Book Title: Pariksha Mukham
Author(s): Manikyanandisuri, Gajadharlal Jain, Surendrakumar
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Samstha

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Page 20
________________ हिंदीवंगानुवादसहितं परीक्षामुखं । ११ प्रदेश उस प्रदेशसे दूर है, यह वृक्ष है 'जो हमने सुना था' इत्यादि अनेकप्रकार प्रत्यभिज्ञान होता है ॥५-१० ॥ बंगला--प्रत्यभिज्ञान नामक परोक्षज्ञान प्रत्यक्ष ओ स्मृतिर साहाय्ये हय एवं इहा सेई, इहा ताहार सदृश, इहा ताहा हइते विलक्षण, इहा ताहा हइते दूर, इहा वृक्ष इत्यादि नाना प्रकार हइया थाके । यथा-इनि सेइ देवदत्त । ए सेइ गोसदृश । एइ महिष गरु हइते विलक्षण । एइ प्रदेश से प्रदेश हइते दूर । ए 'सेइ' वृक्ष याहा आमि सुनिया छिलाम इत्यादि अनेक प्रकार प्रत्याभज्ञान हइया थाके ॥ ५-६-७-८-९-१० ॥ उपलंभानुपलंभनिमित्तं व्याप्तिज्ञानमूहः ॥११॥ इदमस्मिन्सत्येव भवत्यसति न भवत्येवेति च॥ १२॥ यथानावेव धृमस्तदभावे न भवत्येवेति च ॥१३॥ हिंदी-उपलब्धि और अनुपलब्धिकी सहायतासे होनेवाले व्याप्तिज्ञानको तर्क कहते हैं और उसका स्वरूप-इसके होते ही यह होता है इसके न होते होता ही नहीं, जैसे-अमिके होते ही धूआं होता है अग्नि के न होते होता ही नहीं ॥११-१२-१३ ॥ ____ बंगला--उपलब्धि ओ अनुपलब्धिर सहायता द्वारा उद्भूत व्याप्तिज्ञानके तर्क बले । अर्थात्-इहा हइलेइ ए हय, इहा ना हहले हइते पारे ना। यथा-अभिर अस्तित्व हइलेइ धूम्र हय, अनि ना हइले कखनओ हय ना ॥ ११-१२-१३ ॥ साधनात्साध्यविज्ञानमनुमानं ॥ १४॥ १ अन्वय २ व्यतिरेक

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