिर पदार्थज्ञान हय किंतु एखाने प्रकाशेर संगे ज्ञानेर अन्वयव्यतिरेक ना हओयाते पदार्थ ओ प्रकाश ज्ञानेर कारण कदापि हइते पारे ना ॥७॥ अतज्जन्यमपि तत्प्रकाशकं प्रदीपवत् ||८|| हिंदी - पदार्थोंसे नहिं उत्पन्न होकर भी प्रदीप जिसप्रकार घटपटादि पदार्थोंका प्रकाशक है, उसीप्रकार पदार्थोंसे उत्पन्न न होकर भी ज्ञान उन पदार्थों का प्रकाश करनेवाला है ॥८॥ बंगला - पदार्थ हइते उत्पन्न ना हइयाओ येरूप प्रदीप घटपट प्रभृति पदार्थर प्रकाशक, सेरूप घटपटादि पदार्थ हइते उत्पन्न ना हइया ज्ञानओ से सकल पदार्थ समूहेर प्रकाशक ॥ ८ ॥ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनातनजैनग्रंथमालायांस्वावरणक्षयोपशमलक्षणयोग्यतया हि प्रतिनियतमर्थ व्यवस्थापयति ॥ ९॥ हिंदी-जाननेरूप अपनी शक्तीको ढकनेवाले कर्मकी क्षयोपशमरूप अपनी योग्यतासे ही ज्ञान घटपटादि पदार्थों की जुदी २ रीतिसे व्यवस्था कर देता ( जनादेता ) है, इसलिये पदार्थोंसे ज्ञान उत्पन्न होता है और इसीलिये वह उनका प्रकाशक है; इस सिद्धांतके माननेकी कोई आवश्यकता नहीं ॥९॥ वंगला-स्वीय ज्ञायक शक्तिके आच्छादक कर्मेर क्षयोप शमरूप स्वीय योग्यताद्वाराइ ज्ञान घटपटादि पदार्थ समूहके भिन्नभिन्नभावे व्यवस्था करिया थाके अर्थात् निश्चय करिया थाके । अतएव पदार्थसमूह हइते ज्ञान उत्पन्न हय, एवं सेइजन्येइ ताहादेर प्रकाशक, एरूप स्वीकार करिबार कोनओ आवश्यकता हय ना ॥९॥ कारणस्य च परिच्छेद्यत्वे करणादिना व्यभिचारः॥१०॥ हिंदी-जो पदार्थ ज्ञानका कारण होता है नियमसे वही पदार्थ ज्ञानका विषय होता है। यदि ऐसा कहोगे तो इंद्रिय और मन आदिमें व्यभिचार आवैगा क्योंकि इंद्रियादिक पदार्थोंका ज्ञान तो कराते हैं किंतु स्वयं अपना ज्ञान नहिं कराते ॥१०॥ १ जैनदर्शनमें जीवकी शक्तियोंको ढकनेवाले वा हानिपहुंचानेवाले आठ प्रकारके कर्म हैं। उनमेंसे ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय अंतराय ये चारकर्म आत्माकी अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, ( सामान्यावलोकनरूप ज्ञान ) सम्यग्दर्शन सम्यक्चारित्र, अनंतकीर्य आदि शक्तियोंको आच्छादन करनेवाले घातियाकर्म हैं। इन कर्मोका यथासमय उदय तथा क्षय वा उपशम होता रहता हैं । ज्ञानावरणीय कर्मके उदय होनेसे ज्ञान ढक जाता (कम हो जाता) है । व क्षयोपशम होनेसे ज्ञान बढता रहता है। Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Arunata नमोऽनेकांताय । सनातनजैनग्रंथमाला। आचार्यवर्यश्रीमाणिक्यनंदिविरचितं परीक्षामुखं हिंदीवंगानुवादसहितं। मंगलाचरणं । प्रमाणादर्थसंसिद्धिस्तदाभासाद्विपर्ययः । इति वक्ष्ये तयोलेक्ष्म सिद्धमल्पं लघीयसः॥१॥ हिंदी अनुवाद-प्रमाणसे पदार्थोंका वास्तविक ज्ञान होता है, प्रमाणाभाससे वास्तविकज्ञान नहिं होता; अतएव न्यायशास्त्रसे अनभिज्ञ शिष्योंके हितार्थ इन दोनोंका (प्रमाण और प्रमाणाभासका) संक्षिप्त लक्षण जो कि पूर्वाचार्योंद्वारा प्रसिद्ध है कहा जायगा ॥ १॥ - वंगानुवाद-प्रमाणद्वारा पदार्थेर यथार्थज्ञान हय, प्रमा. णाभासद्वारा पदार्थेर वास्तविकज्ञान हय ना; अतएव न्यायशास्त्रानभिज्ञ शिष्यगणेर हितार्थे उभयेरइ आर्षग्रंथ-प्रसिद्ध-लक्षण संक्षेप करिया बलितछि ॥१॥ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनातनजैनग्रंथमालायां स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणं ॥१॥ हिंदी-अपना और अपूर्व (जो पूर्वमें किसी भी प्रमाणसे निश्चित न हो ऐसे ) पदार्थका निश्चय करानेवाला ज्ञान (सम्यग्ज्ञान) प्रमाण है ॥१॥ बंगला-स्वीय एवं अपूर्वपदार्थेर ( याहा पूर्वे कोनओ प्रमाणद्वारा सिद्ध हय नाइ) निश्चयबोधक ज्ञानके (सम्यग्ज्ञानके) प्रमाण बले ॥ १॥ हिताहितप्राप्तिपरिहारसमर्थ हि प्रमाणं, ततो ज्ञानमेव तत्।२। हिंदी-प्रमाण ही हितकी प्राप्ति और अहितके परिहार करनेमें समर्थ है, इसलिये ज्ञान ही प्रमाण हो सकता है । अज्ञानस्वरूप सन्निकर्षादि प्रमाण नहिं होते ॥ २ ॥ बंगला-प्रमाणइ हितेर प्राप्ति ओ अहितेर परिहार करिते समर्थ, अतएव ज्ञानइ प्रमाण हइते पारे, अज्ञानस्वरूप सन्निक. र्षादि प्रमाण हइते पारे ना ॥२॥ तनिश्चयात्मकं समारोपविरुद्धत्वादनुमानवत् ॥३॥ हिंदी-वह प्रमाण (सम्यग्ज्ञान ) समारोपका (संशय विपर्यय अनध्यवसायका ) विरोधी होनेसे बौद्धोद्वारा मानेहुये अनुमानकी तरह निश्चयात्मक है ।। ३ ॥ . वंगला-उक्त प्रणाण समारोपेर (संशय विपर्यय अनध्यवसायेर) विरोधी । अतएव बुद्धकथित अनुमानसदृश निश्चयकारक ॥ ३ ॥ . १ विरुद्ध अनेक कोटिर अवलंबनकारक ज्ञानके संशय बले यथा- 'एइ सीप कि रूपा' । विपरीत ज्ञानके विपर्यय बड़े यथा-सीएके रूपा बला। रास्ताय चलिबरा समय तृणप्रमृतिर स्पर्शादि हइले 'किछु आछे' एइप्रकार ज्ञानके अनध्यवसाय बला हय । Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंदीवंगानुवादसहितं परीक्षामुखं । अनिश्चितोऽपूर्वार्थः ॥४॥ दृष्टोऽपि समारोपात्ताहा ॥५॥ हिंदी-जो पदार्थ पूर्वमें किसी भी प्रमाणद्वारा निश्चित न हुआ हो, उसे अपूर्वार्थ ( अनिश्चित पदार्थ) कहते हैं। तथा किसी भी प्रमाणसे निर्णीत होनेके पश्चात् पुनः उसमें संशय, विपर्यय अथवा अनध्यवसाय हो जाय तो उसे भी अपूर्वार्थ समझना ॥ ४-५॥ बंगला-पूर्व कोनओ प्रमाणद्वारा याहा ( जे पदार्थ ) निश्चित करा हय नाइ ताहाके अपूर्वार्थ बले । एवं कोनओ प्रमाणद्वारा निर्णीत हओयार पश्चात् पुनराय यदि संशय, विपर्यय एवं अनध्यवसाय हय तबे ताहाकेओं 'अपूर्वार्थ' बला जाय ॥ ४-५॥ स्वोन्मुखतया प्रतिभासनं स्वस्य व्यवसायः ॥६॥ अर्थस्येव तदुन्मुखतया ॥ ७॥ हिंदी-जिसप्रकार पदार्थकी ओर झुकनेपर पदार्थका ज्ञान होता है उसीप्रकार ज्ञान जिससमय अपनी ओर झुकता है तो उसे अपना भी ज्ञान (प्रतिभास) होता है। इसीको स्वव्यव साय अर्थात् ज्ञानका ज्ञान होना कहते हैं ॥ ६-७ ॥ बंगला-ये रूप पदार्थेर सम्मुखीन हइले पदार्थेर ज्ञान हय सेइ प्रकार ज्ञान यखन स्वाभिमुख हय तखन निजेरओ प्रतिभास ( ज्ञान ) हय । इहाकेइ स्वीयज्ञान (ज्ञानेर ज्ञान हओया ) बला जाय ॥ ६-७ ॥ घटमहमात्मना वेभि ॥८॥कर्मवत्कर्तृकरणक्रियाप्रतीतेः ॥९॥ हिंदी-मैं अपवेद्वारा घटको जानता हूं इस प्रतीतिमें कर्म. Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनातनजैनग्रंथमालायां की तरह कर्त्ता करण क्रियाकी भी प्रतीति होती है । अर्थात्'मैं अपनद्वारा घटको जानता हूं। इस प्रतीतिमें जैसा कर्म (घट) ज्ञानका विषय मालूम पडता है उसीप्रकार (मैं) कर्ता (अपनेद्वारा) करण (जानता हूं) क्रिया, ये भी ज्ञानके विषय होते हैं ॥ ८-९॥ वंगला-आमि स्वीय ज्ञानेरद्वारा घटके जानि, एइ बाक्ये ये रूप घटेर ज्ञान हय, सेइरूप कर्ता, करण एवं क्रियारओ प्रतीति ( ज्ञानेर विषय ) हय ॥ ८-९॥ शब्दानुच्चारणेऽपि स्वस्यानुभवनमर्थवत् ॥१०॥ हिंदी-जिसप्रकार घटपटादि शब्दोंका उच्चारण न करनेपर भी घटपटादि पदार्थों का ज्ञान हो जाता है, उसीप्रकार 'ज्ञान' ऐसा शब्द न कहनेपर भी ज्ञानका ज्ञान हो जाता है ॥१०॥ वंगला- शब्दर उच्चारण ना करिलेओ घटपटप्रभृति पदार्थेर येमन ज्ञान हइते पारे, सेइरूप 'ज्ञान' एइ शब्देर उच्चारण ना करिलेओ ज्ञानेर ज्ञान हुइया जाय ॥ १० ॥ को वा तत्प्रतिभासिनमर्थमध्यक्षामिच्छंस्तदेव तथा नेच्छेत् ॥ ११ ॥ प्रदीपवत् ॥ १२॥ हिंदी-घट पट आदि पदार्थ और अपना प्रकाशक होनेसे जैसा दीपक स्वपरप्रकाशक समझा जाता है, उसीप्रकार ज्ञान भी घट पट आदि पदार्थोंका और अपना जाननेवाला है, इसलिये उसे भी स्वपरस्वरूपका जाननेवाला समझना चाहिये क्योंकि ऐसा कौनं लौकिक वा परीक्षक है जो ज्ञानसे जाने पदार्थको तो प्रत्यक्षका विषय माने और ज्ञानको प्रत्यक्षका विषय न माने ॥ ११-१२॥ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंदीवंगानुवादसहितं परीक्षामुखं । वंगला-घटपट प्रभृति पदार्थक एवं निजेके प्रकाश कराते दीपक येमन स्वपरप्रकाशक, सेरूप ज्ञानओ घटपट प्रभृति पदार्थेर एवं निजेर ज्ञापक बलिया ताहाकेओ स्वपर बोधक स्वीकार करते हइबे । कारण एमन के लौकिक (अप्राप्तज्ञानप्रकर्ष ) एवं परीक्षक (प्राप्तज्ञानप्रकर्ष ) आछन यिनि ज्ञानद्वारा प्रकाशित पदार्थके प्रत्यक्ष ज्ञानेर विषय स्वीकार करेन किंतु सेइ ज्ञानके प्रत्यक्ष ज्ञानेर विषय स्वीकार ना करेन ॥११-१२।। तत्प्रामाण्यं स्वतः परतश्च ॥ १३ ॥ __ हिंदी-उपर्युक्त प्रमाणकी प्रमाणता (सच्चावट) अभ्यास दशामें ( अपने गामके निकट देखे भाले नदी कूपादि पदार्थों में ) अपने आप सिद्ध हो जाती है और अनभ्यास दशामें (अपरिचितपदार्थोके निर्णयमें ) किसी अन्य पुरुषादिसे सिद्ध होती है ॥१३॥ वंगला-पूर्वोक्त प्रमाणेर प्रामाण्य अभ्यासदशाय स्वतः ( काहारओ साहाय्यभिन्न ) एवं अनभ्यासदशाय परतः ( अपरेर साहाय्ये ) हइया थाके ॥ १३ ॥ इति परीक्षामुखसूत्रार्थे प्रथमोद्देशः ॥ १ ॥ अथ द्वितीयोद्देशः। तवेधा ॥१॥ प्रत्यक्षतरभेदात् ॥२॥ विशदं प्रत्यक्षं ॥३॥ हिंदी-वह प्रमाण प्रत्यक्ष और परोक्षके भेदसे दो प्रकारका है । विशद ( स्पष्ट ) ज्ञानको प्रत्यक्ष कहते हैं ॥१-२-३॥ बंगला-प्रमाण प्रत्यक्ष ओ परोक्षभेदे दुई प्रकार । विशद (स्पष्ट) ज्ञानके प्रत्यक्ष बला हय ॥१-२-३॥ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनातनजैनग्रंथमालायां प्रतीत्यंतराव्यवधानेन विशेषवत्तया वा प्रतिभासनं वैशचं॥४ ___ हिंदी-जो प्रतिभास विना किसी दूसरे ज्ञानकी. सहायताके 'स्वतंत्र' हो, तथा हरा पीला आदि विशेष वर्ण और सीधा टेढा आदि विशेष आकार लिये हो, उसे वैशद्य ( स्वच्छता) कहते हैं ॥४॥ बंगला-जे प्रतिभास अपर कोनओ ज्ञानेर साहाय्यभिन्न हय, एवं हरितपीतादि वर्ण ओ सरलवक्रादि विशेष आकार विशिष्ट हय, ताहाके वैशद्य ( स्पष्टता, स्वच्छता ) बले ॥४॥ इंद्रियानिद्रियनिमित्तं देशतः सांव्यवहारिकं ॥५॥ - हिंदी ---जो ज्ञान स्पर्शन रसना घ्राणादि इंद्रिय और मनकी सहायतासे एकदेश विशद हो, उसे सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहते हैं ॥५॥ - बंगला-ये स्पर्शन रसना प्राण प्रभृति इंद्रिय ओ मनेर साहाय्ये एकदेशविशद हय ताहाके सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष बले ॥५॥ नार्थालोको कारणं परिच्छेद्यत्वात्तमोवत् ॥६॥ हिंदी-ज्ञेय होनेके कारण जिसप्रकार अंधकारको ज्ञानके प्रति कारण नहिं माना जाता, उसीप्रकार ज्ञेय होनेसे पदार्थ और प्रकाश भी ज्ञानके कारण नहिं हो सकते। इसमें और भी समाधान देते हैं, ॥६॥ बंगला-ज्ञेय बलिया येरूप अंधकारके ज्ञानेर कारण बलिया स्वीकार करा जाय ना, सेरूप ज्ञेय बलिया पदार्थ एवं प्रकाशओ ज्ञानेर कारण हइते पारे ना। एविषये आरओ समाधान करिते छेन ॥ ६॥ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंदीवंगानुवादसहितं परीक्षामुखं । तदन्वयव्यतिरेकानुविधानाभावाच्च केशोंडुकज्ञानवअक्तंचरज्ञानवच्च ॥७॥ ___ हिंदी-मच्छर न होनेपर भी केशोंमें मच्छरोंका ज्ञान हो जाता है किंतु यहांपर ज्ञानका मच्छरोंके साथ अन्वय व्यतिरेक न रहनेसे ( अन्वयव्यतिरेकव्यभिचारसे ) जिसप्रकार मच्छर ज्ञानके प्रति कारण नहिं होते और कृष्ण पक्षकी रात्रिमें प्रकाश न होनेपर भी बिल्ली, उल्लू आदि जीवोंको पदार्थोंका ज्ञान हो जाता है। यहांपर ज्ञानका प्रकाशके साथ अन्वय व्यतिरेक न रहनेसे (अन्वयव्यतिरेकके व्याभिचारसे ) प्रकाश ज्ञानका कारण नहिं होता, उसीप्रकार पदार्थ और प्रकाश कदापि जानके कारण नहिं हो सकते ॥७॥ बंगला-येमन मशक केश ना हइलेओ केश मशकेर ज्ञान हइते पारे किंतु ए स्थले केश मशकेर संगे ज्ञानेर अन्वयव्यतिरेक ना हओयाते येरूप केश मशक ज्ञानेर कारण. एवं कृष्ण पक्षेर रात्रिते प्रकाश हइलेओ विडाल उलूक प्रभृतिर पदार्थज्ञान हय किंतु एखाने प्रकाशेर संगे ज्ञानेर अन्वयव्यतिरेक ना हओयाते पदार्थ ओ प्रकाश ज्ञानेर कारण कदापि हइते पारे ना ॥७॥ ___अतज्जन्यमपि तत्प्रकाशकं प्रदीपवत् ॥८॥ हिंदी-पदार्थोंसे नहिं उत्पन्न होकर भी प्रदीप जिसप्रकार घटपटादि पदार्थोंका प्रकाशक है, उसीप्रकार पदार्थोंसे उत्पन्न न होकर भी ज्ञान उन पदार्थों का प्रकाश करनेवाला है ॥८॥ बंगला--पदार्थ हइते उत्पन्न ना हइयाओ येरूप प्रदीप घटपट प्रभृति पदार्थेर प्रकाशक, सेरूप घटपटादि पदार्थ हइते उत्पन्न ना हइया ज्ञानओ से सकल पदार्थ समूहेर प्रकाशक ॥८॥ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनातनजैनग्रंथमालायां स्वावरणक्षयोपशमलक्षणयोग्यतया हि प्रतिनियतमर्थ व्यवस्थापयति ॥ ९॥ हिंदी-जाननेरूप अपनी शक्तीको ढकनेवाले कर्मकी क्षयोपशमरूप अपनी योग्यतासे ही ज्ञान घटपटादि पदार्थों की जुदी २ रीतिसे व्यवस्था कर देता ( जनादेता) है, इसलिये पदार्थोंसे ज्ञान उत्पन्न होता है और इसीलिये वह उनका प्रकाशक है; इस सिद्धांतके माननेकी कोई आवश्यकता नहीं ॥९॥ वंगला--स्वीय ज्ञायक शक्तिके आच्छादक कर्मेर क्षयोप शमरूप स्वीय योग्यताद्वाराइ ज्ञान घटपटादि पदार्थ समूहके भिन्नभिन्नभावे व्यवस्था करिया थाके अर्थात् निश्चय करिया थाके । अतएव पदार्थसमूह हइते ज्ञान उत्पन्न हय, एवं सेइजन्येइ ताहादेर प्रकाशक, एरूप स्वीकार करिबार कोनओ आवश्यकता हय ना ॥९॥ --- कारणस्य च परिच्छेद्यत्वे करणादिना व्यभिचारः॥१०॥ हिंदी-जो पदार्थ ज्ञानका कारण होता है नियमसे वही पदार्थ ज्ञानका विषय होता है। यदि ऐसा कहोगे तो इंद्रिय और मन आदिमें व्यभिचार आवैगा क्योंकि इंद्रियादिक पदार्थोंका ज्ञान तौ कराते हैं किंतु स्वयं अपना ज्ञान नहिं कराते ॥१०॥ १ जैनदर्शनमें जीवकी शक्तियोंको ढकनेवाले वा हानिपहुंचानेवाले आठ प्रकार के कर्म हैं। उनमेंसे ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय अंतराय ये चारकर्म आत्माकी. अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, ( सामान्यावलीकनरूप ज्ञान ) सम्यग्दर्शन सम्यक्चारित्र, अनंतीर्य आदि शक्तियोंको आच्छादन करनेवाले घातियाकर्म हैं। इन कर्मोका यथासमय उदय तथा क्षय वा उपशम होता रहता हैं । ज्ञानावरणीय कर्मके उदय. होनेसे ज्ञान ढक जाता (कम हो जाता) है । द क्षयोपशम होनेसे ज्ञान बढता रहता है। Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंदवंगानुवादसहितं परीक्षामुखं । बंगला-ये पदार्थ ज्ञानेर कारण । नियमतः सेइ पदार्थह ज्ञानेर विषय, यदि एइरूप बलेन ताहा हइले इंद्रिय मन प्रभृति ज्ञानकारणे व्यभिचार उपस्थित हइबे । ये हेतु इंद्रिय प्रभृति पदार्थ समूहेर ज्ञान तो कराय बटे किंतु स्वयं निजेर ज्ञान कराय ना ।१०। सामग्रीविशेषविश्लेषिताखिलावरणमतींद्रियमशेषतो मुख्यं ॥११॥ सावरणत्वे करणजन्यत्वे च प्रतिबंधसंभवात् ॥१२॥ हिंदी--जो ज्ञान, देश काल तप आदि सामग्री विशेषसे समस्त कर्मावरणोंसे रहित हो, अतींद्रिय और सर्वथा विशद (निर्मल) हो, उसे मुख्यप्रत्यक्ष कहते हैं। क्योंकि आवरण सहित और इंद्रियोंकी सहायतासे होनेवाले ज्ञानका प्रतिबंध होना संभव है ॥११-१२॥ ____ बंगला-ये ज्ञान देश काल तपः प्रभृति सामग्रीविशेषद्वारा कर्मावरणरहित, अतींद्रिय एवं सर्वथा विशद (स्वच्छ ) ताहाके मुख्य प्रत्यक्ष बले । ये हेतु आवरण सहित ओ इंद्रिय सहाय्ये उत्पन्न ज्ञानेर प्रतिबंध हइबार संभावना थाके ॥१११२॥ इति परीक्षामुखसूत्रार्थे द्वितीयोद्देशः ॥२॥ अथ तृतीयोद्देशः। परोक्षमितरत् ॥१॥ हिंदी-प्रत्यक्ष ज्ञानसे भिन्न स्मृति आदिक ज्ञान परोक्षप्रमाण हैं ॥१॥ बंगला-प्रत्यक्ष ज्ञान हइते भिन्न स्मृति प्रभृतिके परोक्ष प्रमाण बला हय ॥१॥ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सनातनजनप्रथमालायां प्रत्यक्षादिनिमित्तं स्मृतिप्रत्यभिज्ञानतकोनुमानागमभेदं ॥२॥ हिंदी-वह परोक्षज्ञान प्रत्यक्ष व स्मृति आदिकी सहायतासे होता है और उसके स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम ये पांच भेद हैं ॥२॥ बंगला-परोक्षज्ञान प्रत्यक्ष ओ स्मृति प्रभृतिर साहाय्ये हइया थाके। एवं ताहा स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान एवं आगम एइ पांच भेदे विभक्त ॥ २॥ संस्कारोबोधनिबंधना तदित्याकारा स्मृतिः ॥ ३ ॥ स देवदत्तो यथा ॥४॥ हिंदी-पूर्वसंस्कारकी प्रकटतासे 'वह देवदत्त' इस प्रकारके स्मरणको स्मृतिज्ञान कहते हैं ॥ ३-४ ॥ बंगला--पूर्व संस्कारेर उद्भूति हइते ‘से देवदत्त' एरूप स्मरणके स्मृतिज्ञान बले ।। ३-४ ॥ दर्शनस्मरणकारणकं संकलनं प्रत्यभिज्ञानं तदेवेदां तत्सदृशं तद्विलक्षणं तत्पतियोगीत्यादि ॥५॥ यथा स एवायं देवदत्तः ॥ ६ ॥ गोसदृशो गवयः॥७॥ गोविलक्षणो महिषः ॥ ८॥ इदमस्मादूरं ॥ ९॥ वृक्षोयमित्यादि ॥ १०॥ हिंदी-प्रत्यभिज्ञान नामका परोक्षज्ञान प्रत्यक्ष और स्मरणकी सहायतासे होता है जो कि-यह वही है, यह उसके सदृश है, यह उससे विलक्षण है, यह इससे दूर है, और यह वृक्ष है इत्यादि प्रकारका होता है । जैसे-यह वही देवदत्त है । यह उस गौके सदृश है । यह भैंसा उस गौसे विलक्षण है। यह Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंदीवंगानुवादसहितं परीक्षामुखं । ११ प्रदेश उस प्रदेशसे दूर है, यह वृक्ष है 'जो हमने सुना था' इत्यादि अनेकप्रकार प्रत्यभिज्ञान होता है ॥५-१० ॥ बंगला--प्रत्यभिज्ञान नामक परोक्षज्ञान प्रत्यक्ष ओ स्मृतिर साहाय्ये हय एवं इहा सेई, इहा ताहार सदृश, इहा ताहा हइते विलक्षण, इहा ताहा हइते दूर, इहा वृक्ष इत्यादि नाना प्रकार हइया थाके । यथा-इनि सेइ देवदत्त । ए सेइ गोसदृश । एइ महिष गरु हइते विलक्षण । एइ प्रदेश से प्रदेश हइते दूर । ए 'सेइ' वृक्ष याहा आमि सुनिया छिलाम इत्यादि अनेक प्रकार प्रत्याभज्ञान हइया थाके ॥ ५-६-७-८-९-१० ॥ उपलंभानुपलंभनिमित्तं व्याप्तिज्ञानमूहः ॥११॥ इदमस्मिन्सत्येव भवत्यसति न भवत्येवेति च॥ १२॥ यथानावेव धृमस्तदभावे न भवत्येवेति च ॥१३॥ हिंदी-उपलब्धि और अनुपलब्धिकी सहायतासे होनेवाले व्याप्तिज्ञानको तर्क कहते हैं और उसका स्वरूप-इसके होते ही यह होता है इसके न होते होता ही नहीं, जैसे-अमिके होते ही धूआं होता है अग्नि के न होते होता ही नहीं ॥११-१२-१३ ॥ ____ बंगला--उपलब्धि ओ अनुपलब्धिर सहायता द्वारा उद्भूत व्याप्तिज्ञानके तर्क बले । अर्थात्-इहा हइलेइ ए हय, इहा ना हहले हइते पारे ना। यथा-अभिर अस्तित्व हइलेइ धूम्र हय, अनि ना हइले कखनओ हय ना ॥ ११-१२-१३ ॥ साधनात्साध्यविज्ञानमनुमानं ॥ १४॥ १ अन्वय २ व्यतिरेक Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनातनजैनग्रंथमालायांहिंदी-साधनसे ( हेतुसे ) साध्यके विशेषज्ञान होनेके अनुमान कहते हैं ॥ १४ ॥ - बंगला--साधन हइते [ हेतु हइते ] साध्येर विशेषज्ञान होओयाके अनुमान बले ॥ १४ ॥ साध्याविनाभावित्वेन निश्चितो हेतुः॥ १५ ॥ हिंदी-जो साध्यके साथ अविनाभावीपनेसे निश्चित हो अर्थात् साध्यके विना हो ही न सके, वह हेतु है ॥ १५॥ ___ बंगला--ये साध्येर संगे अविनाभावी रूपे निश्चित अर्थात् साध्यभिन्न हइते पारे ना ताहाके हेतु बले ॥ १५ ॥ सहक्रमभावनियमोऽविनाभावः ॥ १६॥ हिंदी-सहभाव नियम और क्रमभावनियमको अविनाभाव ( व्याप्ति ) कहते हैं ॥ १६ ॥ बंगला--सहभावनियम ओ क्रमभावनियमके अविनाभाव [व्याप्ति ] बले ॥१६॥ ___ सहचारिणोप्प्यव्यापकभावयोश्च सहभावः ॥१७ .. हिंदी-साथ रहनेवाले पदार्थों में, तथा आपसमें व्याप्यव्या पक पदार्थों में, सहभाव नामका अविनाभाव संबंध होता है । रूपरस साथ रहनेवाले हैं, और वृक्षत्व व्यापक और शिंशपात्व उसका व्याप्य है ॥ १७ ॥ बंगला--सहचारी पदार्थे एवं परस्पर व्याप्यव्यापक पदार्थे सहभाव नामक अविनभावसंबंध हय । रूप ओ रस सहचारी एवं वृक्षत्व व्यापक एवं शिंशपात्व ताहार व्याप्य ॥ १७ ॥ पूर्वोत्तरचारिणोः कार्यकारणयोश्च क्रमभावः॥१८॥ तर्कात्तनिर्णयः ॥ १९ ॥ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंदीवंगानुवादसहितं परीक्षामुखं । १३ हिंदी-पूर्वचर और उत्तरचर पदार्थों में तथा कार्यकारणोंमें क्रमभाव नियम होता है । अर्थात् कृतिकाका उदय पहिले होता है उसके बाद ही रोहिणी नक्षत्रका उदय होता है तथा अमिके बाद धूआं होता है इत्यादिको क्रमभाव कहते हैं और तर्कसे इसका निर्णय होता है ॥ १८-१९ ॥ बंगला--पूर्वचर ओ उत्तरचर पदार्थे एवं कार्य ओ कारणे क्रमभावनियम हय अर्थात्-कृतिका नक्षत्रेर उदय पूर्वे हय, ताहार पश्चात् रोहिणी नक्षत्रेर उदय हइया थाके । एवं अमिर पश्चात्इ धूम्र हय इत्यादिके क्रमभाव बले । अथच तर्कद्वाराइ इहार निर्णय हइया थाके ॥ १८-१९॥ __इष्टमवाधितमसिद्धं साध्यं ॥ २० ॥ हिंदी -जो वादीको इष्ट हो प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे बाधित और सिद्ध न हो, उसे साध्य कहते हैं ॥ २० । बंगला--जे वादीर इष्ट [ अभिप्रेत ] प्रत्यक्षादि प्रमाण द्वारा बाधित एवं सिद्ध ना हय ताहाकेइ साध्य बले ॥२०॥ संदिग्धविपर्यस्ताव्युत्पन्नानां साध्यत्वं यथा स्या दित्यसिद्धपदं ॥ २१ ॥ अनिष्टाध्यक्षादिवाधितयोः साध्यत्वं माभूदितीष्टावाधितवचनं ॥ २२ ॥ न चासिद्धवदिष्टं प्रतिवादिनः ॥ २३ ॥ प्रत्यायनाय हीच्छा वक्तुरेव ॥ २४ ॥ हिंदी-संदिग्ध, विपर्यस्त और अव्युत्पन्न पदार्थ ही साध्य हों इसलिये ऊपरके सूत्रमें असिद्धपद दिया गया है और-वादी का अनिष्ट पदार्थ साध्य नहिं होता इसलिये साध्यको इष्ट Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ सनातनजैनग्रंथमालायांविशेषण लगाया गया है तथा प्रत्यक्षादि किसी भी प्रमाणसे वाधित पदार्थ भी साध्य नहिं होते, इसलिये अवाधित विशेषण दिया गया है। इनमेंसे असिद्धविशेषण प्रधानतासे तौ प्रतिवादीकी अपेक्षासे है और इष्टविशेषण वादीकी अपेक्षा है क्योंकि दूसरेको समझानेकी इच्छा वादीकी ही होती है ॥२१-२२-२३-२४ ।। ___ बंगला--संदिग्ध, विपर्यस्त एवं अव्युत्पन्न पदार्थइ साध्य हओया उचित, अन्य पदार्थ साध्य हय ना बलियाइ उपर्युक्त सूत्रे असिद्धपद ग्रहण करा हइया छे । एवं वादीर अनिष्ट [ अनाभिमत ] पदार्थ साध्य हय ना बलिया साध्यके इष्ट वि. शेषण प्रदत्त हइया छे । एवं प्रत्यक्षादि कोनओ प्रमाणद्वारा वाधित पदार्थओ साध्य हइते पारे ना बलिया अवाधितपद विशेषण रूपे प्रदत्त हइया छे । इहाते प्रतिवादीर अपेक्षा असिद्ध विशेषण, वादीर अपेक्षा इष्ट विशेषण प्रदत्त हइया छ । केनना अपरके बुझाइबार इच्छा वादीरइ हइया थाके ॥२१-२४॥ साध्यं धर्मः कचित्तद्विशिष्टो वा धर्मी ॥ २५ ॥ पक्ष इति यावत् ॥२६॥ प्रसिद्धो धर्मी ॥२७॥ हिंदी-कहीं तौ ( व्याप्तिकालमें ) धर्म साध्य होता है और कहीं धर्म विशिष्ट धर्मी साध्य होता है धर्मीको पक्ष भी कहते हैं। धर्मी प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे प्रसिद्ध होता है ।।२५-२६-२७ बंगला--कोनओ स्थाने [ व्याप्तिकाले ] धर्म साध्य हय एवं कोनओ स्थाने धर्मविशिष्ट धर्मी साध्य हइया थाके । धमौके पक्षओ बला हय । धर्मी प्रत्यक्षादि प्रमाणद्वारा प्रसिद्ध ॥ २५-२६-२७ ॥ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंदीवंगानुवादसहितं परीक्षामुखं । १५ विकल्पसिद्धे तस्मिन्सत्तेतरे साध्ये ॥ २८॥ अस्ति सर्वज्ञो नास्ति खरविषाणं ॥ २९ ॥ हिंदी-विकल्पसिद्ध धर्मीमें अस्तित्व एवं नास्तित्व साध्य रहते हैं । जैसें-सर्वज्ञ है और गधेके सींग नहीं है इत्यादि ।। २८-२९ ॥ बंगला--विकल्प सिद्ध धर्माते अस्तित्व नास्तित्व साध्य हइया थाके । यथा सर्वज्ञ आछे, गाधार सींग थाके ना इत्यादि ॥ २८-२९॥ प्रमाणोभयसिद्धे तु साध्यधर्मविशिष्टता ॥३०॥ अग्निमानयं देशः परिणामी शब्द इति यथा ॥३१॥ व्याप्तौ तु साध्यं धर्म एव ॥ ३२ ॥ अन्यथा तदघट नात् ॥ ३३ ॥ हिंदी--प्रमाणसिद्धधर्मी और उभयसिद्धधर्मीमें साध्यरूप धर्मविशिष्ट धर्मी साध्य होता है । जैसें-यह देश अग्निवाला है यह प्रमाणसिद्ध धर्मीका उदाहरण है क्योंकि यहां देश, प्रत्यक्षप्रमाणसे सिद्ध है और शब्द परिणमन स्वभाववाला है यह उभयसिद्ध धर्मीका उदाहरण है क्योंकि यहांपर शब्दरूपधर्मी उभयसिद्ध है । व्याप्तिमें धर्म ही साध्य होता है यदि व्याप्तिकालमें धर्मको छोड धर्मी साध्य माना जायगा तो व्याप्ति नहिं बन सकैगी ॥ ३०-३१-३२-३३ ॥ बैंगला-प्रमाणसिद्ध धर्मी ओ उभयसिद्ध धर्मीते साध्य विशिष्ट धर्मीइ साध्य हइया थाके । यथा-ए देश अग्निविशिष्ट । एटी प्रमाणसिद्धधर्मीर उदाहरण । ये हेतु एइ देश प्रत्यक्ष Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ सनातनजैनग्रंथमालायां प्रमाणद्वारा सिद्ध हइया छे । ' शब्द, परिणमन स्वभावी ' एटि उभयसिद्धधर्मार उदाहरण । ये हेतु एखाने शब्दरूप धर्मी उभयसिद्ध । एवं व्याप्तिकाले केवल धर्मइ साध्य हइया थाके । ये हेतु व्याप्तिकाले धर्म भिन्न धर्मीके साध्य स्वीकार करिले व्याप्ति इहते पारिबे ना ॥ ३०-३१-३२-३३ ।। साध्यधर्माधारसंदेहापनोदाय गम्यमानस्यापि पक्षस्य वचनं ॥ ३४ ॥ साध्यधार्मिणि साधनधर्मावबोधनाय पक्षधर्मोपसंहारवत् ॥ ३५ ॥ को वा त्रिधा हेतुमुक्त्वा समर्थयमानो न पक्षयति ॥ ३६॥ __ हिंदी-साध्य विशिष्ट पर्वतादि धर्मीमें हेतुरूप धर्मको समझानेकेलिये जैसा उपनयका प्रयोग किया जाता है, उसीप्रकार साध्य (धर्म) के आधारमें संदेह दूर करनेकेलिये प्र. त्यक्षसिद्ध होनेपर भी पक्षका प्रयोग किया जाता है क्योंकि ऐसा कौन वादी प्रतिवादी है जो कार्य, व्यापक अनुपलंभ भेदसे तीन प्रकारका हेतु कहकर समर्थन करताहुवा भी पक्षका प्रयोग न करै ? अर्थात् सबको पक्षका प्रयोग करना ही पड़ेगा ॥ ३४-३५-३६ ॥ बंगला--साध्यविशिष्ट पर्वत प्रभृति धर्मीते हेतुरूप धर्मीके बुझाइबार जन्य येरूप उपनयेर प्रयोग करा जाइते छे, सेरूप साध्येर (धर्मेर ) अधिकरणे संदेहभंजन करिबारजन्य प्रतक्ष सिद्ध हइलेओ पक्षेर प्रयोग करा याइते छे । ये हेतु एरूप कोनओ वादी प्रतिवादी नाइ ये कार्य, व्यापक, अनुपलंभ भेदे तिनप्रकार हेतु उच्चारणपूर्वक समर्थन करियामो पक्षरे प्रयोग Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंदीवंगानुवादसहितं परीक्षामुखं । १७ करे ना । अर्थात् वादी प्रतिवादी सकलकेइ पक्षेर प्रयोग अवश्य करितेइ हइवे ॥ ३४.३५-३६॥ एतद्द्वयमेवानुमानांगं नोदाहरणं ॥ ३७ ॥ न हि तत्साध्यप्रतिपत्त्यंगं तत्र यथोक्तहेतोरेव व्यापारात् ॥ ३८ ॥ हिंदी -- पक्ष और हेतु ये दो ही अनुमानके अंग हैं सांख्यमतीके कथनानुसार उदाहरण अनुमानका अंग नहीं है क्योंकि उदाहरण, साध्य के ज्ञानमें हेतु नहीं है । जिस हेतुका साध्यके साथ अविनाभावनिश्चित है वह हेतु ही साध्य के ज्ञान कराने में पर्याप्त है ।। ३७-३८ ॥ बंगला - पक्ष ओ हेतु ए दुइटि अनुमानेर अंग । सांख्य दर्शनकथित उदाहरण अनुमानेर अंग हइते पारे ना । ये हेतु उदाहरण साध्यज्ञाने हेतु हइते पारेना । ये हेतुर साध्येर संगे अविनाभाव निश्चित, से हेतुइ साध्येर ज्ञान कराइते समर्थ ॥ ३७-३८ ॥ तदविनाभावनिश्चयार्थं वा विपक्षे बाधकादेव तत्सिद्धेः || ॥ ३९ ॥ हिंदी -- अथवा वह उदाहरण साध्यके साथ हेतुके अविनाभाव के निश्चय करानेके लिये भी ( कारण ) नहिं हो सकता क्योंकि - विपक्ष में बाधक प्रमाण मिलनेसे ही साध्य के साथ अवि नाभाव सिद्ध हो जाता है ॥ ३९ ॥ बंगला – अथवा से उदाहरण साध्येर संगे हेतुर अविनाभाव निश्चय कराइबार जन्यओ कारण हइते पारै ना। कारण- विपक्षे वाधकप्रमाण हो ओयाते साध्येर संगे अविनाभाव सिद्ध दइया जाय ॥ ३९ ॥ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनातनजैनग्रंथमालायां___व्यक्तिरूपं च निदर्शनं सामान्येन तु व्याप्तिस्तत्रापि । तद्विपतिपत्तावनवस्थानं स्यादृष्टांतांतरापेक्षणात् ॥४०॥ हिंदी--दृष्टांत किसी विशेष व्यक्तिरूप होता है और व्याप्ति सामान्यरूपसे होती है । उस दृष्टांतमें भी यदि सामान्यरूप व्याप्तिमें [ साध्य साधनके विषय में ] विवाद खडा होजाय भलेप्रकार निश्चय न हो तो दूसरे दृष्टांतकी आवश्यकता होगी यदि उसमें भी विवाद होगा तौ तीसरे दृष्टांतकी जरूरत होगी इसप्रकार अनवस्था दोष आवेगा ॥ ४० ॥ बंगला-दृष्टांत कोनओ विशेष व्यक्तिरूप हइया थाके । एवं व्याप्ति सामान्यरूप हइया थाके । से दृष्टांतेओ यदि सामान्यरूप व्याप्तिते (साध्य साधनेर विषये) विवाद उपस्थित हय सम्य प्रकारे निश्चय ना हय ताहा इहले एकटि अपर दृष्टांतेर आवश्यकता हइबे । यदि ताहातेओ विवाद उपस्थित हय ताहा हइले तृतीय दृष्टांतेर आवश्यकता हइवे । एरूप हइले अनवस्था दो. र प्राप्ति ॥ ४०॥ नापि व्याप्तिस्मरणार्थ तथाविधहेतुप्रयोगादेव तत्स्मृ तेः ॥ ४१ ॥ तत्परमभिधीयमानं साध्यधामणि साध्यसाधने संदेहयति ॥ ४२ ॥ कुतोन्यथोपन यनिगमने ॥४३॥ हिंदी-तथा व्याप्तिके स्मरणार्थ भी दृष्टांतका प्रयोगकरना कार्यकारी नहीं क्योंकि साध्यके साथ अविनाभावीपनेसे निश्चित हेतुके प्रयोगसे ही व्याप्तिका स्मरण हो जाता है। बल्कि वह कहा हुआ दृष्टांत साध्यविशिष्ट पर्वत आदि धर्मीमें साध्य और हेतुको ‘पर्वतादिधर्मियोंमें साध्य और हेतु मोजूद Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंदीवंगानुवादसहितं परीक्षामुखं । १९ हैं वा नहीं ' इसपकार संदेहयुक्त बना देता है क्योंकि दृष्टांत यदि संदेह करानेवाला न हो तौ उपनय और निगमन क्यों माने जांय ? अर्थात् उपनय और निगमनका प्रयोग, हेतु और साध्यके अस्तित्वमें संदेह निवारणकरनेकेलिये ही किया जाता है अत एव दृष्टांतको अनुमानका अंग न मानना ही ठीक है ॥ ४१-४२-४३ ॥ बंगला-एवं व्याप्तिर स्मरणार्थओ दृष्टांतेर प्रयोग करा कार्यकारक नाइ । कारण,-साध्येर संगे अविनाभावित्वेन निश्चित हेतुर प्रयोगद्वारा व्याप्तिर स्मरण हइया जाय अपितु से कथित दृष्टांत साध्यविशिष्ट पर्वतप्रभृति धर्मीर मध्ये साध्य ओ हेतुके पर्वतप्रभृति धर्मीते 'साध्य ओ हेतुर अस्तित्व आछे कि नाई। एरूप संदेहयुक्त करिया देय । केनना-दृष्टांत यदि संदेहकारक ना हइत ताहाहइले उपनय ओ निगमन केन स्वीकार करा हय ? अर्थात्-हेतु एवं साध्येर अस्तित्वे संदेहनिवारण करिबार जन्यइ उपनय ओ निगमनेर प्रयोग करा हय । अत एव दृष्टांतके अनुमानेर अंग स्वीकार करा कोनओ प्रकार उचित हय ना ॥४१-४२-४३ ॥ न च ते तदंगे साध्यधर्मिणि हेतुसाध्ययोर्वचना. देवासंशयात् ॥ ४४ ॥ हिंदी-उपनय और निगमन भी अनुमानके अंग नहीं हैं क्योंकि साध्ययुक्त पर्वतादि धर्मी में हेतु और साध्यके कथन करनेसे ही हेतु और साध्यके ज्ञानमें किसीप्रकार संशय नहिं होता अर्थात् हेतु और साध्यके कथन करनेसे ही हेतु और साध्यके अस्तित्वका निश्चय हो जाता है ॥४४॥ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० . ...सनातमजैनग्रंथमालायां बंगला-उपनय एवं निगमनओ अनुमानेर अंग हइते पारे ना। ये हेतु साध्ययुक्त पर्वतादि धर्मीर मध्ये हेतु ओ साध्येर कथन करितेइ हेतु एवं साध्य ज्ञाने कोनओ प्रकार संशय उत्पन्न हय ना अर्थात् हेतु ओ साध्येर उल्लेख करिलेइ हेतु एवं साध्येर अस्तित्वेर निश्चय हइया जाय ॥ ४४ ॥ संमर्थनं वा वरं हेतुरूपमनुमानावयवो वास्तु साध्ये तदुपयोगात् ॥ ४५ ॥ हिंदी-साध्यकी सिद्धि समर्थन वा अनुमानके अंगभूत हेतुसे ही हो सकती है क्योंकि साध्यकी सिद्धिमें समर्थन वा हेतुकी पूरी २ आवश्यकता पडती है दृष्टांतादिककी नहीं, क्योंकि उनके विन। भी साध्यकी सिद्धि हो जाती है ॥ ४५ ॥ बंगला-साध्यसिद्धि समर्थन ओ अनुमानेर अंग हेतुद्वाराइ हइते पारे । ये हेतु साध्यसिद्धिर मध्ये समर्थन एवं हेतुर पूर्णतया आवश्यकता हय, दृष्टांतप्रभृतिर आवश्यकता हय ना । कारण-उहादेर ना हइलेओ साध्येर सिद्धि हइया जाय ॥४५॥ बालव्युत्पत्त्यर्थ तत्त्रयोपगमे शास्त्र एवासौ न वादे, __ अनुपयोगात् ॥ ४६॥ हिंदी-दृष्टांत आदिके स्वरूपसे सर्वथा अनभिज्ञ बालकोंको समझानेकेलिये यद्यपि दृष्टांत आदि कहना उपयोगी है परंतु शास्त्रमें ही उनका स्वरूप समझाना चाहिये वादमें नहीं, क्योंकि वाद व्युत्पन्नोंका ही होता है ॥ ४६॥ १ हेतुके दोषोंको दूरकर उसकी पुष्टि करनेको समर्थन कहते हैं। . १ हेतुर दोष दूर करिया ताहार पुष्टिसाधनके समर्थन बले । Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंदी वंगानुवादसहितं परीक्षामुखं । .२१ बंगला - दृष्टांत प्रभृतिर स्वरूप हइते सर्वथा अनभिज्ञ बालकेर जन्य दृष्टांतप्रभृति उपयोगी हइते पारे किंतु ताहादिगरे स्वरूप शास्त्रे वर्णन करिया बुझाइते हय, वादे ताहार आवश्यकता नाइ । केनना - बाद व्युत्पन्न व्यक्तिर मध्येइ हइया थाके ॥ ४६ ॥ दृष्टांत द्वेधा अन्वयव्यतिरेकभेदात् ||४७|| साध्यव्याप्तं साधनं यत्र प्रदर्श्यते सोन्वयदृष्टांतः ॥४८॥ साध्याभावे साधनाभावो यत्र कथ्यते स व्यतिरेकदृष्टांतः ।। ४९ ।। हिंदी -दृष्टांत के दो भेद हैं । एक अन्वयदृष्टांत दूसरा व्यतिरेकदृष्टांत | जहां हेतुकी मोजूदगी से साध्यकी मोजूदगी बतलाई जाय उसे अन्वयदृष्टांत कहते हैं। और जहां साध्यके अभाव में साधनका अभाव कहा जाय उसे व्यतिरेकदृष्टांत कहते हैं । ॥। ४७-४८-४९ ॥ I बंगला - दृष्टांत दुइ प्रकार | प्रथम अन्वयदृष्टांत द्वितीय व्यतिरेकदृष्टांत । येखाने हेतुर अस्तित्वद्वारा साध्येर अस्तित्व वर्णन करा जाय ताहाके अन्वयदृष्टांत बले । एवं येखाने साध्याभावे साधनेर अभाव बला हय, ताहाके व्यतिरेकदृष्टांत बले ॥ ४७-४८-४९ ॥ हेतोरुपसंहार उपनयः ।। ५० ।। हिंदी - व्याप्तिपूर्वक धर्मीमें हेतुकी निस्संशय मोजूदगी बतलाना उपनय है यथा [ तथा चायं धूमवान् - ] वैसा ही यह भी धूआंवाला है ।। ५० ।। Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनातनजैनग्रंथमालायां- . बंगला-व्याप्तिपूर्वक धर्मीते हेतुर निःसंशय अस्तित्वेर वर्णनके उपनय बले । यथा- ( तथाचायं धूमवान् ) सेरूप एटीओ धूमवान् ॥ ५० ॥ प्रतिज्ञायास्तु निगमनं ॥ ५१ ॥ हिंदी-धर्मी में साध्यकी मोजूदगीका सर्वथा निश्चय करना निगमन है यथा-( तस्मादयं वह्निमान् ) इसीलिये यह अमिवाला है ॥ ११ ॥ बंगला-धर्मीर मध्ये साध्यास्तित्वके सर्वथा निश्चय कराके निगमन बले । यथा ( तस्मादयं वह्निमान् ) एइजन्यइ ए अग्निमान् ॥ ५१ ॥ तदनुमानं द्वेधा ॥ ५२ ॥ स्वार्थपरार्थभेदात् ॥५३॥ स्वार्थमुक्तलक्षणं ॥५४॥ परार्थ तु तदर्थपरामार्शवचनाज्जातं ।। ५५॥ हिंदी-स्वार्थानुमान और परार्थानुमानके भेदसे अनुमान दो प्रकार है । दूसरेके विना ही कहे ( अपने आप ) साधनसे साध्यका ज्ञान होना स्वार्थानुमान है । तथा स्वार्थानुमानके विषयभूत हेतु और साध्यको अवलंबन करनेवाले वचनोंसे उत्पन्न हुए ज्ञानको परार्थानुमान कहते हैं ॥५२॥५३॥५४॥५५॥ बंगला-स्वार्थानुमान एवं परार्थानुमानभेदे अनुमान दुइ प्रकार । अपरेर द्वारा प्रकाश ना हइया स्वयं साधनद्वारा साध्येर ज्ञान हओयाके स्वार्थानुमान बले । एवं स्वार्थानुमानेर विषयभूत हेतु ओ साध्येर अवलंबन कारक वचन द्वारा उद्भूत ज्ञानके पराथोनुमान बला हय ॥ ५२-५३-५४-५५॥ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - हिंदीवंगानुवादसहितं परीक्षामुखं । २३ तद्वचनमपि तद्धेतुत्वात् ॥५६॥ हिंदी-परार्थानुमानका प्रतिपादक वचन, ज्ञानस्वरूपपरा. र्थानुमानका कारण है इसलिये वह भी परार्थानुमान है मुख्यरूपसे वचन परार्थानुमान नहीं ॥५६ ॥ बंगला-परार्थानुमानेर प्रतिपादक वचन ज्ञानस्वरूप परार्थानुमानेर कारण । अतएव सेटिओ परार्थानुमान । मुख्यतया वचनइ परार्थानुमान नहे ॥ १६ ॥ स हेतुधोपळब्ध्यनुपलब्धिभेदात् ॥ ५७ ॥ उपलब्धिर्विधिप्रतिषेधयोरनुपलब्धिश्च ।। ५८॥ __ हिंदी-हेतुके दो भेद हैं एक उपलब्धि दूसरा अनुपलब्धि, उपलब्धिमें विधिरूप एवं प्रतिषेधरूप दोनों प्रकारके साध्य होते हैं तथा अनुपलब्धिमें भी विधिरूप और प्रतिषेधरूप दोनों प्रकारके साध्य होते हैं किंतु उपलब्धिमें विधिरूप और अनुपलब्धिमें प्रतिषेधरूप ही साध्य हो यह वात नहीं ॥५७॥५८॥ उपलब्धिके दो भेद हैं एक अविरुद्धोपलब्धि दूसरा विरुद्धोपलब्धि । इनमेंसे प्रथम आवरुद्धोपलब्धिका वर्णन करते हैं । बंगला-हेतु दुइप्रकार । प्रथम-उपलब्धि द्वितीय अनुपलब्धि । उपलब्धिते विधिरूप ओ प्रतिषेधरूप उभयप्रकारेर साध्य हय । एवं अनुपलब्धितेओ उभयरूप साध्य हइया थाके किंतु उपलब्धिते केवल विधिरूप ओ अनुपलब्धिते केवल प्रतिषेधरूप हय एरूप नय ॥५७-५८॥ उपलब्धि दुइ प्रकारअविरुद्धोपलब्धि एवं विरुद्धोपलब्धि । तन्मध्ये प्रथम अविरुद्धोपलब्धिर वर्णन कारते छेन Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनातन जैनग्रंथमालायां अविरुद्धोपलब्धिर्विधौ षोढा व्याप्यकार्यकारणपूर्वोत्तरसहचरभेदात् ॥ ५९ ॥ हिंदी -- विधिरूप साध्य रहनेपर अविरुद्धोपलब्धिके छह भेद हैं - व्याप्योपलब्धि कार्योपलब्धि कारणोपलब्धि पूर्वच रोपलब्धि उत्तरचरोपलब्धि और सहचरोपलब्धि ।। १९ ॥ बंगला - विधिरूप साध्य थाकिले अविरुद्धोपलब्धि छय भेदे विभक्त । यथा व्याप्योपलब्धि, कार्योपलब्धि, कारणोपलब्धि, पूर्वचरोपलब्धि, उत्तरचरोपलब्धि, एवं सहचरोपलब्धि ॥५९॥ २४ रसांदेकसामग्र्यनुमानेन रूपानुमानमिच्छद्भिरिष्टमेव किंचित्कारणं हेतुर्यत्र सामर्थ्याप्रतिबंधकारणांतरावैकल्ये 1180 11 हिंदी - रसका सजातीय रस, और रूपका सजातीय रूप है । तथा रसका विजातीय रूप और रूपका विजातीय रस है । एवं रूप और रस इन दोनों का सहचरभाव है - विना रसके रूप नहिं रह सकता और विनारूपके रस नहीं, इसलिये रसकी उत्पत्तिमें जैसा प्राक्तन रस कारण पडता है वैसा रूप भी कारण पडता है तो जिससमय हम अंधेरी रात्रिमें किसी फलके रसका आस्वादन कर रहे हैं उससमय उसकी सामग्रीका अनुमान होता है अर्थात् इस रसको उत्पन्न करनेवाली कोई न कोई सामग्री ( कारण ) थी और उस सामग्री के अनुमानसे रूपका अनुमान होता है अर्थात् - प्राक्तन रूप जैसे सजातीयरूपको उत्पन्न करता है वैसे ही विजातीय रसको भी उत्पन्न करता है । जब ऐसी स्थिति है। तव रससे समान सामग्रीका अनुमान और समानसामग्रीके अनु Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५ ) मानसे रूपका अनुमान माननेवालेको अवश्य ही कोई कारणलिंग भी मानना पडेगा । कहोगे कहींपर कारण रहते भी कार्यका अनुमान नहीं होता, और जहां कारणकी सामर्थ्य किसी माण मंत्र आदिसे रुक गई है वहां भी कारणसे कार्यका अनुमान नहीं होता इसलिये कारणलिंग व्यभिचारी होनेसे नहिं मानना चाहिये ? सो ठीक नहीं क्योंकि-जहां जितने कारणोंकी आवश्यकता है वहां वे सब होंगे और जहांपर कारणकी सामर्थ्यको रोकनेवाला कोई मणि मंत्र आदि न होगा वहां नियमसे कारणोंसे कार्यका अनुमान हो जायगा, वहां कारण लिंग व्यभिचारी नहीं हो सकता इसलिये बौद्ध जैसा स्वभावलिंग और कार्यलिंग मानता है उसे चाहिये वैसे ही वह युक्तिसिद्ध कारणलिंग भी स्वीकार करै ॥ ६० ॥ बंगला-रसेर सजातीय रस ओ रूपेर सजातीय रूप । एवं रसेर विजातीय रूप ओ रूपेर विजातीय रस । रूप ओ रस उभयेरइ सहचर भाव । रस रूप छाडा थाके ना अत एव रसेर उत्पत्ति ते ये रूप प्राक्तन रसकारण हय से रूप रूप ओ कारण हय । तबे ये समये आमरा अंधकारमयरात्रिते कोनओ फलेर रसास्वादन करि, से समये ताहार सामग्रीरओ अनुमान हय । अर्थात्-ए रसेर उत्पादिका कोनओ सामग्री आछे एवं से सामगीर अनुमान हइते रूपेरओ अनुमान हइया थाके । अर्थात् प्राक्तन रूप येमन सजातीय रूपके उत्पन्न करे सेरूप विजा Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) तीरसकेओ उत्पन्न करे । यखन एरूप अवस्था तखन रसह - ते समान सामग्री अनुमान एवं समान सामग्रीर अनुमान हइते रसेर अनुमान स्वीकार करिले ताहाके कोनओ एकटी कारण लिंगकेओ अवश्य स्वीकार करते हइबे । यदि बल को - astri कारण थाकिलेओ कार्येर अनुमान हय ना । एवं ये खाने कारणेर सामर्थ्य कोनओ मणिमंत्र द्वारा अवरुद्ध हय सेखानेओ कारण हइते कार्येर अनुमान हयना । एजन्य कारणलिंग व्यभिचारी हओयाते ताहा अस्वीकार करते हइवे एरूप वला उचित नय | ये हेतु - येखाने यत कारणेर आवश्यकता, से खाने से सकल हइबे एवं येखाने कारणेर सामर्थ्येर अवरोधकारक मणिमंत्र प्रभृति हइबे ना सेखान नियमतः कारण कार्येर अनुमान या याइबे, सेखाने कारणलिंग व्यभि - चारी होइते पारिबेना । अतएव बौद्ध येरूप स्वभावलिंग ओ कार्यलिंग स्वीकार करे सेरूप ताहाके कारणलिंगओ स्वीकार करिते इबे ॥ ६० ॥ न च पूर्वोत्तरचारिणोस्तादात्म्यं तदुत्पत्तिर्वा कालव्यवधाने तदनुपलब्धेः ।। ६१ ॥ हिंदी -- जहां तादात्म्यसंबंध होता है वहां तो स्वभावहेतु कहा जाता है और जहां तदुत्पत्तिसंबंध होता है वहां कार्यलिंग होता है तथा एककालमें रहनेवाले साध्यसाधनों का संबंध तादत्म्यसंबंध अथवा तदुत्पत्ति संबंध होता है । पूर्वचर और उत्तरचर Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७ ) हेतु साध्य कालमें नहीं रहते इसलिये उनका तादात्म्यसंबंध न होनेसे तो वे स्वभाव हेतु नहीं कहे जाते और तदुत्पत्तिसंबंध न रहने से कार्यहेतु नहिं होसकते किंतु स्वभाव आर कार्यलिंगसे पूर्वचर उत्तरचरलिंग जुदे ही हैं ।। ६१ ॥ बंगला -- ये स्थाने तादात्म्य संबंध हय ताहाके स्वभाव हेतु बलाय । एवं ये खाने तदुत्पत्ति संबंध हय, ताह के कार्य - लिंग बाहय । एवं एकइ कालेस्थित साध्यसाधनेर संबंध-तादात्म्य संबंध अथवा तदुत्पत्तिसंबंध हइया - थाके । पूर्वचर ओ उत्तरचर हेतु साध्यकाले थाके ना एइजन्य ताहादेर तादात्म्यसंबंध ना हओयाते सेइ पूर्वचर उत्तरचर हेतुके स्वभावहेतु बला जायना एवं तदुपत्तिसंबंध ना थाकाते कार्यहेतु हइते पारे ना किंतु स्वभाव ओ कार्यलिंग हइते पूर्वचर उत्तरचरलिंग पृथक्इ हइया थाके ॥ ६१ ॥ भाव्यतीतयोर्मरणजाग्रद्बोधयोरपि नारिष्टोद्बोधौ प्रति हेतुत्वं ॥ ६२ ॥ तदूव्यापाराश्रितं हि तद्भावभावित्वं ॥ ६३ ॥ हिंदी - आगामी मरण और वीत हुआ जाग्रद्बोध (जागती अवस्थाका ज्ञान ) अपशकुन और उद्घोष ( प्रातःकाल सोकर उठना ) के प्रति कारण नहिं हो सकते इसलिये आगामी मरण और अपशकुन तथा अतीत जाग्रद्बोध और उद्बोधका दृष्टांत लेकर बौद्ध जो कालके व्यवधानसे भी कार्यकारणभाव मानता है सो निर्मूल हुआ क्योंकि कारण के सद्भावमें कार्यका Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८ ) होना कारण के व्यापारके आधीन है उपर्युक्त दृष्टांत में कार्य की उत्पत्ति तक कारणका व्यापार रहता नहिं इसलिये वहां कार्यकारणभाव नहिं वन सकता ॥ ६२ ॥ ६३ ॥ बंगला – आगामी मरण ओ अतीत जानद्बोध ( जाग्रत अवस्थारज्ञान ) अपशकुन ओ उद्बोधेर प्रति ( प्रातः काल - इया उठिबार प्रति ) कारण हइते पारेना अतएव आगामी म रण ओ अपशकुन एवं अतीत जाग्रद्बोध उद्बोधेर दृष्टांत लइया बौद्ध ये कालेर व्यवधान हइतेओ कार्यकरणभाव स्वीकार करियाछे ताहा निर्मूल हइल | ये हेतु - कारणेर सद्भावे का - र्येर अस्तित्व कारणव्यापारेर अधीन । उपर्युक्त दृष्टांत कार्योंत्पत्तिपर्यंत कारणव्यापार थाकेना एइजन्य सेखाने कार्यकारण भाव हइते पारेना ।। ६२-६३ ॥ सहचारिणोरपि परस्परपरिहारेणावस्थानात्सहोत्पादाच्च ॥ ६४॥ हिन्दी -- रूप रस आदि सहचारी पदार्थों की प्रतीति आपसमें जुदी २ होती है इसलिये तो सहचर हेतुका स्वभाव हेतु अंतर्भाव नहिं होसकता तथा सहचारी पदार्थ साथ २ उत्पन्न होते हैं इसलिये सहचर हेतु कार्यहेतु नहिं कहा जाता इसलिये स्वभाव और कार्य से सहचरलिंग जुदा ही है ॥ ६४ ॥ बंगला - रूप रस प्रभृति सहचारी पदार्थेर प्रतीति परस्पर पृथक् २ हइया थाके एइजन्य सहचर हेतुर स्वभाव हेतुर मध्ये अंतर्धान हइते पारे ना । एवं सहचारी पदार्थ एक काले ' Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २९ ) . उत्पन्न हइतेछे एइजन्य सहचरहेतुके कार्यहेतु बला जायना। अतएव स्वभावलिंग ओ कार्यलिंग हइते सहचरलिंग पृथकइ थाके ॥ ६४॥ आवरुद्धव्याप्योपलब्धिका उदाहरणअविरुद्धव्याप्योपलब्धिर उदाहरण परिणामी शब्दः कृतकत्वात् य एवं स एवं दृष्टो यथा घटः, कृतकश्चायं, तस्मात्परिणामी, यस्तु न परिणामी स न कृतको दृष्टो यथा वन्ध्यास्तनंधयः कृतकश्चायं तस्मात्परिणामी ॥ ६५॥ हिंदी--शब्द परिणमनस्वभावी है क्योंकि वह किया हुआ है जो जो पदार्थ किया हुआ होता है वह परिणामी देखा गया है जैसा घट । शब्द किया हुआ है इसलिये वह परिणामी है, जो परिणामी नहिं होता वह किया हुआ भी नहिं होता जैसा बांझ स्त्रीका लड़का । यह शब्द किया हुआ है इसलिये वह परिणामी है इस उदाहरणमें धर्मी आदि पांचों अंगका प्रकार बतलाया गया है अन्य उदाहरणोंमें भी इसी रीतिसे घटा लेना चाहिये ॥६५॥ ... बंगला-शब्द परिणमनस्वभाव । ये हेतु-ताहा किछु द्वारा कृत । ये ये पदार्थ कृत, ताहाकेइ परिणामी देखा याय । यथा-घट । शब्द कृत, एजन्य ताहा परिणामी । ये परिणामी हय ना, से कृत ओ हय ना । यथा-'वंध्या स्त्रीर पुत्र' ए शब्द उच्चारित वा कृत । ए जन्यइ ताहा परिणामी। एइ उदाहरणे Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३० ) धर्मी प्रभृति अनुमानेर पंच अंगेर भेद कथित हइयाछे । अन्य उदाहरणेओ एरूप घटित करिया लइबे ॥ ६५ ॥• . अविरुद्धकार्योपलब्धिका उदाहरण अस्त्यत्र देहिनि बुद्धिाहारादेः ॥ ६६ ॥ हिंदी इस प्राणीमें बुद्धि है क्योंकि यह बोलता चलता आदि है यहां पर साध्यरूप बुद्धिका बचनादिस्वरूपहेतु कार्य है ॥ ६६ ॥ ___ बंगला-अविरुद्धकार्योपलब्धिर उदाहरण-एइ प्राणीते बुद्धि आछे । ये हेतु-ए बलिते छ, चलिते छे । ए खाने साध्यरूप बुद्धिर वचनप्रभृतिरूप हेतु कार्य हइयाछे ॥ ६६ ॥ आविरुद्ध कारणोपलब्धिका उदाहरणअविरुद्धकारणोपलब्धिर उदाहरण अस्त्यत्र छाया छत्रात् ॥ ६७॥ हिंदी-यहां छाया है क्योंकि छायाका कारण छत्र मौजूद है यहां साध्यस्वरूप छायाका कारण छत्र है ।। ६७ ॥ बंगला-एईस्थाने छाया आछे । ये हेतु छायारकारण छत्र विद्यमान । एखाने साध्यस्वरूप छायार कारण छत्र आछे ॥ ६७ ॥ अविरुद्धपूर्वचरोपलब्धिका उदाहरण-- अविरुद्धपूर्वचरोपलब्धिर उदाहरण उदेष्यति शकटं कृतिकोदयात् ॥६८ ॥ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१ ) हिंदी - मूहूर्तके पश्चात् शकट ( रोहिणी ) का उदय होगा क्योंकि इससमय कृतिकाका उदय है यहां पर पूर्वचर कृतिकाके उदयसे उत्तरचर रोहिणी के उदयका अनुमान किया गया है क्योंकि रोहिणी चौथा नक्षत्र है और कृत्तिका तीसरा नक्षत्र है ॥ ६८ ॥ बंगला - एक मुहूर्त्तेर पश्चात् रोहिणीनक्षत्रेर उदय हइबे, ये हेतु एइ समय कृत्तिकार उदय हइयाछे । ए स्थले पूर्वचर कृतिकार उदय हइते उत्तरचर रोहिणीर उदयहइबार अनुमान करा हइयाछे केनना रोहिणी चतुर्थनक्षत्र, कृतिका तृतीय नक्षत्र ॥ ६८ ॥ अविरुद्धउत्तरचरोपलब्धिका उदाहरण-अविरुद्धउत्तरचरोपलब्धिर उदाहरण उदगाद्भरणिः प्राक्तत एव ।। ६९ ।। हिंदी -भरण का उदय हो चुका क्योंकि इससमय कृतिकाका उदय है यहां उत्तरचर कृतिकाके उदयसे पूर्वचर भरणीके उदयका अनुमान किया गया है क्योंकि भरणि दूसरा नक्षत्र है और कृतिका तीसरा है ॥ ६९ ॥ बंगला — भरणिनक्षत्रेर उदय हइया गियाछे । ये हेतु es समय कृतिकार उदय विद्यमान । एखाने उत्तरचर कृति - कार उदय हइते पूर्वचर भरणिर उदयेर अनुमान करा गेलं | नना भरणी द्वितीय नक्षत्र एवं कृतिका तृतीय नक्षत्र ॥ ६९ ॥ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२ ) अविरुद्ध सहचरोपलब्धिका उदाहरण-अवरुद्धसहचरोपलब्धिर उदाहरणअस्त्यत्र मातुलिंगे रूपं रसात् ॥ ७० ॥ . हिंदी - इस मातुलिंग, 'विजोरा' में रूप है क्योंकि इसमें रस पायाजाता है यहांपर रससे रूपका अनुमान किया गया है क्योंकि बिना रूपके रस रह नहिं सकता ॥ ७० ॥ बंगला - एइ मातुलिंगे रूप ( वर्ण ) आछे । ये हेतु इहाते रस विद्यमान । एस्थले रस हइते रूपेर अनुमान करा गेल । ये हेतु रूप छाडा रस थाकिते परिना ॥ ७० ॥ विरुद्धोपलब्धि के भेद - विरुद्धोपलब्धिर भेद विरूद्धतदुपलब्धिः प्रतिषेधे तथा ॥ ७१ ॥ -- हिंदी – प्रतिषेधरूप साध्यके सिद्ध करनेवाली विरुद्धोपलब्धि भी है भेद हैं अर्थात् विरुद्धव्याप्योपलब्धि, विरुद्ध कार्योपलब्धि, विरुद्धकारणोपलब्धि, विरुद्धपूर्वचरोपलब्धि, विरुद्ध उत्तरचरोपलब्धि, विरुद्धसहचरोपलब्धि ॥७१॥ बंगला — प्रतिषेधरूप सिद्धकारक विरुद्धोपलब्धि ओ छ्य प्रकार । येमन विरुद्धव्यप्योपलब्धि, विरुद्धकार्योपलब्धि, विरुद्धकारणोलपब्धि, विरुद्धपूर्वच रोपलब्धि, विरुद्धउत्त रचरोपलब्धि एवं विरुद्धसहचरोपलब्धि ॥ ७१ ॥ विरुद्धव्याप्योपलब्धिका उदाहरण- विरुद्धव्यप्योपलब्धिर उदाहरण Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नास्त्यत्र शीतस्पर्श औष्ण्यात् ॥७२॥ हिंदी-इसस्थानपर शीतस्पर्श नहीं है क्योंकि उष्णता मौजूद है यहांपर शीतस्पर्शरूप साध्यसे विरुद्ध अग्निका व्याप्य उष्णतारूप हेतु है ॥७२॥ बंगला-एइ स्थाने शीतस्पर्श नाइ । ये हेतु एखाने उप्णता विद्यमान । एस्थले शीतस्पर्शरूपसाध्यहइते विरुद्ध अग्निर व्याप्य उष्णतारुपहेतु हेइया छे ॥७२॥ विरुद्धकार्योंपलब्धिका उदाहरणविरुद्धकार्योपलब्धिरउदाहरण नास्त्यत्र शीतस्पर्टी धूमात् ॥७३॥ हिंदी—यहां शीतस्पर्श नहीं है क्योंकि शीतस्पर्शरूपसाध्य से विरुद्ध अग्निकाकार्य यहां धूआं मौजूद हैं ॥७३॥ बंगला-ऐ स्थाने शीतस्पर्श नाइ । ये हेतु शीतस्पर्श साध्यहइते विरुद्ध अग्निर कार्य धूम विद्यमान ॥७३॥ विरुद्धकारणोपलब्धिका उदाहरण-- विरुद्धकारणोपलब्धिर उदाहरण नास्मिन् शरीरिणि सुखमस्ति हृदयशल्यात् ॥७॥ हिंदी इस प्राणीमें सुख नहीं क्योंकि सुखसे विरुद्ध दुःखका कारण इसके मानसिक व्यथा मालूम पड़ती है ॥७॥ वंगला-एइ व्यक्तिर मध्ये सुख नाइ । ये हेतु सुखहइते विरुद्ध दुःखेर कारण मानसिक पीड़ा इहार देखा याइतेछे १७४॥ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ ( ३४ ) विरुद्धपूर्वचरोपलीब्धका उदाहरणविरुद्धपूर्वचरोपलब्धिर उदाहरण-- नोदेष्यति मुहूतीते शकटं रेवत्युदयात् ॥७॥ हिंदी-एक मुहूर्तके वाद रोहिणीका उदय न होगा क्योंकि इससमय रोहिणीसे विरुद्ध अश्विनी नक्षत्रसे पहले उदय होनेवाले रेवती नक्षत्रका उदय है अर्थात् रेवतीका उदय अश्विनी नक्षत्रसे पहले होता है इसलिये वह अश्विनीके उदयको ही जनावेगा रोहिणी आदिके उदयको नहीं ॥७५॥ बंगला-एक मुहूर्तेर ( दुइघटिकार ) पर रोहिणीनक्षत्र उदय हइबेना ये हेतु एसमये रोहिणीर विरुद्ध अश्विनीनक्षत्रेर पूर्व याहार उदय हय सेइ रेवती नक्षत्रेर उदय विद्यमान । अर्थात् रेवतीनक्षत्रेर उदय अश्विनी नक्षत्रेर पूर्वे हय एजन्य से अश्विनी नक्षेत्ररई उदय जानाय किंतु रोहिणी प्रभृतिर उदयेर अनुमान करायना ॥७५॥ विरुद्धउत्तरचरापलब्धिका उदाहरण विरुद्ध उत्तरचरोपलब्धिर उदाहरण-- नोदगाद्भरणिर्मुहुर्तात्पूर्व पुष्योदयात् ॥७६॥ हिंदी-मूहूर्तके पहिले भरणिका उदय नहिं हुआ क्योंकि इससमय भरणीके उदयसे विरुद्ध पुनर्वसुके पीछे होने वाले पुष्य नक्षत्रका उदय है अर्थात् पुष्य नक्षत्रका उदय पुनर्व Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५ ) सूसे पीछे होता है इसलिये वह उसीको जनासकता है कि होगया भरणि आदिके उदयको नहीं ॥७६॥ बंगला-एइ मुहूर्ते पूर्वे भरणिर उदय हयनाइ । ये हेतु एइ समये भरणिर उदयेर विरुद्ध पुनर्वसुर पश्चात् याहार उदय हय सेई पुष्य नक्षत्रेर उदय विद्यमान । अर्थात् पुष्य नक्षत्रेर उदय पुनर्वसुनक्षत्रेर पश्चात् हइयाथाके एजन्य से ताहारउदय केई बोध कराय भरणी आदिर उदयेर बोध करायना ॥७६॥ विरुद्ध सहचरोपलब्धिका उदाहरणविरुद्धसहचरापलब्धिर उदाहरण नास्त्यत्र भिचौ परभागाभावोग्भिागदर्शनात् ॥७७॥ हिंदी इसभीतिमें उसओरके भागका अभाव नहीं है क्योंकि उस ओरके भागके अभावसे विरुद्ध किंतु उस ओरके भागका साथी इस ओरका भाग साफ दीख रहा है ॥७॥ ___ बंगला-ऐइ भितिर अपर पार्धार पृष्ठभागेर अभाव नाइ । ये हेतु अपरपावॆर अभावेर विरुद्ध ताहार सहचारी एइपाधैर पृष्ठभाग स्पष्ट देखा जाइते छे ॥७७॥ प्रतिषेधरूपसाध्यको सिद्धकरने वाली अविरुद्धानुपलब्धिके भेदप्रतिषेधरूपसाध्येर सिद्धिकारक अविरुद्धानुपलब्धिर भेद अविरुद्धानुपलब्धिःप्रतिषेधे सप्तधा स्वभावव्यापककार्यकारणपूर्वोत्तरसहचरानुपलंभभेदात् ॥७॥ हिंदी-प्रतिषेध साध्य रहनेपर अविरुद्धानुपलब्धिके सात Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६ ) भेद हैं--स्वभावानुपलब्धि, व्यापकानुपलब्धि, कार्यानुपलब्धि कारणानुपलब्धि, पूर्वचरानुपलब्धि,उत्तरचरानुपलब्धि,और सहचरानुपलब्धि ॥७॥ ____ बंगला-प्रतिषेध साध्यथाकिले अविरुद्धानुपलब्धि सप्त भेदे विभक्त । यथा-स्वभावानुपलब्धि, व्यापकानुपलब्धि, कार्यानुपलब्धि, कारणानुपलब्धि,पूर्वचरानुपलब्धि, उत्तरचरानुपलब्धि ओ सहचरानुपलाब्ध ॥७८॥ अविरुद्धस्वभावानुपलब्धिका उदाहरण-- अविरुद्ध स्वभावानुपलब्धिर उदाहरण नास्त्यत्र भूतले घटोऽनुपलब्धेः ॥७९॥ हिंदी-इस भूतलपर घट नहिं क्योंकि उसका स्वरूप नहिं दीखता यहांपर प्रतिषेधस्वरूप (घटाभाव) साध्य रहनपर उसके अनुकूल अनुपलब्धिरूप हेतु है ॥७९॥ ___ बंगला-एइ भूतले घटनाई ये हेतु ताहार रूप देखा जायना । एस्थले प्रतिषधस्वरूप (घटाभाव ) साध्य थाकिले ताहार अनुकूल अनुपलब्धिरूप हेतु हइया छे ॥७९॥ अविरुद्धव्यापकानुपलब्धिका उदाहरणअविरुद्धव्यापकानुपलब्धिर उदाहरण नास्त्यत्र शिंशपा वृक्षानुपलब्धेः ॥८॥ हिंदी-यहां शिंशपा ( शीस) नहिं क्योंकि कोई किसी प्रकारका यहां वृक्ष नहिं दीखता इसस्थान पर प्रतिषेधरूप Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७ ) ( शिंशपका अभाव ) व्याप्य साध्य है और उसके अनुकूल वृक्षानुपलब्धि ( वृक्षाभाव ) व्यापक हेतु है अर्थात् यहांपर व्यापकके अभावसे व्याप्यके अभावका अनुमान किया गया है बंगला - एखाने शिंशपा नाई ये हेतु एस्थाने कोन ओ प्रकारेर कोनवृक्ष देखा जाय ना । एस्थले प्रतिषेधरूप ( शिंशपार अभाव) व्याप्ये साध्य ओ ताहार अनुकूल वृक्षानुपलब्धि ( वृक्षाभाव ) व्यापक हेतु हइयाछे । अर्थात् एखाने व्यापकेर अभावे हइते व्याप्येर अभावेर अनुमान करा हइयाछे ॥८०॥ अवरुद्ध कार्यानुपलब्धका उदाहरणअविरुद्धकार्यानुपब्धिर उदाहरण --- नास्त्यत्राप्रतिबद्धसामर्थ्योऽग्निर्धूमानुपलब्धेः ॥ ८१ ॥ हिंदी - यहां पर जिसकी सामर्थ्य किसी द्वारा रुकी नहीं है ऐसी अग्नि नहीं क्योंकि यहां उसके अनुकूल धूआंरूप कार्य नहिं दीखता । इस स्थल पर धूमानुपलब्धिसे अप्रतिहत सामर्थ्ययुक्त अग्निके अभावरूप कारणानुपलब्धिका अनुमान किया · गया ॥ ८१ ॥ बंगला - एस्थाने याहार सामर्थ्य काहारओद्वारा रुद्ध हयना एरुप अग्नि नाई । येहेतु एइखाने ताहार अनुकूल धूम्ररूप कार्य देखा जायेना । एइ स्थले धूम्रानुपलब्धिरूप अनुकूलकार्यानुपलब्धि हइते अप्रतिहत सामर्थ्ययुक्त अग्निर अभावरूप कारणानुपलब्धिर अनुमान करागेल ॥ ८१ ॥ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८ ) अविरुद्धकारणानुपलब्धिका उदाहरणआविद्धकारणानुपलब्धिर उदाहरण नास्त्यत्रधूमो ऽनग्नेः ॥ ८२ ॥ हिंदी-यहां धूआं नहीं पाया जाता क्योंकि उसके अनुकूल अग्निरूप कारण यहां नहीं है । यहां पर अनामरूप अविरुद्ध कारणानुपलब्धिसे धूमाभावरूप कार्यानुपलब्धिका अनुमान किया गया है ॥ ८२॥ वंगला-एइ स्थाने धूम्र नाई । ये हेतु ताहार अनुकूल अग्निरूप कारण एखाने नाइ । एइ स्थले अग्निरूप अविरुद्धकारणानुपलब्धि हइते धूमाभावरूप कार्यानुपलब्धिर अनुमान करा गेल ॥ ८२ ॥ अविरुद्धपूर्वचरानुपलब्धिका उदाहरणअविरुद्धपूर्वचरानुपलब्धिर उदाहरण न भविष्यति मुहूतीते शकटं कृतिकोदयानुपलब्धेः॥८३॥ हिंदी-एक मुहूर्तके बाद रोहिणीका उदय न होगा क्योंकि इससमय कृतिकाका उदय नहिं हुआ । यहां कृतिकोदयानुपलब्धिरूप आविरुद्धपूर्वचरानुपलब्धिसे शकटोदयाभावरूप उत्तरचरानुपलंभरूपसाध्यकी सिद्धि की गई ॥ ८३ ॥ बंगला--एक मुहूर्तर (घटिकाद्वयेर ) पर रोहिणीर उदय हइबेना । ये हेतु एइ समये कृतिकार ओ उदय हय नाइ । एइ खाने कृतिकोदयानुपलब्धिरूप आविरुद्ध पूर्वचरानु Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धि हइते शकटोदयाभावरूप उत्तरानुपलंभरूपसाध्येर सिद्धि करा हइया छे ॥ ८३ ॥ अविरुद्ध उत्तरचरानुपलब्धिका उदाहरणअविरुद्धउत्तरचरानुपलब्धिर उदाहरण-- नोदगाद्भरणिर्मुहर्तात्प्रक्तत एव ॥ ८४ ॥ हिंदी--मूहूर्तके पहिले भरणिका उदय नहिं हुआ क्योंकि इससमय कृतिकाका उदय नहिं पाया जाता । यहां पर कृतिकोदयानुपलब्धिरूप अविरुद्ध उत्तरचरानुपलब्धिसे भरण्युदयाभावरूप पूर्वचरानुपलभरूप साध्यकी सिद्धि हुई ॥८॥ बंगला-मुहूर्त्तर पूर्वे भरणिर उदय य नाइ। ये हेतु एइ समये कृतिकार उदय देखा यायना । ए स्थले कृतिकोदयानुपलब्धिरूप अविरुद्ध उत्तरचरानुलब्धि हइते भरण्युदयाभावरूप पूर्वचरानुपलंभसाध्येरसिद्धि हइया छे ॥ ८४ ॥ अविरुद्धसहचरानुपलब्धिका उदाहरणअविरुद्ध-सहचरानुपलब्धिर उदाहरण--- नास्त्यत्र समतुलायामुन्नामो नामानुपलब्धेः ॥८॥ हिदीं-इस बराबर पलड़ेवाली तराजूमें ( एक पल्लेमें) ऊंचापन नहीं क्योंकि दूसरे पलेमें नीचापन नहिं पाया जाता । यहां नामानुपलब्धिरूप अविरुद्ध सहचरानुपलब्धिसे उन्नामाभावरूप सहचरानुपलब्धिरूप साध्यकी सिद्धि की गई ।।८५॥ बंगल-एइ पाल्लाय ( एक दिकेर पारलाय ) उच्चतम Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (80) नाइ । ये हेतु अपर पाल्लाय निम्नता देखा यायना । इ स्थले नामानुलब्धिरूप अविरद्धसहचरनुपलब्धि हइते उन्नामा - भावरूप सहचरानुपलब्धिरूप साध्येर सिद्धि करा हइया छे ॥ ८५ ॥ विधिरूप साध्यको सिद्ध करनवाला विरुद्धानुपब्धिके भेदये विधिरूपसाध्येर सिद्धि कर सेइ विरुद्धानुपलब्धिर भेद-विरुद्धानुपलब्धिर्विधौ त्रेधा विरूद्ध कार्यकारणस्वभावानु पलब्धिभेदात् ॥ ८६ ॥ हिंदी -- विधिरूप साध्यके रहने पर विरुद्धानुपलब्धिके तीन भेद है -विरुद्ध कार्यानुपलब्धि, विरुद्धकारणत्रुपलब्धि और विरुद्धस्वभावानुपलब्धि ॥ ८६ ॥ बंगला – विधिरूप साध्य थाकिले विरुद्धानुपलब्धिर तिन भेद हय-- यथा विरुद्ध कार्यानुपलब्धि, विरुद्धकारणानुपलब्धि एवं विरुद्धस्वभावानुपलब्धि ॥ ८६ ॥ विरुद्ध कार्यानुपलब्धिका उदाहरण- विरुद्धकार्यानुपलब्धिर उदाहरण --- यथाऽस्मिन् प्राणिनि व्याधिविशेषोऽस्ति निरामयचेशनुपलब्धे ॥८७॥ हिंदी ---- जैसे- इस प्राणीमें कोई रोग विशेष है क्योंकि इसकी चेष्टा नीरोग मालूम नहिं पड़ता। यहां पर व्याधि विशेष से विरुद्ध पदार्थका कार्य निरामय चेष्टा है इसलिये निरामय चेष्टा के अभावसे व्याधिविशेषका अनुमान करलिया जाता है ॥८७॥ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४१ ) बंगला----यथा येइ प्राणीते कोनओ प्रकारेर रोग आछ । ये हेतु इहा चेष्टा निरामयेर न्याय बोध हय ना । ए स्थले व्याधिविशेष हइते विरुद्धपदार्थेर कार्य निरामय चेष्टा । एइ जन्य निरामय चेष्टार अभावद्वारा व्याधिविशेषेर अनुमान करा याइत पारे ।। ८७॥ विरुद्धकारणानुपलब्धिका उदाहरणविरुद्धकारणानुपलब्धिर उदाहरण अस्त्यत्र देहिनि दुःखमिष्टसंयोगाभावात् ॥८८॥ हिंदी--यह प्राणी दुःखी है क्योंकि इसके पिता माता आदि प्रियजनोंका संबंध छूट गया है यहां पर दुःखसे विरुद्ध सुखका कारण इष्टसंयोग है इसलिये इष्टसंयोगके अभावसे दुःखका अनुमान किया जाता है ।।८८॥ बंगला—एइ व्यक्ति दुःखी । ये हेतु इहार पिता माता प्रभृति प्रियजनेर वियोग हइया छे । ए स्थले दुःखहइते विरुद्ध सुखेर कारण इष्टसंयोग । अतएव एइ इष्टसंयोगेर अभाव द्वारा दुःखेर अनुमान करा गेल ॥ ८८ ॥ विरुद्धस्वभावानुपलब्धिका उदाहरणविरुद्धस्वभावानुपलब्धिर उदाहरण अनेकांतात्मकं वस्त्वेकांतस्वरूपानुपलब्धेः ॥८६॥ • हिंदी-हर एक पदार्थ नित्य अनित्य आदि अनेक धर्म वाला है क्योंकि केवल नित्यत्व आदि एक धर्मका अभाव है। Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४२ ) यहां पर अनेकांतसे विरुद्ध पदार्थका स्वभाव एकांत है इस लिये एकांत स्वरूपके अभावसे अनेकांत स्वरूपकी सिद्धि कर ली जाती है ।। ८९॥ ___वंगला–प्रत्येकपदार्थ नित्यत्व अनित्यव्व प्रभृति अनेक धर्म विशिष्ट । ये हेतु केवल नित्यत्वप्रति एक धर्मेर अभाव विद्यमान । एइ स्थल अनेकांत हइते विरुद्ध पदार्थर स्वभाव एकांत । एइ जन्य एकांतस्वरूपेर अभावद्वारा अनेकांतस्वरूपेर सिद्धि करा हइयाछे ॥ ८९ ॥ परंपरया संभवत् साधनमत्रैवांतर्भावनीयं ॥१०॥ हिंदी-जो साक्षात् साधन तो न हों किंतु परंपरासे हों उनका अंतर्भाव उपयुक्त साधनोंमें ही करलेना चाहिये उन्है जुदे मानने की आवश्यकता नहीं है ॥९०॥ यथा बंगला-ये सकल साक्षात् साधन नहे किंतु परंपरा साधन हइते पारे ताहादर अंतर्भाव उपर्युक्त साधनेर मध्येई करिया लइते हइवे । ताहादेर पृथक् स्वीकार करिवार आवश्यकता नाई ॥९० ॥ यथा- अभूदत्र चके शिवकः स्थासात् ॥९१॥ कार्यकार्यमविरुद्धकार्योपलब्धौ ॥११॥ हिंदी-इस चाकपर शिवक होगया क्योंकि इस समय स्थास देखनमें आ रहा है । यहां पर स्थास परंपरासे शिवकका कार्य है अर्थात् शिवकका साक्षात् कार्य छत्रक है और छत्रकका Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४३ ) कार्य स्थास है क्योंकि घटकी पर्याय पहले शिवक तत्पश्चात् छत्रक और उस से भी पश्चात् स्थास होती है । इस प्रकार यह कार्यकार्य रूप साधन अविरूद्धकार्योपलब्धिमें अंतर्भूत होता है ॥९१॥ ९२ ॥ क्योंकि बंगला-एइ चाकेर उपरि शिवक (माटीर शिवाकार पिंड विशेष ) हइया छे । ये हेतु एइ समय स्थास देखा याते छ । एइ स्थल स्थास परंपरा रूपे शिवकेर कार्य । अर्थात्-शिवकेर साक्षात् कार्य छत्रक एवं छत्रकेर कार्य स्थास । ये हेतु घटेर पूर्वपर्याय शिवक तत्पश्चात् छत्रक एवं तत्पश्चात् स्थास हइया थाके । एवं प्रकार एइ कार्यकार्यरूपसाधन आवरुद्धकार्योंपलब्धिर अंतर्भूत हइते पारे ॥९१॥९२॥ केनना- . नास्त्यत्र गुहायां मृगकीडनं मृगारिसंशब्दनात कारणविरुद्ध कार्यविरुद्ध कार्योपलब्धौ यथा ॥१३॥ हिंदी-यथा-इस गुफा मृग क्रीड़ा नहिं करते क्योंकि इसमें सिंह गरज रहा है। यहां कारणाविरुद्धकार्य विरुद्धकार्योपलब्धिमें अंतर्भूत होता है अर्थात्-यहां मृगक्रीड़ाका कारणमृग उससे विरुद्ध सिंह उसका कार्य गरजना है ॥१६॥ ___बंगला-यथा एइ गुफाय मृग क्रीड़ा करे ना । ये हेतु इहाते सिंह गर्जन करिते छे । एइ स्थल कारणावरुद्धकार्य विरुद्ध कार्योपलब्धिते अंतर्भूत हइया छ। अर्थात् एइखाने मृग क्रीडार कारण मृग, ताहार विरुद्ध सिंह ओ ताहार कार्य गर्जन हइ छे ९३ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४४ ) व्युत्पन्नप्रयोगस्तु तथोपपत्यान्यथानुपपत्त्यैव वा ॥१४॥ ' अग्निमानय देशस्तथैव धूमवत्त्वोपपत्तेधूमवत्त्वान्यथानुपपत्ते । हेतुप्रयोगे हि यथा व्याप्तिग्रहणं विधीयते सा च तावन्मात्रेण व्युत्पन्नैरवधार्यते ॥९६॥ तावता च साध्यसिद्धिः ।।९७॥ तेन पक्षस्तदाधारसूचनायोक्तः ॥१८॥ हिंदी व्युत्पन्न पुरुषके लिये तो साध्यके होते ही साधन का होना और साध्यके अभावमें साधनका न होना, केवल वस इतना ही प्रयोग (हेतुका प्रयोग ) काफी है । जैसा-यह प्रदेश आग्निवाला है क्योंक यहां अग्निके रहने पर ही धूम हो सकता है । अग्निके अभावमें धूम नहिं रह सकता । क्योंकि जिसहेतुकी व्याप्ति किसी न किसी साध्यके साथ निश्चित हो चुकी है उसी हेतुका प्रयोग किया जाता है किंतु विद्वान् लोग उदाहरण आदिकी सहायताके विनाही उस हेतुके प्रयोग सेही व्याप्ति निश्चय करते हैं ॥ एवं उस अविनाभावी ( साध्यके विना न होनेवाले ) हेतुके प्रयोगसे ही साध्यकी सिद्धि हो जाती है और इसीलिये आविनाभावी हेतुके आधार बतलानेके लिये पक्षका प्रयोग करना आवश्यक कहा है ॥९॥ ९५॥९६॥९७॥९८॥ बंगला-किंतु व्युत्पन्न व्यक्तिर जन्य केवल साध्य थाकि लेइ साधनेर अस्तित्व एवं साध्याभावे साधन हयना एतावन्मावह प्रयोग करा (हेतुप्रयोग) उचित । यथा-एइ प्रदेश अग्नि Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४५) विशिष्ट ये हेतु एइखाने अग्निथाकिलेई धूम हइते पारे । अग्निर अभावे धूम थाकेना । केन ना ये हेतुर व्याप्ति कोनओ प्रकारेर साध्येर संगे निश्चित हइया छे सेइ हेतुरइ प्रयोग करा याय । किंतु विद्वान् लोक उदाहरण प्रभृतिर सहायता ना लइयाइ सेइ हेतुर प्रयोगद्वारइ व्याप्तिर निश्चय करिया लय एवं सेइ अविनाभावी हेतुर प्रयोगद्वाराइ साध्येर सिद्धि हइया याय । अतएव अविनाभावी हेतुर आधार जानाइवार जन्य पक्षेर प्रयोग करा आवश्यकीय वला हइयाछे ॥९४॥९५॥९६ ६७॥९८॥ आगमस्वरूप । आप्तवचनादिनिबंधनमर्थज्ञानमागमः ॥ ९९ ॥ सहजयोग्यतासंकेतवशाद्धि शब्दादयो वस्तुप्रतिपत्तिहेतवः ॥ १० ॥ यथा मेर्वादयः संति ॥१०१॥ हिंदी-आप्तके वचन आदिसे होनेवाले पदार्थोके ज्ञानको आगम कहते हैं । आप्तके वचन आदिसे पदार्थोंका ज्ञान क्यों हो जाता है ? यह संशय युक्त नहीं क्योंकि शब्दके और अर्थों के अन्दर एक स्वाभाविक योग्यता वाच्य वाचक शक्ति है अर्थात् शब्दमें वाचकशक्ति और अर्थमें वाच्य शाक्त है उसमें संकेत होनेसे अर्थात् इस शब्दका वाच्य यह अर्थ है ऐसा ज्ञान होजानेसे शब्द आदिसे पदार्थोंका ज्ञान होता है । जिस प्रकार मेरु आदि पदार्थ हैं अर्थात् मेरु शब्दके Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६ ) उच्चारण करनेसेही जंबूद्वीप के मध्य में स्थित सुमेरुका ज्ञान होजाता है इसी प्रकार अन्य पदार्थों का भी समझ लेना चाहिये ॥६९॥१००॥ १०१ ॥ 1 इति परीक्षामुखसूत्रार्थे तृतीयोद्देशः ॥३॥ बंगला - आप्तेरवचन प्रभृतिर द्वारा पदार्थेर ये ज्ञान हय ताहाके आगम बल । आप्तवचन प्रभृतिद्वारा पदार्थर यथार्थ ज्ञान केन हय एइ प्रकार संशय युक्त नहि । ये हेतु शब्द ओ अर मध्ये एक स्वाभाविक योग्यता वाच्य वाचक शक्ति आछे । अर्थात् शब्दे वाचक शक्ति एवं अर्थे वाच्य शक्ति ताहाते संकेत हयाते अर्थात् एइ शब्देर वाच्य एइ अर्थ एइ प्रकार भान हयाते शब्द प्रभृति द्वारा पदार्थेर ज्ञान हय । यथा मेरु प्रभृति पदार्थ अर्थात् मेरु शब्देर उच्चारण करिलेइ जंबूद्वीपमध्यस्थ सुमेरु पर्वतेर ज्ञान थाय । एइ प्रकार अन्यान्य पदार्थैर ओ बुझियो लइबे ॥९९॥१००॥१०१॥ इति परीक्षामुखसूत्रार्थे तृतीयोद्देशः ॥ ३॥ अथ चतुर्थोद्देशः सामान्यविशेषात्मा तदर्थो विषयः ॥ १ ॥ अनुत्तव्यावृत्तप्रत्ययगोचरत्वात्पूर्वोत्तराकारापरिहारावाप्तिस्थितिलक्षणपरिणामेनार्थक्रियोपपत्तेश्व ॥ २ ॥ हिंदी -- सामान्य और विशेषस्वरूप अर्थात् द्रव्य और Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (80) पर्यायस्वरूप पदार्थ, प्रमाणका विषय होता है । क्योंकि प्रत्येक पदार्थ में अनुवृत्तप्रत्यय - सामान्यप्रत्यय और व्यावृत्तप्रत्यय विशेष प्रत्यय होते हैं जैसे पुरुषमें पुरुष ऐसा सामान्य प्रत्यय और ब्राह्मण है वैश्य है इत्यादि विशेष प्रत्यय होते हैं । तथा पूर्व आकारका त्याग उत्तर आकारकी प्राप्ति और स्वरूपकी स्थिति रूप परिणामोंसे अर्थक्रिया होती है । जैसे कोई पुरुष जिस समय अपनी वाल्य अवस्था समाप्त कर युवा अवस्थामें पदार्पण करता है उस समय उसकी पूर्व अवस्था वाल्य अवस्थाका त्याग और उत्तर अवस्था युवा अवस्थाकी प्राप्ति एवं पुरुषत्व रूपसे दोनों अवस्थामें स्थिति रहती है अर्थात् एकही पुरुषमें पुरुषत्व और ब्राह्मणत्व रूप सामान्य विशेष धर्म तथा उत्पाद व्यय और स्थिति रूप परिणाम रहते हैं । इसी प्रकार हरएक पदार्थ में समझ लेने चाहिये ॥ १ । २ ॥ बंगला - सामान्य ओ विशेषरूप अर्थात् द्रव्य एवं पर्यायस्वरूप पदार्थ प्रमाणेर विषय हय । ये हेतु प्रत्येक पदार्थ अनुवृत्तप्रत्यय सामान्यप्रत्यय एवं व्यावृत्तप्रत्यय विशेषप्रत्यय हय । यथा- पुरुषे पुरुष एइ प्रकार सामान्यप्रत्यय एवं ब्राह्मण, वैश्य प्रत्यय विशेषप्रत्यय हइया थाके । एवं पूर्वाकारेर त्याग ओ उत्तराकारेर प्राप्ति एवं स्वरूपेर स्थितिरूप परिणामद्वारा अर्थ क्रिया हइया था । यथा कोनेओ व्यक्ति ये समय स्वकीय वाल्यावस्था समाप्त करिया युवावस्थाय पदार्पण करे सेइ समये Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४८) ताहार वाल्यावस्थार ( पूर्वावस्थार ) त्याग एवं युवावस्थार ( उत्तरावस्थार ) प्राप्ति ओ पुरुषत्वरूप उभयावस्थाय स्थिति थाके । अर्थात् एकइ पुरुषे पुरुषत्व एवं ब्राह्मणस्वरूप सामान्य विशेषधर्म ओ उत्पादव्यय एवं स्थितिरूप परिणाम थाके । एइ प्रकार प्रत्येक पदार्थे बुझियो लइवे ॥ १ ॥ २॥ सामान्यं द्वेधा तिर्यगूलताभेदात् ॥ ३ ॥ सदृशपरिणामस्तिर्यक् खंडमुंडादिषु गोत्ववत् ॥ ४॥ परापरविवर्तव्यापिद्रव्यमूर्खता मृदिव स्थासादिषु ॥५॥ ___ हिंदी सामान्य दो प्रकारका है एक तिर्यक्सामान्य दूसरा ऊर्ध्वता सामान्य । समान परिणामको तिर्यक् सामान्य कहते हैं जैसा गोत्व सामान्य क्योंकि खाडी मुंडी आदि गौवोंमें गोत्व सामान्य समानरीतिसे रहता है । तथा पूर्व और उत्तर पर्यायोंमें रहनेवाले द्रव्यको (सामान्यको) ऊर्ध्वता सामान्य कहते हैं जैसे मिट्टी क्योंकि स्थास कोश कुसूल आदि जितनीपर्याये हैं उन सबमें मिट्टी अनुगत रूपसे रहती है ॥ ३ ॥ ४॥५॥ ___बंगला-सामान्य दुइ प्रकार । एक तिर्यक्सामान्य अपरटि-ऊर्ध्वता सामान्य । सामान्य परिणामके तिर्यक् सामान्य बले। यथा-गोत्वसामान्य येहेतु खंड मुंडादि गोरुते गोत्वसामान्य समानभावे थाके । एवं पूर्वोत्तरपर्यायस्थ द्रव्यके (समान्यके) ऊर्ध्वतासामान्य बला हय । यथा मृत्तिका । ये हेतु स्थास कोश कुसूलप्रभृति सकल पर्यायेइ मतिका अनुगतरूपे थाके ॥३॥४॥५॥ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४९ ) विशेषश्च || ६ || पर्यायव्यतिरेकभेदात् ॥ ७ ॥ एकस्मिन द्रव्ये क्रमभाविनः परिणामाः पर्याया आत्मनि हर्षविषादादिवत् ॥ ८ ॥ अर्थातरगतो विसदृशपरिणामो व्यतिरेको गोमहिषादिवत् ॥ ९ ॥ -- हिंदी —- पर्याय और व्यतिरेक के भेदसे विशेषभी दो प्रकार का है । एकही द्रव्यमें क्रमसे होनेवाले परिणामों को पर्याय कहते हैं जैसे एकही आत्मामें हर्ष और विषाद । तथा भिन्न २ पदार्थों में रहने वाले विलक्षण परिणामको व्यतिरेक विशेष कहते हैं जैसे गौ और भैंस अर्थात् गौ और भैंस ये भिन्न २ पदार्थों के परिणाम हैं ॥ ६ ॥ ७ ॥ ८ ॥ ९॥ बंगला - पर्याय एवं व्यतिरेक भेदे विशेषओ दुइ प्रकार एकइ द्रव्य क्रमशः उत्पन्न परिणामके पर्याय विशेष बले । यथा एक आत्मातें हर्ष ओ विषाद क्रमशः उत्पन्न हय । एवं भिन्न २ पदार्थेस्थित परिणामकें व्यतिरेकविशेष बला हय । यथा गोमहिष अर्थात गो महिष भिन्न २ पदार्थेर परिणाम ॥ ६ ॥ ७ ॥ ८ ॥ ९ ॥ इति परीक्षामुखसुत्रार्थे चतुर्थोद्देशः ॥ ४ ॥ अथ पंचमोद्देशः । अज्ञाननिवृत्तिनोपादानोपेक्षाच फलं ॥ १ ॥ हिंदी – अज्ञानकी निवृत्ति, त्यागना, ग्रहण करना और Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५०) उपेक्षा करना ये प्रमाणके फल हैं । अर्थात् प्रमाणसे ये बातें होती है यहां प्रमाणका साक्षात्फल अज्ञाननिवृत्ति है और शेष फल गौण है ॥१॥ बंगला-अज्ञानेर निवृत्ति, त्याग, ग्रहण एवं उपेक्षा कराइ प्रमाणेर फल । एस्थले अज्ञाननिवृत्ति फल प्रमाणेर प्रधान फल । एवं त्याग, ग्रहण, उपेक्षा गौण फल ॥ १॥ प्रमाणादाभिन्न भिन्नं च ॥२॥ यः प्रमिमीते स एव निवृत्ताज्ञानो जहात्यादत्त उपेक्षते चेति प्रतीतेः ॥ ३ ॥ हिंदी-फल प्रमाणसे कथंचित् अभिन्न और कथंचित् भिन्न है । क्योंकि जो प्रमाण करता है-जानता है उसीका अज्ञान दूर होता है और वही किसी पदार्थका त्याग वा ग्रहण अथवा उपेक्षा करता है इसलिये तो प्रमाण और फलका अभेद है किन्तु प्रमाण फलकी भिन्न २ भी प्रतीति होती है इसलिये भेद भी है ॥ २ ॥ ३ ॥ ___बंगला-प्रमाण हइते फलके कथंचित् भिन्न बला याय । ये हेतु-ये व्यक्ति प्रमाण करे ओ जाने ताहारइ अज्ञान दूर हय एवं सेइ व्यक्तिइ कानओ पदार्थेर त्याग, ग्रहण अथवा उपेक्षा करे एइ हेतुते प्रमाण ओ फलेर अभेद किन्तु प्रमाण ओ फलेर भिन्न भिन्न ओ प्रतीति हय एइजन्य फलके प्रमाण हइते भिन्न ओ बला याय ॥ २ ॥ ३ ॥ इति परीक्षामुखसूत्रार्थे पंचमोद्देशः ॥५॥ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५१ अथ षष्ठोद्देशः ततोन्यचदाभासं ॥ १ ॥ हिंदी – पहिले कहे गये प्रमाणके स्वरूप संख्या विषय फलसे विपरीत स्वरूप संख्या आदि प्रमाण स्वरूपाभास संख्याभास विषयाभास और फलाभास कहे जाते हैं ॥ १ ॥ बंगला — पूर्वोक्त प्रमाणेर स्वरूप संख्या विषय ओ फल हइते विपरीत ( स्वरूप संख्या आदिर आभास ) प्रमाण स्वरूपाभास संख्याभास विषयाभास ओ फलाभास बला याइ - तेछे ॥ १ ॥ अस्वसंविदितगृहीतार्थदर्शनसंशयादयः प्रमाणाभासाः । स्वविषयोपदर्शकत्वाभावात् । पुरुषांतर पूर्वार्थगच्छसृणस्पर्शस्थाणुपुरुषादिज्ञानवत् ॥ २।३।४॥ हिंदी – अस्वसंविदितज्ञान, गृहीतार्थज्ञान, (धारावाहिकज्ञान ) दर्शन, संशय, एवं आदिपदसे विपर्ययज्ञान, और अनव्यवसायज्ञान, ये सब प्रमाणाभास हैं । क्योंकि ये ज्ञान वास्तविक रीतिसे अपने विषयका निश्चय नहिं कराते । जिस प्रकार दूसरे पुरुषका ज्ञान, मार्ग में जाते हुये पुरुषका तृणस्पर्श ज्ञान, यह स्थाणु है वा पुरुष है यह ज्ञान, आदि पदसे सीपमें रजतका ज्ञान, आदि । क्योंकि स्वविषयका वास्तविकरीतसे निश्चय न कराने से ये भी प्रमाणाभास कहे जाते हैं ॥ २ ॥ ३ ॥ ४ ॥ बंगला – अस्वसंविदितज्ञान गृहीतार्थज्ञान ( धारावाहिक · 1 Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५२ ) ज्ञान ) दर्शन संशय एवं आदिपदग्राह्य विपर्ययज्ञान ओ अनध्यवसाय ज्ञान एइ सकल प्रमाणाभास, येहेतु एइ सकलज्ञान वास्तविकरूप निजविषयेर निश्चय करेना । येमन द्वितीय पुरुषेर ज्ञान, पथे चलिवार समय तृणादिस्पर्शज्ञान, इहा कि स्थाणु वा पुरुष एइ संशय ज्ञान, सूत्रेर आदिपदग्राह्य शुक्तिते रजतज्ञान ओ प्रमाणाभास । केनना उहा ओ वास्तविकरूप निजविपयर निश्चय करायना ॥ २ ॥ ३ ॥ ४ ॥ चशूरसयोर्द्रव्ये संयुक्तसमवायवच्च ॥ ५॥ . हिंदी-द्रव्यमें चक्षु और रसका संयुक्त समवाय संबंध रहने पर भी जैसा वह प्रमाण नहिं माना जाता क्योंकि नैयायिक मतानुसार वहां कोई प्रमाणका फल नहिं होता उसी प्रकार चक्षु और रूपका संयुक्त समवाय संबंध भी प्रमाण नहिं कहा जा सकता क्योंकि वहां भी प्रमाणका फल नहिं होसकता इसलिये सन्निकर्ष भी प्रमाण नहिं होसकता इस सूत्रसे सन्निकर्षरूप प्रमाण विशेषका खंडन किया गया है ॥ ५॥ बंगला-द्रव्ये चक्षु ओ रसेर संयुक्त समवाय संबंध थाकिलेओ येमन चक्षु द्वारा रसेर प्रमाण जन्मेना केनना नैयायिकमते ए स्थले कोन प्रमाणेर फलइ हयना, से रूप चक्षु ओ रूपेर संयुक्त समवाय ओ प्रमाण नहे । इझा वलायाय ये से खानेओ कोनओ प्रमाणेर फल जन्मेना सुतरां सन्निकर्ष Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५३ ) प्रमाणइ हइते पारेना । एइ सूत्र द्वारा नैयायिककृत सन्निकर्षेर प्रामाण्य खंडित हईल ॥५॥ ___ अवैशये प्रत्यक्षं तदाभासं बौद्धस्याकस्माद्धृमदर्शनाद्वह्निविज्ञानवत् ॥ ६॥ हिंदी-प्रत्यक्ष ज्ञानको अविशद स्वीकार करना प्रत्यक्षाभास कहा जाता है जिस प्रकार बौद्ध द्वारा प्रत्यक्षरूपसे अभिमत-आकस्मिक धूमदर्शनसे उत्पन्न अग्निका ज्ञान अविशद होनेसे प्रत्यक्षाभास कहलाता है ॥ ६॥ बंगला-प्रत्यक्षज्ञानेर अविशदता स्वीकार करिले ताहा प्रत्यक्षाभास-पदवाच्य हय । येमन बौद्धगणेर प्रत्यक्ष रूपे आभिमत आकस्मिक धूमदर्शन-द्वारा उत्पन्न अग्निर ज्ञान अविशद सुतरां ताहा प्रत्यक्षाभास ॥ ६ ॥ वैशोऽपि परोक्षं तदाभासं मीमांसकस्य करणस्य ज्ञानवत् ॥७॥ २-नैयायिकमते रूपादिर शान संयुक्त समवाय संबंध हय । चक्षु संयुक्त घट, ताहात रूप समवेत आछे सुतरां संयुक्त समवाय संबंध रूपेर ज्ञान हइते पारे । एइ सूत्र द्वारा ताहा खंडन करा याइतेछ । चक्षु संयुक्त फले रस समवाय संबंध थाकिलओ चक्षु द्वारा ताहार शान हयना सुतरां संयुक्त समवायादि संबंध ज्ञान होया प्रतीति विरुद्ध । आर उहा प्रतीति विरुद्ध हइले एइ-कथा स्वीकारेर मूलीभूत सन्निकर्षेर प्रामाण्य वादओ खंडित हाल । Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५४ ) हिंदी-परोक्षज्ञानको विशद मानना परोक्षाभास है जिस प्रकार परोक्षरूपसे अभिमत मीमांसकोंका इंद्रियजन्यज्ञान विशद होनेसे परोक्षाभास कहा जाता है ॥७॥ ___बंगला-परोक्ष ज्ञान विशद हइले ताहा परोक्षामास । येमन मीमांसकेर परोक्षरूपे अभिमत इंद्रियजन्यज्ञान विशद हओयाय ताहा परोक्षाभास ॥ ७ ॥ अतस्मिंस्तदिति ज्ञानं स्मरणाभासं जिनदत्चे सदेवदत्तो यथा॥८॥ हिंदी-जिस पदार्थको पहिले सुन वा देख रक्खा है कालांतर में उसका स्मरण न होकर उसकी जगह दूसरेका स्मरण होना स्मरणाभास है जिस प्रकार पूर्व अनुभूत जिनदत्त की जगह देवदत्त का स्मरण स्मरणाभास कहा जाता है ॥८॥ बंगलाये पदार्थके प्रथम देखिया सुनिया राखा हइया छे कालांतरे उहार स्मरण ना हइया उहार स्थाने अन्य आर किछुर स्मरण हइले ताहा स्मरणाभास । येमन पूर्वे जिनदत्तके देखियाछि एखन तत्स्थाने यदि देवदत्तेर स्मरण हय तवे उहा स्मरणाभास हइवे ॥ ८॥ सदृशे तदेवेदं तस्मिन्नेव तेन सदृशं यमलकवदित्यादि प्रत्याभिज्ञानाभासं ॥९॥ हिंदी-सदृशमें यह वही है ऐसा ज्ञान और यह वही है इस जगह यह उसके समान है, ऐसा ज्ञान प्रत्यभिज्ञानाभास कहा जाता है जैसे-एक साथ उत्पन्न हुए मनुष्यों में तदेवेदं Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५५ ) की जगह तत्सदृश और तत्सदृशकी जगह तदेवेदं यह ज्ञान प्रत्यभिज्ञानाभास कहा जाता है ॥ ९ ॥ बंगला - सदृश स्थले 'इहा अमुकइ' एइरूप ऐक्यबोध वाताही इहाइ इ ज्ञान स्थले 'इहा तत्सदृश' एइ ज्ञान इले ताहा प्रत्यभिज्ञानभास । येमन यमज मनुष्य द्वयेर मध्ये " तदेवेदं” एर स्थले तत्सदृशज्ञान वा " तत्सदृशं " ज्ञानस्थले 'तदेवेदं' ज्ञान एइ उभयइ प्रत्यभिज्ञानाभास ॥ ९ ॥ " असंबद्धे तज्ज्ञानं तर्काभासं ॥ १० ॥ हिंदी -- जिन पदार्थों का आपसमें अविनाभाव संबंध नहिं उनका संबंध मानना तर्काभास है ॥ १० ॥ बंगला - ये पदार्थेर सरूपतः कोनरूप संबंध नाइ, उहादेर संबंध स्वीकार कराके तर्काभास बले ॥ १० ॥ इदमनुमानाभासं ॥ ११॥ तत्रानिष्टादि पक्षाभासः ||१२|| अनिष्टो मीमांसकस्यानित्यः शब्दः || १३ || सिद्ध: श्रावणः शब्दः॥१५॥ बाधितः प्रत्यक्षानुमानागमलोक स्ववचनैः ॥ १५ ॥ हिंदी – अब अनुमानाभास कहते हैं। वहांपर इष्ट असिद्ध और अबाधितसे विपरीत अनिष्ट सिद्ध और बाधित पक्षाभास हैं । शब्दकी अनित्यता मीमांसकको अनिष्ट है क्योंकि मीमांसक शब्दको नित्य मानता है । शब्द कानसे सुना जाता है यह सिद्ध है । तथा प्रत्यक्षबाधित अनुमानबाधित आगमबाधित Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५६ ) लोकबाधित एवं स्ववचनबाधितके भेदसे बाधित पांच प्रकार है ॥ ११-१५॥ - बंगला-एखन अनुमानाभास बलितछि । तन्मध्ये इष्ट असिद्ध ओ अबाधितेर विपरीत अनिष्ट सिद्ध ओ बाधितके पक्षाभास बला याय । शब्देर अनित्यता मीमांसकेर मते अनिष्ट केनना मीमांसकगण शब्देर नित्यता मानिया थाकेन । शब्द श्रवणेंद्रिय ग्राह्य इहा सिद्ध । सेइरूप प्रत्यक्षबाधित, अनुमानबाधित, आगमबाधित, लोकबाधित एवं स्ववचनबाधित भेदे बाधित पाँच प्रकार ॥ ११-१५।। तत्र प्रत्यक्षबाधितो यथा-अनुष्णोऽग्निद्रव्यत्वाज्जलवत् ॥१६॥ हिंदी--अग्नि शीतल है क्योंकि द्रव्य है जैसा जल यह प्रत्यक्षबाधित का उदाहरण है क्योंकि स्पार्शन प्रत्यक्षसे अमिकी शीतलता बाधित है ॥ १६ ॥ बंगला-अग्नि शीतल येहेतु उहा द्रव्य, येमन जल एइ स्थले अग्निर शैत्य प्रत्यक्षबाधित, केनना स्पर्श द्वारा अग्नि शीतलता बाधित हइयाछे ॥ १६ ॥ __ अपरिणामी शब्दः कृतकत्वाद् घटवत् ॥ १७ ॥ हिंदी-शब्दका परिणाम नहीं होता क्योंकि वह किया हुआ है जैसा घट, यह अनुमानबाधित का उदाहरण है अर्थात् (शब्दः परिणामी कृतकत्वाद्धटवत्) शब्द परिणामी है क्योंकि किया हुआ है जैसा घट यह अनुमान उसका बाधक है ॥१७॥ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंदीबंगानुवादसहितंपरीक्षामुखं । ५७ बंगला---'शब्द अपरिणामी ये हेतु उहा कृतक येमन घट' इहा अनुमानबाधितेर उदाहरण-अर्थात् ( शब्दः परिणामी कृतकत्वात् घटवत् ) शब्द परिणामी येहेतु उहा कृतक येमन घट एइ अनुमान पूर्वोक्त अनुमोनर वाधक आछे ॥ १७॥ प्रेत्यासुखप्रदो धर्मः पुरुषाश्रितत्वादधर्मवत् ॥ १८॥ हिंदी-धर्म परभवमें दुःख देने वाला है क्योंकि वह पुरुषके आधीन है जैसा अधर्म यह आगम बाधितका उदाहरण है क्योंकि आगममें धर्म परभवमें सुखका देने वाला और अधर्म दुख देने वाला कहा गया है ॥ १८ ॥ बंगला-'धर्म परलोके दुःखदायी केनना उहा पुरुषाधीन, येमन अधर्म, इहा आगम वाधितेर उदाहरण, केनना 'धर्म परलोके सुखप्रद ' इहा आगम हइते जाना याइतेछे । अधर्म वस्तुतः परजन्मे दुखःदायी इहा आगम वले ॥१८॥ शुचि नरशिर:कपालं पाण्यंगत्वाच्छंखशुक्तिवत् ॥१९ ।। हिंदी-मनुष्यके मस्तककी खोपड़ी पवित्र है क्योंकि वह प्राणीका अंग है जिसप्रकार शंख सीप प्राणीके अंग होनेसे पवित्र गिने जाते हैं । यह लोकबाधितका उदाहरण है क्योंकि लोकमें शंख सीपकी तरह खोपड़ीको कोई पवित्र नहिं कहता ॥ १९॥ बंगला-नरशिरोऽस्थि पवित्र येहेतु उहा प्राणीर अंग Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ । सनातनजैनग्रंथमालायां । येमन शंख शुक्ति प्रभृति । इहा लोकबाधित, केनना शंख शुक्तिर मन मनुष्य मस्तकेर अस्थिके केह पवित्र वलेना ॥१९॥ .. माता मे बंध्या पुरुषसंयोगेप्यगर्भवत्त्वात्पूसिद्धबंध्यावत् २० हिंदी मेरी मा वांझ है क्योंकि पुरुषके संयोग होने पर भी उसके गर्भ नहीं रहता जैसा प्रसिद्ध बंध्या स्त्रीके पुरुष के संयोग रहने पर भी गर्भ नहिं रहता । यह स्ववचनबाधित का उदाहरण है क्योंकि मेरी मां और वांझ ये बाधित वचन ... बंगला-आमार माता बंध्या, केनना पुरुषसंयोग हल्ले ओ ताहार गर्म हइतेछेना, येमन प्रसिद्ध बंध्या पुरुष संयोग हइलेआ गर्भवती हयना इहा स्ववचन वाधितेर उदाहरण । केनना ' आमार माता ' ओ ' वंध्या ' एइ दुइटी कथा परस्पर बाधित ॥ २० ॥ हेत्वाभासा असिद्धविरुद्धानेकांतिकाकिचित्कराः ॥२१॥ हिंदी हेत्वाभासके चार भेद हैं असिद्धहेत्वाभास विरुद्धहेत्वाभास अनेकांतिकहेत्वाभास और अकिंचित्कर हेत्वाभास॥२२॥ ___बंगला हेत्वाभास चारिप्रकार-आसिद्ध, विरुद्ध, अनैकांतिक ओ आकंचित्कर ॥ २१ ॥ स्वरूपासिद्धहेत्वाभास असत्सवानिश्चयोऽसिद्धः ॥ २२॥ हिंदी-जिसकी सत्ताका पक्षमें अभाव हो और निश्चय Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंदीबंगानुवादसहितंपरीक्षामुखं । ५९ न हो उसे असिद्ध कहते हैं अर्थात् पक्षमें जिसकी सत्ताका अभाव हो उसे स्वरूपीसद्ध कहते हैं । और पक्ष में जिसकी सत्ताका निश्चय न हो उसै संदिग्धासिद्ध कहते हैं ॥ २२॥ - बंगला-याहार सत्ता पक्षे अविद्यमान अथवा संदिग्ध मोटेर उपर याहार सत्ता पक्षे निश्चित नहे, ताहाके आसिद्ध वले। तन्मध्ये याहार सत्ता पक्षे अविद्यमान ताहाके स्वरुपासिद्ध एवं पक्षे याहार सत्तार संदेह आछे ताहाके संदिग्धासिद्ध कहे २२ संदिग्धासिद्धहेत्वाभास अविद्यमानसत्ताकः परिणामी शब्दश्चाक्षुषत्वात् ॥ २३ ॥ स्वरूपेणासत्त्वात् ॥ २४॥ हिंदी-शब्द परिणामी है क्योंकि वह आंख से देखा जाता है । यह अविद्यमानसत्ताक अर्थात् स्वरूपासिद्ध हेत्वाभास है । क्योंकि शब्द कानसे सुना जाता है आंख से नहिं देखा जाता इसलिये शब्द ( पक्ष ) में चाक्षुषत्व हेतुका स्वरूप ही नहिं रहता ॥ २३ ॥ २४ ॥ बंगला-शब्द परिणामी येहेतु उहाचलुग्राह्य आविद्यमान सत्ताक, अर्थात् स्वरूपासिद्ध हेत्वाभासेर दृष्टांत । केनना शब्द श्रवणेंद्रियग्राह्य चाक्षुष नहे । एइजन्य पक्षे शब्दे चाक्षुष हेतुर स्वरूपतइ अभाव आछे ॥ २३ ॥ २४ ॥ अविद्यमाननिधयो मुग्धबुद्धि प्रति-अग्निरत्र धूमात्र ॥ २५ ॥ तस्य वाष्पादिभावेन भूतसंघाते संदेहात् ॥ २६ ॥ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०. सनातनजैनग्रंथमालायां । हिंदी-अनुमानस्वरूपसे सर्वथा अनभिज्ञ किसी मूर्ख मनुष्यके सामने कहना कि यहां अग्नि है क्योंकि धूआं है यह आवद्यमाननिश्चय अर्थात् संदिग्धासिद्ध है । क्योंकि मूर्ख मनुष्य किसी समय पृथ्वी जल आदि भूत संघात ( वटलोई आदि ) में भाफ आदिको देखकर यहां अग्नि है या नहिं. ऐसा संदेह कर बैठता है ॥ २५ ॥२६॥ ____बंगला-अनुमान स्वरूपानभिज्ञ केह कोन मुर्खेर निकट यदि वले ये एखाने अग्नि आछे केननो धूम आछे तवे ताहा संदिग्धासिद्ध । केननो ऐ मूर्खेर भूत संघाते वाष्पप्रभृति देखिया एखाने अग्नि आछे ना नाइ एइ संदेह हइया थाके २५॥२६ साख्यं प्रति परिणामी शब्दः कृतकत्वात् ॥२७॥ तेनाज्ञातत्वात् ॥ २८॥ हिंदी-शब्द परिणामी है क्योंकि वह किया हुआ है यहां सांख्यके प्रति कृतकत्व हेतु संदिग्धासिद्ध है क्योंकि सांख्य मतमें पदार्थोका आविर्भाव तिरोभाव माना गया है उत्पाद और व्यय नहिं इसलिये वह कृतकताको नहिं जानता ॥२७॥२८॥ बंगला'शब्द परिणामी केनना ताही कृतक' सांये प्रति एइ अनुमान संदिग्धासिद्ध, केनना सांख्यमते पदाथेर आविर्भाव तिरोभाव स्वीकार कराहय, उत्पत्ति विनाश ताहारा मानेना सुतरां कृतकत्व ताहादेर अविज्ञेय पदार्थ २७।२८ विरुद्धहेत्वाभास Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंदीबंगानुवादसहितपरीक्षामुखं । ६१ विपरीतनिश्चिताविनाभावो विरुद्धोऽपरिणामी शब्दः कृतकत्वात् ॥२९॥ हिंदी-जिस हेतुका अविनाभावसंबंध (व्याप्ति) साध्य से विपरीतके साथ निश्चित हो उसै विरुद्धहत्वाभास कहते हैं जैसा शब्द परिणामी नहि है क्योंकि कृतक है यहां पर कृतकत्व हेतुकी व्याप्ति अपरिणामित्व से विपरीत परिणामित्व के साथ है इसलिये कृतकत्व हेतु विरुद्धहेत्वाभास कहा जाता है ॥२९॥ ___बंगला-ये हेतुर आविनाभावसंबंध [ व्याप्ति ] साध्येर विपरीतेर सहित निश्चित हय, ताहाके विरुद्ध हेत्वाभास वले येमन शब्द अपरिणामी केनना ताही कृतक । एस्थले अपरिणामित्वेर विपरीत परिणामित्वेर सहित कृतकत्व हेतुर व्याप्ति आछे, सुतरां कृतकत्वके विरुद्ध हेत्वाभास बला याय ॥२९॥ विपक्षेप्यविरुद्धवृत्तिरनैकांतिकः ॥३०॥ हिंदी-जो हेतु पक्ष सपक्ष विपक्ष तीनोंमें रहे उसै अनैकांतिक कहते है ॥३०॥ ____ बंगला-ये हेतु पक्ष सपक्ष ओ विपक्ष एइ तिनटीरइ थाके तहाके अनैकांतिक वला हय ॥३०॥ निश्चितविपक्षवृत्तिका उदाहरण निश्चितत्तिरनित्यः शब्दः प्रमेयत्वात् घटवत् । आकाशे नित्येप्यस्य निश्चयात् ॥३१॥३२॥ हिंदी-जो हेतु विपक्षमें निश्चितरूपसे रहै उसै निश्चित Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ सनातनजैनग्रंथमालायां । वृत्ति अनैकांतिक कहते हैं जिसप्रकार शब्द अनित्य है क्योंकि प्रमेय है जैसे घड़ा । यहां पर प्रमेयत्व हेतु निश्चित विपक्ष वृत्ति अनैकांतिक है क्योंकि नित्यपदार्थ आकाशादि विपक्षम निश्चयरूपसे रहता है ॥३१॥२३॥ .. बंगला-ये हेतु विपक्षे निश्चितभाव थाके ताहाके निश्चय वृत्ति अनेकांतिक वले । येमन शब्द अनित्य केनना उहा प्रमेय येमन घट । एस्थल प्रमयत्वहेतु निश्चितविपक्षवृत्ति अनैकांतिक ये हेतु नित्यपदार्थ आकाशादिरूप विपक्षे ओप्रमेयत्व निश्चित रूप आछे ॥३१॥३२॥ शंकितविपक्षवृत्तिका उदाहरण शंकितवृत्तिस्तु नास्ति सर्वज्ञो वक्तृत्वात् । सर्वज्ञत्वेन वक्तृत्वाविरोधात् ॥ ३३ ॥ ३४ ॥ हिंदी--जो हेतु विपक्षमें संशयरूपसे रहे उसै शकितवृत्ति अनकांतिक कहते हैं जिस प्रकार सर्वज्ञ नहिं है क्योंकि वोलने वाला है यहां पर वक्तृत्व हेतु शंकितविपक्षवृत्ति अनेकांतिक हैं क्योंकि एक जगह सर्वज्ञत्व और वक्तृत्व रहसकते हैं सर्व । ज्ञत्व वक्तृत्वका विरोध नहिं ॥ ३३ ॥ ३४॥ बंगला-ये हेतु विपक्षे संदिग्ध भावे आछे ताहाके शंकितवृति अनैकांतिक वले । येमन सर्वज्ञ नाइ ये हेतु वक्तृत्व आछे । एखाने वक्तृत्व हेतु शंकित विपक्षवृत्ति अनेकांतिक । Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंदीबंगानुवादसहितपरीक्षामुखं । ६३ कारण सर्वज्ञत्व ओ वकृत्व एकस्थल थाकिन पार । एतदुभयेर विरोध नाइ ॥ ३३ ॥ ३४ ॥ अकिचित्करहेत्वाभास___ सिद्धे प्रत्यक्षादिबाधिते च साध्ये हेतुरकिंचित्करः। सिद्धः श्रावणः शब्दः शब्दत्वात् । किंचिदकरणात्। यथानुष्णोऽग्निद्रव्यत्वादित्यादौ किंचित्कर्तुमशक्यत्वात् । लक्षण एवासौ दोषो व्युत्पन्नपूयोगस्य पक्षदोषेणैव दुष्टत्वात् ॥ ३५ ॥ ३६ ॥ ३७ ॥ ३८ ॥ ३९ ॥ हिंदी जो साध्य स्वयं सिद्ध हो अथवा प्रत्यक्ष आदिसे बाधित हो उस साध्यकी सिद्धिके लिये यदि हेतुका प्रयोग किया जाय तो वह हेतु कुछ न करनेकेकारण अकिंचित्कर हेत्वा भास कहा जाता है जैसे शब्द, कानसे सुना जाता है क्योंकि वह शब्द है यहां पर शब्दमें श्रावणत्व स्वयं सिद्ध है इसलिये शब्दमें श्रावणत्वकी सिद्धिकोलिये प्रयुक्त शब्दत्व हेतु अकिंचित्कर हेत्वाभास कहा जाता है । क्योंकि यह हेतु यहां कुछ करता नहिं । (इसे सिद्धिसाध्यवाले अाँकीचकर हेतुका उदाहरण समझना चाहिये)। जिसप्रकार अग्नि शीतल है क्योंकि वह द्रव्य है यहां पर अग्निकी शीतलता प्रत्यक्षबाधित है इसलिये द्रव्यत्व हेतु, कुछ भी न करनेसे आकंचित्कर हेत्वाभास कहा जाता है (सिद्धसाध्य अकिंचित्कर हेत्वाभास Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनातनजैनग्रंथमालायां । व्यतिरेकविकलका दृष्टांत इंद्रियसुख है क्योंकि अमूर्तत्वरूप साधन का व्यतिरेक मूर्तत्व होता है और वह इंद्रियसुखमें नहिं रहता एवं उभय व्यतिरेकविकलका दृष्टांत आकाश है क्योंकि पौरुषेयत्व मूर्तत्व दोनों ही नहिं रहते । तथा जो अमूर्त नहिं है वह अपौरुषेय भी नहिं है इसप्रकार व्यतिरेक दृष्टांत भी दृष्टांताभास कहा जाता है अर्थात् व्यतिरेकमें पहले साध्या भाव और पीछे साधनाभाव कहा जाता है । यहां पर पहले साधनाभाव और पीछे साध्याभाव कहा गया है इसलिये यह व्यतिरेक दृष्टांताभास है ॥४४॥४५॥ - बंगला-व्यतिरेकदृष्टान्ताभास तीन प्रकार,-साध्यव्यतिरेकविकल, साधनव्यतिरेकविकल एवं साध्यसाधनोभय व्यतिरेकविकल । यथा शब्द अपौरुषेय केनना ताही अमूर्त एइ उदाहरणइ साध्यव्यतिरेकविकलेर दृष्टान्त, केनना अपौरुषेयत्व रूप साध्येर व्यतिरेक पौरुषेयत्व परमाणुते थाकेना । साधन व्यतिरेक विकलेर दृष्टान्त इन्द्रिय सुख, केनना अमूर्तत्व रूप साधनेर व्यतिरेक ( अभाव) मूर्तत्व इन्द्रियसुखे थाकेना एवं उभय व्यतिरेक विकलेर दृष्टान्त आकाश केनना पौरुष यत्व मूर्तत्व उभयइ आकाश थाकेना । एइ रूपे ये अद्त्तनह ताहा अपौरुषेय ओ नहे एइरूप व्यतिरके दृष्टान्त ओ दृष्टान्ता भास । केनना व्यतिरेक प्रथम साध्याभाव ओ परे साधनाभाव Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंदीबंगानुवादसहितंपरीक्षामुखं । ६५ शब्दोऽमूर्त्तत्वादिद्रियसुखपरमाणुघटवत् विपरीतान्वयश्च यदपौरुषेयं तदमूर्त । विद्युदादिनातिप्रसंगात् ॥४०॥४१॥४२॥४३॥ हिंदी-अन्वयदृष्टांताभास तीन प्रकारका है साध्य विकल साधनविकल और साध्यसाधनउभयविकल । यथा-शब्द अपौरुषेय है-किसीपुरुष द्वारा नहिं कियागया है क्योंकि वह अमूर्त है जैसा इंद्रियसुख परमाणु और घट ॥ अर्थात् यहां पर इंद्रिय सुख साध्यविकल दृष्टांत क्योंकि इंद्रिय सुख अपौरुषेय नहि है पुरुषकृतही है । परमाणु साधन विकल दृष्टांत है क्योंकि परमाणुमें रूप रस गंध आदि रहते हैं इस लिये वह मूर्त है अमूर्त नहि और घट उभय विकल है क्योंकि घट पुरुष कृत और मूर्त है इसलिये उसमें अपौरुषेयत्व साध्य एवं अमूतत्व हेतु दोनोंही नहि रहते । यहां साध्य विकल आदिके क्रमसे उदाहरण समझलेना चाहिये तथा इसी उपर्युक्त अनुमानमें जो २ अमूर्त होता है वह २ अपौरुषेय होता है एसी व्याप्ति है परन्तु जो २ अपौरुषेय होता है वह २ अमूर्त होता है ऐसी उल्टी व्याप्ति दिखाना भी अन्वयदृष्टांताभास कहाजाता है क्योंकि विजलीसे व्यभिचार होजाता है अर्थात् विजलीमें अपौरुषेयत्व तो रहता है अमूर्तत्व नहिं रहता ।। ४०१४११४२।४३॥ बंगला-अन्वयदृष्टान्ताभास तिन प्रकार-साध्य विकल साधन विकल ओ साध्यसाधनोभय विकल । यथा ' शब्द Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ सनातऩजैनग्रंथमालायां । अपौरुषेय येहतु अमूर्त येमन इंन्द्रिय सुख, परमाणु ओ घट । एखाने इंन्द्रिय सुख साध्यविकल दृष्टान्त केनना इंद्रियसुख अपौरुषेय नहे, प्रत्युत ताही पुरुषसंपाद्यइ हय । परमाणु साधन विकल दृष्टान्त केनना परमाणुते रूप रसादि थाकाय ताही मूर्त्त द्रव्यइ, अमूर्त नहे । घट उभयविकल केनना ताहा पौरुषेय एवं मूर्त्त पदार्थ । अपौरुषयत्व रूप साध्य वा अमूर्त्तत्व रूप साधन घटे नाइ । एइ दृष्टान्तत्रये यथाक्रमे साध्य विकलतादि बुझिया लइवे । उपर्युक्त अनुमाने यैये अमूर्त्त सेसे अपौरुषेय इहाइ वस्तुतः अन्वयव्याप्ति, किन्तु यदि एरुप व्याप्तिना देखाया ये अपौरुषेय से अमूर्त्त एरुप व्याप्ति देखाइ तबे तहा अन्वय दृष्टान्ताभास कथिते हएवे, केनना एइ व्याप्तिते विद्युत् अन्तर्भावे व्यभिचार हइवे । विद्युत् अपौरुषेय किन्तु ताहा अमूर्त्त नहे ||४०-४३॥ व्यतिरेकसिद्धतद्व्यतिरेकाः परमाण्विद्रियसुखाकाशवत् विपरीतव्यतिरेकश्च यन्नामूर्त तन्नापौरुषेयं ॥ ४४|४५ || हिंदी -व्यतिरेकदृष्टांताभासकै तीन भेद है साध्य व्यतिरेकविकल, साधनव्यतिरेकविकल एवं साध्य साधन उभय व्यतिरेक विकल । यथा - शब्द अपौरुषेय है क्योंकि अमूर्त है इस उक्त उदाहरणमें ही साध्य व्यतिरेक विकल दृष्टांत है क्योंकि अपौरुषेयत्व रूपसाध्यका व्यतिरेक ( अभाव ) पौरुषेयत्व होता है और वह परमाणुर्मे नहिं रहता । साधन Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंदीबंगानुवादसहितंपरीक्षामुखं । ६७ का दृष्टांत स्वरूप यह प्रत्यक्षबाधित आकंचित्करहेत्वाभासका उदाहरण है ) तथा यह अकिंचित्कर हेत्वाभासकास्वरूप वही निर्दिष्ट होता है जहां हेतुके लक्षणकी छानबीन की जाती है वादकाल में नहिं क्योंकि वाद में यदि व्युत्पन्न द्वारा दुष्टपक्षका प्रयोग हो जायेगा तो उस पक्षके दुष्ट होनेसे उसका प्रयोग भी दुष्ट ही समझा जायगा ॥३५॥३६॥३७॥३८॥३९॥ बंगला-ये साध्य स्वयंसिद्ध वा प्रत्यक्षादि बाधित ऐ साध्येर सिद्धिर जन्य हेतु प्रयोग कारले ताहाते कोन फलइ हयना सुतरां ताही आकिंचित्करहेत्वाभास कथित हय । 'येमन शब्द श्रवणमाह्य कारण उहा शब्द' । ऐ स्थल शब्देर श्रावणत्व स्वयंसिद्ध उहा साधन कारते हेतु प्रयोग व्यर्थ सुतरां उहाके अकिंचित्कर कहा याय । प्रत्यक्षादि बाधितस्थल आकिंचित् कर हेत्वाभास येमन 'अग्नि शीतल केनना उहा द्रव्य येमन जैसे', एस्थल अग्निर शैत्य प्रत्यक्षवाधित हओयाय हेतु प्रयोग द्वाराय ओ इहा सिद्ध हयना सुतरां ऐ स्थल हेतु प्रयोग अकिंचित्करहेत्वाभास हइल । एइ अकिंचितकर हेत्वाभास दोष चतुर लक्षण निरुपण कालेइ निदिष्ट हय, वांदकाले नहे, कारण वादकाले व्युत्पन्न लोक द्वारा यदि दुष्ट पक्षेर उल्लेख हय तबइ ताहार प्रयोग ओ दुष्ट पूमाणित हय ॥३५॥३९॥ दृष्टांताभासा अन्वयेऽसिद्धसाध्यसाधनोभयाः। अपौरुषेयः Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ सनातनजैनग्रंथमालायां । हय किन्तु ऐ स्थल प्रथमे साधनाभाव परे साध्याभाव बला हइयाछे ॥३४॥४५॥ ___ बालप्योगाभासः पंचावयवेषु कियद्धीनता। अग्निमानयं देशो धूमवत्त्वात् यदित्थं तदित्थं यथा महानसः । धूमवांश्चायमिति वा । तस्मादग्निमान् धूमवांश्चायं । स्पष्टतया प्रकृता पूतिपचेरयोगात् ॥४६॥४७॥४८॥४९॥५०॥ हिंदी-उपयुक्त प्रतिज्ञा हेतु आदि पांच अवयवोंमें यदि एक भी अवयव कम होगा तो वह वालप्रयोगाभास कहा जायगा । जिस प्रकार इस देशमें अग्नि है क्योंकि यहां धूम दीखता है जहां धूम होता है वहां नियमसे आग्न होती है जैसा रसोईघर, यहां पर प्रतिज्ञा हेतु और उदाहरण इन तीन ही अवयवोंका उल्लेख किया गया है इसलिये यह वाल प्रयोगाभास है । अथवा इन्ही तीन अवयवोंके साथ 'वैसा यह भी धूमवाला है' यह चतुर्थ अवयव (उपनय) जोड़ कर चार अवयवोंका उल्लेख भी वालप्रयोगाभास है । तथा होना तो चाहिये दृष्टांतके पीछे उपनय और उसके पीछे निगमनका प्रयोग, किंतु वैसा न कर उल्टाप्रयोग-अर्थात् पहिले निगमनका और पीछे उपनयका प्रयोग करना भी वालप्रयोगाभास है जैसा-इसीलिये यह अग्निवाला है। और यह भी धूमवाला है (यहां पर पहिले निगमनका प्रयोग और पीछे उपनयका प्रयोग Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंदीबंगानुवादसहितपरीक्षामुखं । ६९ किया गया है) क्योंकि उपर्युक्त अवयवोंसे निस्संशय साध्य का ज्ञान नहिं होता ॥४६॥४७॥५८॥४९॥ बंगला-उपयुक्त प्रतिज्ञा हेतु आदि पञ्च अवयवेर मध्ये यदि एकटी ओ कम हय तवे उहा वालप्रयोगाभास वलिया कथित हय । येमन एइ देश अग्नि आछे केनना एस्थाने धूम देखा याइछे यखाने धूम याके सेखाने निश्चितइ अग्नि थाके येमन महानस (पाकशाला) । एखाने प्रतिज्ञा हेतु उदाहरण एइ तिन अवयवेर उल्लेख करा हइयाछे एइजन्य इहाबाले प्रयोगाभास । अथवा एइ तिन अवयवेर सहित एइ स्थाने ओ धूमयुक्त एड् चतुर्थ अवयव (उपनय) संयुक्त करिले ओ उहा वालप्रयोगाभास हइवे । दृष्टान्तेर पर उपनय तत् पश्चात् निगमनेर उल्लेख करा रीतिसंगत कोनओ ताहा नाकरिया विप रीत भावे प्रथम निगमन ओ तत्पर उपनयेर उल्लेख करा हय तव ताहा ओ वालप्रयोगभास हइवे । यथा ' एजन्य इहा आग्निमति' एइ निगमन वलिया यदि पर ' इहाधूमयुक्त एइ विपरीतभावे वलाते एइ स्थाने अवयव द्वारा निःसंशयितरूप साध्येर ज्ञान हइलना ॥४६॥५९॥ . रागद्वेषमोहाकांतपुरुषवचानाज्जातमागाममागमाभासं । यथा नधास्तीरे मोदकराशयः संति धावध्वं माणवकाः । अगुल्यन हस्तियूथशतमस्ति इति चाविसंवादात् ॥५१॥५२॥५३॥५४॥ हिंदी-जो आगम रागी द्वेषी और मोहीपुरुषके वचनसे Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० सनातनजैनग्रंथमालायां । उत्पन्न हो उसे आगमाभास कहते हैं जैसा बालको दौड़ो नदीके किनारे बहुतसे लाडू रक्खे हैं। तथ अंगुलीअग्रभागमें सैकड़ो हाथियोंका समूह रहता है। क्योंकि रागी द्वेषी आदिके बचनों में विसंवाद अर्थात् पदाथका वास्तविक ज्ञान नहिं होता। ____बंगला--ये आगम रागी द्वेषी अथवा मोही व्यक्तिद्वारा जनित ताहा आगमाभास । येमन वालको नदी तीरे मोदकराशि आछे शीघ्र दौड़ाइया याओ, वा अंगुलिर अग्रभागे हस्तिशत शत रहियाछे एसकते आगमास, केनना रागीद्वेषरि कथाद्वारापदार्थर वास्वविक ज्ञान हयना ॥५२॥५४॥ प्रत्यक्षमेवैकं घमाणमित्यादिसंख्याभासं । लौकायतिकस्य प्रत्यक्षतः परलोकादिनिषेधस्य परवुध्यादेश्चासिद्धरतद्विषयत्वात् । सौगतसांख्ययोगाभाकरजैमिनीयानांपत्यक्षानुमानागमोपमार्थापत्यभावैरेकैकाधिकाप्तिवत् । अनुमानादेस्तद्विषयत्वे प्रमाणांतरत्वं । तर्कस्येव व्याप्तिगोचरत्वे पूमाणांतरत्वं । अपमा णस्याव्यवस्थापकत्वात्। पूतिभासभेदस्य च भेदकत्वात् ॥५५॥ ५६॥५७॥५८॥५९॥६०॥ हिंदी-केवल एक प्रत्यक्ष ही प्रमाण है । इत्यादि कहना संख्याभास है । क्योंकि प्रत्यक्षज्ञान परलोक और परज्ञान आदिका विषय नहिं करता और जो ज्ञान जिसको नहिं जानता वह उसका निषेध और विधान भी नहिं करसकता इसलिये नास्तिकमतमें न परलोकका निषेध हो सकता है और न पर Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंदीबंगानुवादसहितंपरीक्षामुखं । ७१ बुद्धि आदिकी सिद्धि हो सकती है। जैसा कि प्रत्यक्ष अनुमान आगम उपमान अर्थापत्ति और अभाव इन है प्रमाणों में प्रत्यक्ष अनुमान आदिको लेकर एक २ अधिक प्रमाणमानने वाले बौद्ध सांख्य नैयायिक प्राभाकर और ( वैदान्तिको व ) भट्टको प्रत्यक्ष आदिमें अंतर्भूत न होनेसे व्याप्ति ज्ञान जुदा ही मानना पड़ता है एवं व्याप्तिके जुदेमाननेसे 'दोही प्रमाण हैं ' अथवा 'तीन ही प्रमाण है यह उनका कहना संख्याभास कहा जाता है । यदि चार्वाक कहै अनुमानसे पर लोक आदिका निषेध करेंगे तो उसे प्रत्यक्षमें जुदा अनुमान प्रमाण स्वीकार करना पड़ेगा एवं प्रत्यक्षही एक प्रमाण है यह उनका कथन विलकुल संख्याभास सिद्ध हो जायगा । जैसा कि - बौद्ध आदि व्याप्ति की सिद्धिके लिये तर्क एक जुदाही प्रमाण मानते हैं और तर्क मानसे प्रमाण दाही अथवा तीन आदिही है यह कथन उनका संख्याभास समझा जाता है । यदि बौद्ध आदि यह कह तर्कको स्वीकारतो करते हैं परंतु वह प्रमाण नहिं यह भी उनका कथन मिथ्या है क्योंकि जो प्रमाण नहिं माना जाता उससे वस्तु की व्यवस्था कदापि नहिं होसकती यदि तर्क प्रमाण न माना जायगा तो उससे कदापि व्याप्तिकीं सिद्धि नहीं हो सकती । तथा तर्क आदि को प्रमाणमाननेमें दूसरा यह भी हेतु है - कि जिनका प्रतिभास भिन्न २ होता है वे जुदे प्रमाण माने जाते जाते हैं प्रत्यक्ष आदिसे तर्क आदिका प्रतिभास विलक्षण है इस Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ सनातनजैनग्रंथमालायां । लिये प्रत्यक्ष आदिसे तर्क आदि प्रमाण जुदे ही है ॥