Book Title: Panchashak Prakaranam
Author(s): Dharmratnavijay
Publisher: Manav Kalyan Sansthan

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Page 253
________________ 218 १७-स्थिताऽस्थितकल्पं-पञ्चाशकम् गाथा-५-८ व्याधि रोगम्, अपनयत्यपहरति, भावे सद्भावे सति रोगस्य, शरीरं इति गम्यते / करोति जनयति अभावेऽसद्भावे व्याधेः तकं तु व्याधिं प्रथममिति प्रथमौषधम्, द्वितीयमपनयति व्याधि सद्भावे, न करोत्यपूर्वव्याधिम्, गुणांश्च तृतीयं तु रसायनं भवति व्याधि सन्तं हत्वा, असन्तं चाकृत्वा, गुणमेव निवर्तयति // 4 // दृष्टान्तमभिधाय, दार्टान्तिकप्रतिपादनायाह - एवं एसो कप्पो, दोसाभावेऽवि कज्जमाणो उ / सुंदरभावाओ खलु, चरित्तरसायणं णेओ // 799 // 17/5 एवं तृतीयौषधवद् एष कल्पः स्थितकल्पः, दोषाभावेप्यपराधाभावेऽपि, क्रियमाणस्तु क्रियमाण सन्, सुन्दरभावात् सुन्दरत्वात् / खलुशब्दो वाक्यालङ्कारे, चारित्ररसायनं चारित्रपुष्टिहेतु योऽवगन्तव्यः / / 5 / / (1. रसायणमिव-अटी.) 'दशधौघतः कल्प' इत्युक्तं प्राक्, तद्दर्शनायेदमाह - आचेलकु१ देसिय२ सिज्जायर३ रायपिंड४ किइकम्मे५। वय६ जे?७ पडिक्कमणे८, मासं९ पज्जोसवण१० कप्पो // 800 // 17/6 आचेलक्यम्, औद्देशिकम्, शय्यातरपिण्डः, राजपिण्डः, कृतिकर्म, व्रतानि, ज्येष्ठः, प्रतिक्रमणम्, मासकल्पः, पर्युषवन[षण ]कल्पः // 6 // छसु अद्वितो उ कप्पो, एत्तो मज्झिमजिणाण विण्णेओ / णो सययसेवणिज्जो, अणिच्चमेरासरूवो त्ति // 801 // 17/7 षट्सु स्थानेषु, अस्थितोऽनवस्थितः, तु पुनः कल्प / एभ्यो दशभ्यः, मध्यमजिनानां द्वाविंशतेः जिनानां साधूनां विज्ञेयो ज्ञातव्यो, नो सततसेवनीयो दशस्थानापेक्षया, अनित्यमर्यादास्वरूप इति, तेऽपि कदाचिद् दश स्थानानि पालयन्ति, कदाचिन्नेत्येवमनित्यत्वम् ||7|| 'षट्स्वस्थित' इत्युक्तम्, तान्येव षट्स्थानान्युपदर्शयन् विषयद्वारेणाह - आचेलक्कुद्देसियपडिक्कमणरायपिंडमासेसु / पज्जुसणाकप्पंमि य, अट्ठियकप्पो मुणेयव्वो // 802 // 17/8 आचेलक्यौदेशिकप्रतिक्रमण-राजपिण्ड-मासेषु विषयभूतेषु, पर्युषणाकल्पे च दशाश्रुतस्कन्धान्ततिनि, अवस्थितकल्पो मन्तव्योऽवसेयः // 8 //

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