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पांचवां पर्व
श्रीअजितनाथके निकट मुनि होय केवलज्ञान उपाय सिद्ध पदको प्राप्त भए । अथानन्तर एक समय सगाके पुत्र भगीरथ श्रुतसागर मुनिको पूछो भये कि-हे प्रभो ! जो हमारे भाई एक ही साथ म णको प्राप्त भये उनमें मैं वचा । सो किस कारण से वचा । तत्र मुनि बोने कि 'एक सय चतुर्विध संघ वन्दना निमित्त संमेद शिखरको जाते हुये । सो चलते २ अंतिक ग्राममें आय निकसे तिनको देख कर अंतिक ग्रामके लोक दुर्ब वन बोलते भये, हंसने भये, तहां एक कुम्भारने उनको मने करा कर मुनियोंकी स्तुति करी तदनन्तर उस ग्रामके एक मनु ने चोरी करी । राजाने सर्व ग्राम जला दिया उस दिन कुम्हार किसी ग्रासको गया हुता वह ही बचा वह कुम्भार मरकर बणिक भया पर अन्य जे ग्रामो मो थे द्विहन्दी कोड़ी भए। कुम्भारके जीव महाजनने सर्व कौडी खरीदे बहुरि वह मजन मकर राजा भपा, अर कोडी मरकर गिजाई भई, सो हाथीके पगके ता चरी गई । राजा मुने होगकर देव भये, देवसे तू भगीरथ भया अर ग्रामके लोक कैएक भव लेय सगरके पुत्र भये । सो मुनिके संघकी निंदाके पापसे जन्म २ में कुगति पाई अर तू स्तुति करने से ऐसा भया। यह पूर्वभर सुनकर भगीरथ प्रतिरोध को पायकर मुनिराजका व्रतधर परम पदको प्राप्त भये।
अथानन्तर गौतम स्वामी राजा श्रेणिकसे कहे हैं—'हे श्रेणिक ! यह सगरका चरित्र तो तुझे कहा, आगे लंकाकी कथा कहिये हैं सो सुन । महारिक्ष नामा विद्याधर बड़ा सम्पदावर पूर्ण लंकाका नि:कंटक राज करे सो एक दिन प्रम नामा उद्यानमें राजा राजशोक सहित क्रीडाको गये, कैसा है वह प्रमद नामा उद्यान ? ऊचे पर्वतों. महारमणीक है अर सुगन्धित पुष्पोंसे फूल रहे वृक्षों के समूहसे मंडित अर मिष्ट शब्दोंके बोलनहारे पक्षियं के सपूडसे अति पुन्दर है, तहां रत्नोंकी राशि हैं अर अति सघन पत्र पल्लवकर मंडित लताओं ( बेलों ) के मंडासे छा रहा है ऐसे बनमें राजा लोकों सहित नाना प्रकारको क्रीड़ा कर रतिके सागरमें मग्न हुप्रा जैसे नंदन बनमें इन्द्र क्रीड़ा करे तैसे क्रीड़ा करी। . अथानन्तर सूर्यके अस्त भये पीछे कमल संकोचको प्राप्त भए। तिनमें भ्रमरको दबकर मूबा देख राजाके जीमें चिंता उपजी। उस राजाके मोहकी मंदता हो गई पर भवसागरसे पार होनेकी इच्छा उपजी। राजा विचार है कि देखो मकरंदके रसमें आसक्त यह मूढ़ भौंरा गंधसे तत न भया तातें मृत्यु प्राप्त भया । धिक्कार होहु या इच्छाकू जैसे वह कमलके रसका आसक्त मधुकर मूवा, तैसे मैं स्त्रियोंके मुखरूप कमलका भ्रमर हुआ मरकर कुगतिको प्राप्त होऊंगा। जो यह एक नासिका इन्द्रियका लोभी नाशको प्राप्त भया तो मैं तो पंच इन्द्रियोंका लोभी हूं मेरी क्या पात ? अथवा यह चौइन्द्री जीव अज्ञानी भूलै तो भूलै, मैं ज्ञान संपन्न विषयोंके वश क्यों हुआ ? शहतकी लपेटी खड़गकी धाराके चाटनेसे सुख कहा ? जीभ हीके खंड होय हैं तैसे विषय सेवन में सुख कहा ? अनन्त दुःखोंका उपार्जन ही होय है । विषफल तुल्य विषय है उनसे पराङ्मुख हैं तिनको मैं मन वचन कायसे नमस्कार करूं हूं। हाय ! हाय !! यह बड़ा कष्ट है जो मैं पापी घने दिन तक दृष्ट विषयनिकरि ठगाया गया। इन विषयोंका प्रसंग विषम है । विष तो एक भव प्राण हरे
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