५५।५६ ५७/५८।५६।६०॥ बंगला-'केवल एक प्रत्यक्षइ प्रमाण' इहा वला संख्या भास । केनना प्रत्यक्षज्ञान परलोक बा परकीयज्ञानके विषय का ना, और याहार ये ज्ञान विषय हयना ताहार सेज्ञानेर विधि वा निषेध करा सम्भव हयना, एइ जन्य नास्तिकमते परलोकेर निषेध हइते पारेना । और परकीय बुद्धि प्रभृतिर सिद्धि हइते पारेना, यमन प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम, उपमान, अर्थापत्ति ओ अभाव एइ छय प्रमाणर मध्ये प्रत्यक्ष अनुमान आदिके निया एक एकटी अधिक प्रमाण स्वीकारकारी वौद्ध, सांख्य, नैयायिक, प्रभाकर ओ जैमिनीयेर मतोक्त प्रत्यक्ष आदिते अंतर्भुक्त ना हओयाय व्याप्तिज्ञानके ओ अतिरिक्त मानिते हइवे, एइरुपे व्याप्तिज्ञानके अतिरिक्त मानिते हइले "दुइटीइ प्रमाण” “तिन टीइ प्रमाण" एकरूप संख्या निर्देश करा ओ संख्याभास हइया दाडाय । यदिचार्वाक वल ये अनुमान द्वारा परलोक प्रभृतिर निषेध करिव तबे ताहार प्रत्याक्षातिरिक्त अनुमान मानिते हय एवं इहा हइले 'प्रत्यक्षइ एकमात्र प्रमाण' ताहार एइ कथाय निश्चयइ संख्याभास हइया परे । एइरुप बौद्धेर ओ व्याप्ति सिद्धिर जन्य अतिरिक्त प्रमाण तक मानित हइवे । उहा मानिले ताहार 'दुइटीइ प्रामाण' एइ कथाते संख्याभास हइल । यदि । वौद्ध प्रभृति वलेन ये तर्क मानि किन्तु उहा प्रमाण नहे तवे Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंदी बंगानुवादसहितं परीक्षामुखं । ७३ ताहा असंगत, केना ये निजे प्रमाण नहे ताहा द्वारा वस्तुव्यवस्था कखन ओ हइते पारेना । तर्क प्रमाण ना हइते तद्द्द्वारा व्याप्ति सिद्धि कखन ओ संभव नहे । आर तर्क आदिर प्रमाणत्वे इहा ओ अपर युक्ति ये याहार प्रतिभास भिन्नरूपे हय ताहा अतिरिक्त प्रमाण रूपे गण्य, प्रत्यक्ष आदि हइते तर्कप्रभृतिर प्रतिभास विलक्षण, सुतरां उहा अतिरिक्त प्रमाण रूपे गण्य हहते पारे ।। ५५-६० ॥ विषयाभासः सामान्यं विशेषो द्वयं वा स्वतंत्रं । तथाऽप्रतिभासनात् कार्याकरणाच्च । समर्थस्य करणे सर्वदोत्पत्तिरनपेक्षत्वात् । परापेक्षणे परिणामित्वमन्यथा तदभावात् । स्वयमसमर्थस्याकारकत्वात्पूर्ववत् ।।६१।६२।६३।६४।६५॥ हिंदी —- प्रमाणका विषय केवल सामान्यही है अथवा विशेष है वा सामान्य और विशेष दोनों प्रमाणके स्वतंत्र विषय हैं यह कहना विषयाभास है । क्योंकि पदार्थमें केवल सामान्य आदि मालूम नहिं पड़ते और केवल सामान्य आदि से कोई अर्थक्रिया भी नहीं बन सकती । कहोगे - केवल सामान्य आदिके माननेसे भी अर्थक्रिया हो जाती है तो वहांपर दो प्रश्न उपस्थित होते हैं - समर्थ होकर केवल सामान्य आदि क्रिया करते हैं कि असमर्थ ? यदि समर्थ होकर कार्य करते हैं तो हमेशह कार्यकी उत्पत्ति होनी चाहिये क्योंकि केवल सामान्य आदि कार्यकरनेमें किसी दूसरेकी अपेक्षा नहिं Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ सनातनजैनग्रंथमालायांरखते । यदि सामान्य आदि कार्यकरनेमें सहकारीकी अपेक्षा करेंगे तो वे परिणामी ठहरेंगे क्योंकि वे सहकारी कारणोंकी सहायता विना अकेले कार्य नहिं करते किंतु उनकी सहायता से करते हैं, यह बात बिना परिणामी माने बन नहीं सकती यदि कहोगे कि-असमर्थ होकर सामान्य आदि कार्य करते हैं तो यह ठीक नहीं । क्योंकि जो असमर्थ है वह जैसा सहकारी कारणोंके आगमनके पूर्व कुछ नहिं करसकता उसीप्रकार सहकारी कारणोंके मिलनेपर भी कुछ नहिं कर सकता, सामान्य आदि भी असमर्थ माने हैं इसलिये वे भी कुछ काम नहिं कर सकते ॥ .. बंगला-प्रमाणेर विषय केवल सामान्यइ हय वा केवल विशेषइ हय अथवा सामान्य विशेष उभयइ स्वतंत्र प्रामाणिक विषय हय, इहा बला विषयामास । केनना पदार्थेर मध्ये केवल सामान्य प्रभृतिर भान हय ना । आर केवल सामान्य आदिर द्वारा कोन अर्थक्रियाओ हइते पारे ना । यदि वल केवल सामान्य आदि मानिलेओ अर्थक्रिया हइया याय तब से स्थले दुइटी प्रश्न-एइ ये केवल सामान्य आदि समर्थ हइया अर्थक्रिया करे, नाकि असमर्थ हइया ? यदि समर्थ हइया कार्य करे तवे सर्वदा कार्योत्पत्ति हउक । केनना केवल सामान्य आदि द्वारा कार्य कस्तेि त आर द्वितीय किछुर अपेक्षा नाइ । यदि अन्य सहकारीर अपेक्षा करे, ताहा हइले उहा परिणामी Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंदीबंगानुवादसहितं परीक्षामुखं । ७५ विवेचित हइवे केनना सहकारी कारणेर सहायता छाडा कार्य करे ना एवं सहकारीर सहायतार्य करें, एइ. कथा परिणाम स्वीकार ना करिले बला याइते पारे ना । यदि बल ये असमर्थ हइया सामान्य आदि कार्य करे तवे ताहाओ युक्तियुक्त हइल ना । कारण ये असमर्थ, से येमन सहकारी कारणेर संघटनेर पूर्वे किछु करिते पारे ना, तेमन सहकारी कारणेर संघटनेर परेओ किछु करिते पारिबे ना, सामान्य आदि असमर्थ हइले से कोन भावेइ काज करिते पारिबे ना ॥ ६२-६५॥ ____ फलाभासं प्रमाणादभिन्न भिन्नमेव वा । अभेदे तव्यवहारानुपपत्तेः । व्यावृत्त्यापि न. तत्कल्पना फलांतराद् व्याहत्त्याऽफलत्वप्रसंगात् । प्रमाणांतराद् व्यावृत्त्येवाप्रमाणत्वस्य । तस्माद्वास्तवो भेदः । भेदे त्वात्मांतरवत्तदनुपपत्तेः समवायेऽतिप्रसंगः ॥६६।७७७८१६६७०७१।७२॥ हिंदी-प्रमाणसे फल भिन्न ही है अथवा अभिन्न ही है यह कहना फलाभास है । यदि प्रमाणसें फलका सर्वथा अभेद ही मानलिया जायगा तो यह प्रमाण है और यह फल है ऐसा व्यवहार ही न बन सकेगा, यदि यहां पर यह कहा जाय कि अभेद मानने पर भी अफलकी व्यावृत्तिसे फलकी कल्पना हो जायगी जैसा कि बौद्ध मानते हैं सो भी ठीक नहीं क्योंकि अफलकी व्यावृत्तिसे फलकी कल्पनाकी तरह दूसरे किसी समानजातीय फलकी व्यावृत्तिसे सर्वथा अफलकी ही कल्पना Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ सनातनजैनग्रंथमालायां हो जायगी जैसा कि बौद्ध-समानजातीय दूसरे प्रमाणकी व्यावृत्तिसे अप्रमाण स्वीकार करते हैं। एवं सर्वथा अफलकी कल्पनासे फल भी संसारमें कोई पदार्थ है यह बात ही सिद्ध न हो सकैगी, इसलिये मानो कि प्रमाण और फलका भेद वास्तव भेद है। यहां पर भी सर्वथा भेद नहिं कह सकते क्योंकि यदि सर्वथा भेद मान लिया जायगा तो जैसा दूसरे आत्माके प्रमाणका फल हमसे भिन्न है उसीप्रकार हमारी आत्माके प्रमाणका फल भी हमसे भिन्न पड़ जायगा और ऐसी स्थितिमें वह फल हमारे ही प्रमाणका है यह बात नहिं बन सकती । कहोगे कि--यद्यपि प्रमाण और फल भिन्न हैं तथापि समवायसंबंधसे जिस आत्मामें प्रमाण रहेगा फल भी समवायसंबंधसे उसीमें रहेगा सो भी ठीक नहीं, क्योंकि समवाय माननेपर भी अतिप्रसंग दोष आता है अर्थात् समवायको एक नित्य और व्यापक माना गया है इस लिये इसी आत्मामें प्रमाण व फल समवाय संबंधसे रहता है इस दूषणका निवटेरा नहिं हो सकता ॥६६-७२॥ बंगला-प्रमाण हइते फल भिन्न वा अभिन्न इहा बला फलाभास । यदि प्रमाण हइते फलेर सर्वथा अभेद मानिया लओया जाय तबे उहाओ प्रमाणइ हइया पडिल, सुतरां फल बलिया बला असंगत । ए स्थले बौद्धेर मत यदि बलि ये अभेद हइलेओ अफलेर. व्यावृत्तिरूप फलेर कल्पना हइबे, ताहा ओ ठिक नहे, केनना अफल व्यावृत्ति द्वारा फलेर कल्पनार Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंदीबंगानुवादसहितं परीक्षामुखं । ७७ मत द्वितीय आर एकटी समान जातीय फलेर व्यावृत्तिद्वारा अफलेरओ कल्पना करा याय । येमन बौद्ध समानजातीय प्रमाणेर व्यावृत्तिद्वारा अप्रमाण स्वीकार करेन । आर सर्वथा अफल कल्पना करिले जगते फल नामक जिनिस आछे इहाइ सिद्ध हइबे ना । एजन्य प्रमाण ओ फलेर भेद वास्तव भेदइ बलिते हइबे किंतु एखाने सर्वथा भेदओ वला याय ना केनना यदि सर्वथा भेद मानिया लओया याय तबे येमन द्वितीय आत्मार प्रमाणेर फल आमा हइते भिन्न, सेरूप आमार आत्मार प्रमाणफलओ आमाहइते भिन्न हइया पड़े । आर एइ रीतिते. 'ऐ फल आमारइ प्रमाणेर फल' इहा बलाओ अशक्य हइया उठिवे । बलिते पार ये ' यदिओ प्रमाण ओ फल भिन्न, तथापि समवाय संबंधे ये आत्माते प्रमाण थाकिबे सेइ आत्मातेइ समवायसंबंधे फलओ थाकिवे ।' ए कथाओ ठिक नहे केनना समवाय मानिलेओ अतिप्रसंग दोष हय अर्थात् समवायके एक नित्य ओ व्यापक माना हइया छे । सुतरां एइ आत्माते प्रमाण वा फल समवाय संबंधे थाके एइ दोषेर निवृत्ति हइते पारे ना ॥ ६६-७२ ॥ प्रमाणतदाभासौ दुष्टतयोद्भाषितौ परिहृतापरिहृतदोषौ वादिनः साधनतदाभासौ प्रतिवादिनो दूषणभूषणे च ॥७३॥ हिंदी-प्रथम वादीने प्रमाणका प्रयोग किया और प्रतिबादीने उस प्रमाणको दुष्ट बनादिया उससमय यदि वादी प्रति Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ सनातनजैनग्रंथमालायां वादी द्वारा दिये दोषको हटा देता है तब तो वह प्रमाण वादीकेलिये साधन और प्रतिवादीके लिये दूषण है । तथा वादी पहले साधनाभासका प्रयोग कर और प्रतिवादी उसे दुष्ट बनादे एवं पीछे वादी उस दोषको न हटा सके तो वह साधनाभास वादीके लिये दूषण और प्रतिवादीकेलिये भूषण हो जाता है। यही स्वपक्षके साधन और परपक्षके दूषणकी व्यवस्था है ॥७३॥ ___बंगला-प्रथम वादी प्रमाणेर प्रयोग करिल, परे प्रतिवादी ऐ प्रमाणेर दोष देखाइल, ऐ समय यदि वादी प्रतिवादी कथित दोषेर निराकरण करिते पारेन तबेइ ऐ प्रमाण वादीर पक्षेर साधक एवं प्रतिवादीर दूषण हइबे । आर यदि वादी प्रथम साधनाभासेर प्रयोग करे, परे प्रतिवादी ऐ साधनाभासेर दोष देखाइया देय वादीओ यदि प्रतिवादिदर्शित दोषेर उद्धार ना करिते पारे तबे वादीर पक्षे ऐ साधनाभास दृषण एवं प्रतिवादीर पक्षे भूषण हइया याय । इहाइ स्वपक्षसाधन ओ परपक्षदूषणेर व्यवस्था ॥ ७३ ॥ संभवदन्यद्विचारणीयं ॥ ७४ ॥ हिंदी-इसप्रकार इसग्रंथमें प्रमाण प्रमाणाभासादिका लक्षण कह दिया गया इनसे अतिरिक्त नय और नयाभास आदिका स्वरूप है वह भी दूसरे २ ग्रंथोंसे विचारपूर्वक जान लेना चाहिये ॥ ७४ ॥ ___ वंगला-एइ प्रकारे एइ ग्रंथे प्रमाण ओ प्रमाणभासा Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंदीबंगानुवादसहितं परीक्षामुखं । ७९ दिर लक्षण बला गेल, इहा हइते अतिरिक्त नय ओ नयाभासादिर स्वरूप याहा आछे ताहाओं अन्यान्य ग्रंथ हइते विचारपूर्वक जानिया लइवे ॥ ७४ ॥ . परीक्षामुखमादर्श हेयोपादेयतत्त्वयोः। संविदे मादृशो बालः परीक्षादक्षवदव्यधां ॥ १ ॥ इति परीक्षामुखं समाप्तं । हिंदी-परीक्षा प्रवीणमनुष्यकी तरह मुझ बालकने हेय ( त्यागने योग्य) उपादेय (ग्रहणकरने योग्य ) तत्त्वोंको अपने सरीखे बालकोंको उत्तमरीतिसे समझानेके लिये दर्पणके समान इस परीक्षा मुखग्रंथकी रचना की है । अर्थात् परीक्षाकुशल मनुष्यं जैसा प्रारंभ किय कामको पूर्णकरके मानता है उसीप्रकार मैंने इसे पूर्ण किया है । तथा दर्पण जैसा अच्छे बुरे सब पदार्थों का प्रकाशक है उसीप्रकार यह ग्रंथ भी हेयोपादेय बुरे पदार्थोंका बतलानेवाला है । इस प्रकार परीक्षामुखसूत्रोंका बालावबोध हिन्दी अनुवाद समाप्त हुवा ॥ बंगला- आमि परीक्षाप्रवीण मनुष्येर मत हेय (त्याज्य) ओ उपादेय (ग्राह्य) तत्त्वेर ज्ञानदान करिवार अभिप्राये मंदबुद्धिर जन्य आदर्शभूत एइ परीक्षामुख ग्रन्थेर रचना करिलाम । अर्थात् परीक्षा कुशल पंडित येमन प्रारब्ध कार्येर पूर्णता संपादन करे, सेइरूप आमिओ एइ ग्रंथ संपादन कार्य संपन्न Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० सनातनजैनग्रंथमासायां करिलाम । दर्पण येमन सब पदार्थेर स्वरूप प्रकाशक सेइरूप एइ ग्रंथओ सदसत् पदार्थेर निर्णायक हइवे ॥ इति परीक्षामुख सूत्रेर बंगानुवाद समाप्त हइल । Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृतप्रवेशिनी। विदित हो कि वर्तमानके समस्त विद्वानोंने निश्चय किया है कि जबतक प्राचीन संस्कृत साहित्यका पुनरुद्धार व प्रचार न होगा तबतक हमारे देशकी, समाजकी उन्नति होना दुःसाध्य है। इसलिये अनेक विद्वान संस्कृत साहित्यके प्रचारार्थ प्राचीन कठिन साधनोंकी जगह नये 2 ढंगकी पुस्तकें रच रच कर संस्कृत साहित्यकी उन्नति करनेमें लगे हैं भारतीयजैनसिद्धांत प्रकाशिनी संस्था व जैनमित्रमंडलीने भी संस्कृत विद्याकी उन्नति करनेवाले नये 2 ग्रंथ प्रकाशित करनेका प्रयत्न करना प्रारंभ किया है। अनेक महाशय प्राचीन व्याकरणोंकी पद्धतिको क्लिष्ट व रटंत विद्या समझकर संस्कृतविद्या पढनेमें पश्चात्पद हो जाते हैं इसलिये संस्कृतमें सुगमतासे प्रवेश करानेकेलिये हमने आजतक छपेहुये समस्त व्याकरण संबंधी ग्रंथोंका मंथन करके यह संस्कृतप्रवेशिनी नामकी पुस्तक नवीन पद्धतिसे बहुत ही सुगमरीतिसे बनवाकर प्रकाशित की है। इसके पढने में व्याकरणके कठिन सूत्र व नियमादि कुछ भी रटने नहिं पडते / इसमें आये हुये कुछ शब्द व धातुओंका अर्थ मनन करने मात्रसे ही संस्कृतमें अनुबाद करना, संस्कृत भाषामें वार्तालाप करना व संस्कृत काव्योंका पठनपाठन बहुत ही सुगम हो जाता है / विशेषता इसमें यह है कि क्या लड़के क्या स्त्री क्या वृद्धपुरुष सब ही बिना गुरुके इसे पढकर संस्कृत साहित्यमें प्रवेश कर सकते हैं। _जिनको संस्कृतमें वार्तालाप, संस्कृतसे भाषा व भाषासे संस्कृतमें अनुबाद करना वा संस्कृतके बडे 2 काव्य पढने हों अथवा बंगाल बिहार उडीसा आदि संस्कृत यूनिवर्सिटियोंमें व्याकरण काव्यकी मध्यमा परीक्षा देना हो तथा संस्कृतके साथ इंट्रेस एफ्. ए० बी० ए० परीक्षा देना हो, वे सबसे पहिले इस पुस्तकको पढ लें, उनके लिये संस्कृतकी ये सब परीक्षायें सुगम हो जायगी / मूल्य प्रथम भागका 1) रु. दूसरे भागका 1) रु० मिलनेका पतामैनेजर-जैन मित्रमंडली, पो० बाघबाजार, कलकत्ता।