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पांचवा पर्व सुव्रत २०, नमि २१, नेमि २२, पार्श्वनाथ २३, महावीर १४, यह सर्व ही देवाधिदेव जिन मार्गके धुरन्धर होंवेंगे। अर सर्वके गर्भावतारमें रत्नोंकी वर्षा होगी सनकेजन्म कल्याणक सुमेरु पर्वतपर क्षीर सागरके जलसे होवेंगे, उपमारहित हैं तेज रूप सुख अरवल जिनके ऐसे सर्व ही कर्म शत्रुके नाश करणहारे अर महावीर स्वामीरूपी मूर्गके अस्त भए पीछे पाखण्डरूप अज्ञानी चमत्कार करेंगे वह पाखण्डी संसाररूप कूपमें आप पडेंगे अर औलोको गेगे। चक्रवर्तियोंमें प्रथम तो भरत भए, दूसरा तू सगर भया, अर तीसरा मघवा, चौथा सनत्कुमार अर पांचवां शांति, छठा कुथु, सातवां अर, आठवां सुभूम, नवा महापद्म, दशवां हरिपेण, ग्यारहयां जयसेन, बारहवां ब्रह्मदत्त, यह बारह चक्रवर्ती अर वासुदेव नव अर प्रतिवासुदेव ६ बलभद्र नव होवेंगे इनका धर्ममें सावधान चित्त होगा यह अवसर्पणीके महापुरुप कहे । इसी भांति उत्सर्पणी में भरत ऐरावतमें जानने । इस भांति महापुरुषोंकी विभूति अर कालकी प्रवृत्ति पर कर्म के वश संसारका भ्रमण पर कर्म रहितोंको मुक्तिका निरुपम सुख यह सर्वकथन मेघवाहनने सुना, यह विचक्षण चित्त में विचारता भया कि हाय ! हाय !! जिन कर्मोये यह मातापको प्राप्त होय है तिन्ही कर्मोको मोह मदिरासे उन्मत्त हुआ यह जीव बांधे है । वह विषय विषवत् प्राणोंके हरण हारे कल्पनामात्र मनोज्ञ हैं । दुःखके उपजावनहारे हैं इनमें रति कहां, इस जीवने धन स्त्री कुटुम्बादिमें अनेक भव राग किया परन्तु वे पदार्थ इसके नहीं हुये यह सदा अकेला संसारमें परिभ्रमण करे है । यह सर्व कुटुम्बादिक तब तक ही स्नेह करे हैं जबतक दानकर उनका सन्मान करे हैं जैसे श्वानके बालकको जब लग ट्रक डारिए लोलग अपना है, अन्तकाल में पुत्र कलत्र बान्धव मित्र धनादिकके साथ कौन गया और यह किसके साथ गए यह भोग काले सर्पके फण समान भयानक हैं, नरकके कारण है । इनमें कौन बुद्धिमान संग करे, अहो यह बड़ा आश्चर्य है। लक्ष्मी ठगनी अपने आश्रितोंको ठगे है इसके समान अर दुष्टता कहां ? जैसे स्वप्नमें किसी वस्तु का समागम होय है तैसे कुटुम्बका समागम जानना अर जैस इन्द्रधनुष क्षणभंगुर है तैसे परिवारका सख क्षणभंगुर जानना । यह शरीर जलके चुदवुदेवत् असार है अर यह जीतव्य विजलीके चमकारवत् असार चंचल है तो सबको तजकर एक धर्म ही का सहाय अंगीकार करू, धर्म कैसा है सदा कल्याणकारी ही है कदापि विघ्नकारी नही अर संसार शरीर भोगादिक चतुरगतिके भ्रमणके कारण हैं महा दुखरूप है ऐसा जानकर उस राजा मेघवाहनने जिसके बकतर महा वैराग्य ही है महारक्ष नामा पुत्रको राज्य देकर भगवान श्रीअजितनाथके निकट दीक्षा धारी, राजाके साथ एकसौ दश राजा वैराग्य पाय घररूप बन्दीखानेसे निकसे ॥
अथानन्तर मेघवाहनका पुत्र महारक्ष राजार बैठा सो चन्द्रा समान दानरूपी किरण के समूहसे कुटुम्घरूपी समुद्रको पूर्ण करता संता लंकारूपो आकाशमें प्रकाश करता भया, बड़े २ विद्याधरोंके राजा स्वप्नमें भी उसकी प्राज्ञाको पाकर आदरसे प्रतिबोध होयकर हाथ जोड नमस्कार करते भए । उस महारक्षके विमलप्रभा राणी होती भई, प्राण समान प्यारी सो सदा राजाकी आज्ञा प्रमाण करती भई । यह राणी मानो छायासमान पतिकी अनुगामिनी है। उसके
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