Book Title: Pariksha Mukham
Author(s): Manikyanandisuri, Gajadharlal Jain, Surendrakumar
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Samstha
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सनातनजैनग्रंथमालायां- .
बंगला-व्याप्तिपूर्वक धर्मीते हेतुर निःसंशय अस्तित्वेर वर्णनके उपनय बले । यथा- ( तथाचायं धूमवान् ) सेरूप एटीओ धूमवान् ॥ ५० ॥
प्रतिज्ञायास्तु निगमनं ॥ ५१ ॥ हिंदी-धर्मी में साध्यकी मोजूदगीका सर्वथा निश्चय करना निगमन है यथा-( तस्मादयं वह्निमान् ) इसीलिये यह अमिवाला है ॥ ११ ॥
बंगला-धर्मीर मध्ये साध्यास्तित्वके सर्वथा निश्चय कराके निगमन बले । यथा ( तस्मादयं वह्निमान् ) एइजन्यइ ए अग्निमान् ॥ ५१ ॥
तदनुमानं द्वेधा ॥ ५२ ॥ स्वार्थपरार्थभेदात् ॥५३॥ स्वार्थमुक्तलक्षणं ॥५४॥ परार्थ तु तदर्थपरामार्शवचनाज्जातं ।। ५५॥
हिंदी-स्वार्थानुमान और परार्थानुमानके भेदसे अनुमान दो प्रकार है । दूसरेके विना ही कहे ( अपने आप ) साधनसे साध्यका ज्ञान होना स्वार्थानुमान है । तथा स्वार्थानुमानके विषयभूत हेतु और साध्यको अवलंबन करनेवाले वचनोंसे उत्पन्न हुए ज्ञानको परार्थानुमान कहते हैं ॥५२॥५३॥५४॥५५॥
बंगला-स्वार्थानुमान एवं परार्थानुमानभेदे अनुमान दुइ प्रकार । अपरेर द्वारा प्रकाश ना हइया स्वयं साधनद्वारा साध्येर ज्ञान हओयाके स्वार्थानुमान बले । एवं स्वार्थानुमानेर विषयभूत हेतु ओ साध्येर अवलंबन कारक वचन द्वारा उद्भूत ज्ञानके पराथोनुमान बला हय ॥ ५२-५३-५४-५५॥