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[ ७ ] (१३ प्र०-क्या जीव और आत्मा इन दोनों शब्दों का मतलब
उ०-हाँ, जैनशास्त्र में तो संसारी-संसारी सभी चेतनों
के विषय में 'जीव और आत्मा, इन दोनों शब्दों का प्रयोग किया गया है, पर वेदान्त आदि दर्शनों में जीव का मतलब संसार-अवस्था वाले ही चेतन से है, मुक्तचेतन से नहीं, और आत्मा* शब्द तो
साधारण है। (१४)प्र०-आप ने तो जीव का स्वरूप कहा. पर कुछ विद्वानों
को यह कहते सुना है कि श्रात्मा का स्वरूप अनिर्वचनीय अर्थात् वचनों से नहीं कहे जा सकने
योग्य है, सो इस में सत्य क्या है ? उ०-उन का भीकथन युक्त है क्यों कि शब्दों के द्वारा परि
मित भाव ही प्रगट किया जा सकता है । यदि जर्जाव
का वास्तविक स्वरूप पूर्णतया जनना हो तो वह " जीवो हि नाम चेतनः शरीराध्यक्षः प्राणानां धारयिता ।" [ब्रह्मसूत्र भाष्य, पृ० १०६, अ०१, पा० १, १०५, सू० ६ भाष्य।]
अथात्-जीव वह चेतन है जो शरीर का स्वामी है और प्राणों को धारण करने वाला है। . * जसे:-" आत्मा वा अरे श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः" इत्यादिक [बृहदारण्यक ।२१४११]
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