Book Title: Padma Puranabhasha
Author(s): Daulatram Kasliwal
Publisher: Shantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha

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Page 23
________________ १४ पद्म-पुराण जिनके मुख कमल जिनन्द्र के दर्शन के उत्साहसे फूल रहे हैं, सोलह हा स्वर्गीके समस्त देव और भवनवासी व्यन्तर ज्योतिषी सर्व ही आये और कमलायुध आदि यखिल विद्याधर अपनी स्त्रियों सहित आए, वे विद्याधर रूप और विभव में देवोंके समान हैं । तहां समोसरणविषै इन्द्र भगवानकी ऐसे स्तुति करते भये । हे नाथ ! महामोहरूपी निद्रामें सोता यह जगत तुमने ज्ञानरूप सूर्यके उदयसे जगाया । हे सर्वज्ञ वीतराग ! तुमको नमस्कार होहु तुम परमात्मा पुरुषोत्तम हो, संसार समुद्र के पार तिष्ठो हो, तुम बड़े सार्थवाही हो, भव्य जीव चेतनरूपी धनके व्यापारी तुमारे संग निर्वाण द्वीप को जायेंगे तो मार्ग में दोषरूपी चोरोंसे नाहीं लुटेंगे, तुमने मोक्षाभिलाषियोंको निर्मल मोक्षका पंथ दिखाया और ध्यानरूपी निकर कर्म ईनको भस्म किये हैं । जिनके कोई बांधव नाहीं, नाथ नाहीं, दुःख रूपी अग्नि के ताप कर सन्तापित जगत के प्राणी तिनके तुम भाई हो और नाथ हो परम प्रतापरूप प्रगट भये हो, हम तुमारे गुण कैसे वर्णन कर सकें । तुमारे गुण उपमारहित अनन्त हैं, सो केवलज्ञानगोचर हैं इस भांति भगवान् की स्तुति कर अष्टांग नमस्कार करते भये, समोशरण की विभूति देख बहुत आश्चर्यको प्राप्त भये सो संचेपकरि वर्णन करिए हैं— वह समोशरण नानावर्णके अनेक महारल और स्वर्णसे रचा हुवा जिसमें प्रथम रत्नकी धूलि का धूलिसाल कोट है और उसके ऊपर तीन कोट हैं एक एक कोटके चार बार द्वार हैं द्वारे२ अष्ट मंगल द्रव्य हैं और जहां रमणीक वापी हैं सरोवर अद्भुत शोभा धरै हैं, तहां स्फटिक मणिकी भीति (दिवार) करि बारह कोठे प्रदक्षिण रूप बने हैं एक कोठे में मुनिराज हैं दूसरे में कल्पवासी देवोंकी देवांगना हैं तीसरेमें श्राविका हैं चौथेमें जोतिषी देवों की देवी हैं पांचवे में व्यन्तर देवी हैं, छठेमें भवन वासिनी देवी हैं, सातवें में जोतिषी देव है आठवें में व्यंतर देव हैं नवमेमें भवनवासी दशवें में कल्पवासी ग्यारवें में मनुष्य बारवें में तिर्यंच || सर्व जीव परस्पर वैरभाव रहित तिष्ठे हैं। भगवान अशोक वृक्ष के समीप सिंहासनपर विराजे हैं, वह अशोक वृक्ष प्राणियोंके शोकको दूर करे हैं, और सिंहासन नाना प्रकारके रत्नों के उद्यातसे इन्द्र धनुषके समान अनेक रंगांको थरे है, इन्द्रके मुकुटमें जो रत्न लगे हैं, उनकी कांतिके समूहको जीते हैं, वीन लोककी ईश्वरता के चिन्ह जो तीन छत्र उनसे श्रीभगवान शोभायमान हैं और देव पुष्पों की वर्षा करे हैं, चौसठ चमर सिरपर दुरे हैं दुंदुभी बाजे बजे हैं उनकी अत्यन्त सुन्दर ध्वनि होय रही है । राजगृह नगर से राजा श्रेणिक आवते भये । अपना मन्त्री तथा परिवार और नगरनिवासियों सहित समोशरण के पास पहुंचे समोशरणको देख दूरहीसे छत्र चमर वाहनादिक तज कर स्तुतिपूर्वक नमस्कार करते भये पीछे आयकर मनुष्यों के कोठे में बैठे क्रूर, वारिषेण, अभय कुमार, विजयाहु इत्यादिक राजपुत्र भी नमस्कार कर आय बैठे। जहां भगवानकी दिव्य soft खरे है, देव मनुष्य तिर्यंच सबही अपनी अपनी भाषा में समझे हैं। वह ध्वनि मेघके शब्द को जीते है, देव और सूर्य की कांतिको जीतनेवाला भामण्डल शोभे है, सिंहासन पर जो For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International

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