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पांचवा पर्व सात सौ योजन चौड़ा अर सात सो योजन लम्बा हैं उसके नभ्य- त्रिकूटाचल पर्वत है जो अत्यंत दुष्प्रवेश हैं, शरणकी ठौर है, पर्वतके शिखर सुनेरक शिखर समान मनोहर हैं, श्रर पर्वत नव योजन ऊंचा पचास योजन चौड़ा है नाना प्रकारकी रत्नोंकी ज्योति के समूहकर जडित है सुवर्ण मपी सुन्दर तट हैं नाना प्रकारको बेलोंकर मंडित कल्प वृक्षोंकर पूर्ण है उसके तले तीस योजन प्रमाण लंका नामा नगरी है रत्न अर सुवर्णके महलोंकर अत्यन्त शोभे है जहां मनोहर उद्यान हैं कमलोंसे मंडित सरोवर हैं बड़े बड़े चैत्यालय हैं वह नगरी इन्द्रपुरी समान है, दक्षिण दिशाका मण्डन ( भूषण ) है, हे विद्याधर ! तुम समस्त बांबववर्गकर सहित तहां बसकर सुखसे रहो ऐसा कहकर भीम नामा राक्षसोंका इन्द्र उसको रत्नई हार देता भया । वह हार अपनी किरण से महा उद्यात कर है अर राक्षसनिका इन्द्र सेष हिनका जन्भन्तर विष पिता हुता तार्ने स्नेहकरि हार दिया र राक्षस द्वीप दिया तथा धरतीक बीच में पाताल लंका जिसमें अलंकारोदय नगर छै योजन ओंडा पर एकसो साढ़े इकत्तीस योजन अर डेढकला चौड़ा यह भी दीया, उस नगरमें बैरियों का मन भी प्रवेश न कर सके स्वर्ग समान महामनोहर है। राक्षसोंके इन्द्रने कहा-'कदाचित् तुझे परचक्रका भय हो तो इस पाताल लंकामें सकल वंशसहित सुखसों रहियो, लंका तो राज. धानी अर पाताललंका मा निवारणका स्थान है, इस भांति नाम सुभीमने पूर्णघनके पुत्र मेघबाहन को कहा।
तब मेघवाहन परम हर्ष को प्राप्त भया, भगवान • नमस्कार करके उठा, तब राक्षसोंके इ द्रने राक्षस विद्या दी सो आकाशमाग विधानमें चढकर लंकाको चले, तब स भाइयोन सुना कि मेघवाहन को राक्षांक इन्द्रने अति प्रसन्न हो कर लंका दी है सो समस्त ही बंधु वर्गोंके मन प्रफुल्लित भए जैसे सूगके उदयते समस्त ही कमल प्रफुल्लित होंय तैसे सर्व ही विद्याधर मेधवाहन पै आए, उनसे मण्डित मेघवाहन चले । कै एक तो राजा आगे जाय हैं, कै एक पाछे कै एक दाहिने कै एक बांये, कै एक हाथियों पर चढ़े, कै एक तुरंग (पीछे) पर चढ़े जाय हैं कै एक रथों पर चढ़े जाय हैं कै एक पालकी पर चढ़े जांय है अर अनेक पियादे ही जाय हैं, जय जय शब्द हो रहा है दुन्दुभी बाजे हैं राजा पर छत्र फिर है अर चार दुरे हैं । अनेक निशान (म.ण्डे) चले जाय हैं ! अनेक विद्याधर शास निवावे हैं । इस भांति राजा चलते चलते लवणसमुद्र ऊपर आए, वह समुद्र आकाश समान विस्तीर्ण अर पालाल समान ऊडा तमाल वन समान श्याम है तरंगोंके समूहसे भरा है अनेक मगरमच्छ जिसम कलोल करे हैं उस समुद्र को देख राजा हर्षित भए, पर्वतके अधोभाग में कोट अर दरवाजे पर खाइयों कर संयुक्त लंका नामा महापुरी है तहां प्रवेश किया, लंकापुरी में रत्नोंकी ज्योतिसे आकाश सन्ध्या समान अरुण (लाल) हो रहा है कुन्दके पुष्प समान उज्ज्वल ऊंचे भगवान के चैत्यालयोंसे मण्डित पुरी शोभे है चैत्यालयोंपर ध्वजा फहरा रहे हैं चैत्यालयोंकी वन्दना कर राजाने महलमें प्रवेश किया और भी यथायोग्य घरोंमें तिष्ठे, रत्नोंकी शोभा से उसके मन भर नेत्र हरे गए। ... अथानन्तर किमरगीत नामा नगरमै रतिमयूख राजा अर राणी अनुमती जिनके सुप्रभा
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