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पांचवां पर्व शिखनामा पुरोहित भया, वह महा दुष्ट अकार्यका करणे वाला आपको सत्यघोष कहा- परन्तु महाझूठा अर परद्रव्यका हरण हारा, उसके कुकर्मको कोई न जाने, जगतमें सत्यवादी कहावे, एक नमिदत्त सेठके रत्न हरे, राणी रामदत्ताने जूवामें पुरोहितकी अंगूठी जीती अर दासीके हाथ पुरोहितके घर भेजकर रत्न मंगाए अर सेठको दिये, राजाने पुरोहितको तीव्र दण्ड दिया, वह पुरोहित मरकर एक भवके पश्चात यह विद्याधरोंका अधिपति भया अर राजा मुनिव्रत धारकर देव भये, कई एक भवके पश्चात् यह हम संजयंत भए सो इसने पूर्वभवके प्रसंगसे हमको उपसर्ग किया। यह कथा सुन नागेन्द्र अपने स्थानको गये ॥
अथानन्तर उस विद्याधरके दृढ़रथ भए उसके अश्ववर्मा पुत्र भए उसके अश्वाय उसके अश्वध्वज उसके पद्मनाभि उसके पद्ममाली उसके पद्मरथ उसके सिंहयान उसके मृगधर्मा उसके मेघास्त्र उसके सिंहप्रभु उसके सिंहकेतु उसके शशांक उसके चन्द्राह उसके चन्द्रशेखर उसके इन्द्ररथ उसके चंद्ररथ उसके चक्रधर्मा उसके चक्रायुध उसके चक्रध्वज उसके मणिग्रीव उसके मण्यंक उसके मणिभासुर उसके मणिरथ उसके मन्यास उसके बिम्बोष्ठ उसके लंबिनाधर उसके रक्तोष्ठ उसके हरिचन्द्र उसके पूर्णचन्द्र उसके बालेन्द्र उसके चन्द्रमा उसके चूड़ उसके ब्योमचन्द्र उसके उडपानन उसके एचूड़ उसके द्विचूड़ उसके त्रिचूड़ उसके वज्रचूड़ उसके भूरिचूड़ उपके अर्कचूड़ उसके वन्हिजटी उसके चन्हितेज इस भांति अनेक राजा भए । तिनमें कई एक पुत्रको राज देय मुनि होय मोक्ष गए । कई एक स्वर्ग गए कई एक भोगायक्त होय वैरागी न भए ते नारकी तिर्यव भए इस भांति विद्याधरका वंश कहा। आगे द्वितीय तीर्थकर जो अजितनाथ स्वामी उनकी उत्पत्ति कहे हैं
जब ऋषभदेवको मुक्ति गए पचास लाख कोटि सागर गए, चतुर्थकाल आधा व्यतीत भया, जीवोंकी आयु पराक्रम घटते गये जगतमें काम लोभादिककी प्रवृत्ति बढ़ती भई तर इक्ष्वाकु कुलमें ऋषभदेव ही के वंशमें अयोध्या नगरमें राजा धरणीधर भए उनके पुत्र त्रिदशजय देवोंके जीतनेवाले उनके इन्दुरेखा राणी उसके जितशत्र पुत्र भया, सो पोदनापुरके राजा भव्यानंद उनके अम्भादमाला राणी उसकी पुत्री विजया वह जितशत्रुने परणी । जितशत्रुको राज देयकर राजा त्रिदशजय कैलास पर्वत पर निर्माणको प्राप्त भए, राजा जितशत्रु की राणी विजयादेवीके श्रीअजितनाथ स्वामी भए उनका जन्माभिषेकादिकका वर्णन ऋषभदेववत् जानना जिनके जन्म होते ही राजा जितशत्र ने सर्व राजा जीते इसलिये भगवानका अजित नाम धरा। अजितनाथके सुनया नन्दा अादिक स्त्री भई, जिनके रूपकी समानता इन्द्राणी भी न कर सके । एक दिन भगवान अजितनाथ राजलोक सहित प्रभात समयमें ही वनक्रीडाको गये, कमलोंका वन फूला हुवा देखकर सूर्यास्त समय उस ही वनको सकुचा हुआ देखा सो लक्ष्मीकी इस भांति अनित्यता मानकर परम वैराग्यको प्राप्त भए, माता पितादि सर्व कुटुम्बसे क्षमाभावकर ऋषभदेवकी भांति दीक्षा थरी, दस हजार राजा साथ निकसे, भगवानने वेला पारणा अंगीकार करा ब्रह्मदत्त राजाके घर आहार लिया चौदह वर्ष तप करके केवलज्ञान उपजाया। चौंतीस अतिशय तथा आठ
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