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पा-पुराण एक दिन राजा सहस्रशिरस हाथी पकड़नेको वनमें गया । दोनों भाई साथ गये वनमें भगवान केवजी बिरजे हुने तिनके प्रतापसे सिंह मृगादिक जातिविरोवी जीवोंको एक ठौर बैठे देख राजा पाश्चर्यको प्राप्त भया, आगे जाकर केवलीका दर्शन किया राजा तो मुनि होय निर्वाण गये अर यह दोनों भाई मुनि होय ग्यारहवें स्वर्ग गये। वहांसे चयकर चन्द्रका जीव अमरश्रुत तो मेघवाहन भया अर आवलीका जीव घनश्रुा सो सहसनयन भया। यह इन दोनोंके बैरका वृत्तांत है। फिर सगर चक्रवतीने भगवानसे पूछा कि हे प्रभो ! सहस्रनयननों मेरा जो अतिहित है सो इसमें क्या कारण है ? तब भगवानने कहा कि बह पारम्भ नामा गणतशास्त्र का पाठी मुनि गोंको आहारदान देकर देवकुरु भोगभूमि गया। वहांसे प्रथम स्वर्गका देव होकर पीछे चन्द्रपुरमें रजा हरि राणी घरादेवीके प्यारा पुत्र ब्रतकीर्तन भया मुनि पद धार स्वर्ग गया, अर विदेह क्षेत्रमें रत्नसंचयपुर में महाघोष पिता चन्द्राणी माताके पयोबल नामा पुत्र होय मुनिव्रत धार चौधवें स्वर्ग गया। तहांसे चयकर भरतक्षेत्रमें पृथिवीपुर नगरमें यशोधर राजा अर राणी जयाके घर जयकीर्तन नामा पुत्र भया सो पिताके निकट जिन दीक्षा लेकर जिय विमान गया वहांसे चयकर तू सगर चक्रवर्ती भया। आरम्भके भामें प्रावली शिष्यकं साथ तेरा स्नेह हुतां सो अब आधलीका जीव सहस्रनयन तासों तेरा अधिक स्नेह है । यह कथा सुन चक्रवर्तीको विशेष धर्भरुचि हुई र मेघवाहन तथा सहस्रनयन दोनों अपने पिताके पर अपने पूर्व भव श्रवणकर निर्वैर भए परस्पर मित्र भए अर इनकी धर्मविपै अतिरुाचे उपजी, पूर्व भा दोनों को याद आये महा श्रद्धावंत होय भगवानकी स्तुति करते भए, कि-हे न थ ! आप न धनके नाथ हैं । यह संसारके प्राणी महादुःखी हैं, उनको धर्मोपदेश दे र उपकार करा हो तुम्हारा किसीसे कुछ प्रयोजन नाहीं । तुम निःकारण जगतके वंधु हो। तुम्हारा रूप उपमारहित है अर अप्रमाण बलके धारणहारे हो, इस जगत में तुम समान
और नहीं है तुम पूर्ण परमानन्द हो कृतकृत्य हो, सदा सर्वदर्शी सर्वके वल्लभ हो । किसीक चिंतवनमें नहीं आते हो, जाने हैं सर्व पदार्थ जिनने, सबके अन्तर्यामः सर्वत्र जगतके हितु हो, हे जिनेन्द्र ! संसाररूप अन्धकूपमें पड़े यह प्राणी इनो धर्मोपदेशरूप हस्तावलम्बन ही हो इत्यादिक वहुत स्तुति करी अर यह दोनों मेघवाहन अर सहस्रनयन गदगद बाणी होय अश्रुपातकर भीग गये हैं नत्र जिनके परम हर्षको प्राप्त भये अर विधिपूर्वक नमस्कार कर तष्ठे, सिंहवार्यादिक मुनि इन्द्रादिक देव सगरादिक राजा परम आश्चर्य प्राप्त भये ।
अथानन्तर भगवानके समोशरणमें राक्षसोंका इन्द्र भीम अर सुभीम मेघवाहन से प्रसन्न भए अर कहते भए कि हे विद्याधरके बालक मेघवाहन ! तू धन्य है जो अजितनाथकी शरणमें आया, हम तेरेपर अति प्रसन्न भए हैं हम तेरी स्थिरताका कारण कहे हैं तू मुन, लषणसमुद्रमें अत्यन्त विषम महारमणीक हजारों अन्तर द्वीप हैं लवणसमुद्र में मगर मच्छादिकके समूह बहुत है अर विन अन्तर द्वीपों में कहीं तो गंधर्व क्रीडा करे हैं कहीं किन्नरोंके समूह रमे हैं कही यक्षोंके समूह कोलाहल करे हैं कहीं किंपुरुष जाविक देव केलि करे हैं उनके मध्यमे राक्षस द्वीप है जो
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