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चौथा पत्र विद्याधरोंकी दक्षिण श्रेणीकी जो पचास नगरी हैं उनमें रथनपुर मुख्य है पर उत्तर श्रेणीकी जो साठ नगरी हैं उनमें अलकावती नगरी मुख्य है । कैसा है वह विद्याधरनिका लोक स्वर्ग लोक समान है सुख जहां सदा उत्साह ही प्रवृत्ते हैं, नगरीके बड़े बड़े दरवाजे, अर कपाट युगल, अर सुवर्णके कोट, गंभीर खाई, अर वन उपवन वापी कूप सरोवरादिसे महा शोभायमान हैं। जहां सर्व ऋतुके धान पर सर्व ऋतुके फल फूल सदा पाइए है जहां सर्व कामका साधन है, सरोवर कमलोंसे भरे जिनमें हंस क्रीड़ा करे हैं अर जहां दधि दुग्ध घृत मिष्टानोंके झरने बहे हैं । कैसी हैवापी जिनके मणि सुवर्णके सिवाय (पँडी) हैं यर कमलके मकरन्दोंसे शोभायमान हैं, जहां कामधेनु समान गाय हैं और पर्वत समान अनाजके ढेर हैं और मार्ग धूल कंटकादि रहित हैं, मोटे वृक्षोंकी छाया है महामनोहर जलके निवाण है। चौमास में मेघ मनवांछित बरसे हैं अर मेघोंकीं आनन्दकारी ध्वनि होय हैं, शीत कालम शीतकी विशेष बाधा नाहीं अर ग्रीष्म ऋतु में विशेष श्राताप नाहीं, जहां बैँ ऋतुके विलास हैं, जहां स्त्री आभूषण मंडित कोमल अंगवाली हैं अर सर्व कलानिमें प्रवीण पट्कुमारिका समान प्रभावाली हैं । कैसी हैं वह विद्याधरी, कई एक तो कमल के गर्भ समान प्रथाको घरे हैं, कई एक श्यामसुन्दर नीलकमलकी प्रभाको धरे हैं, कई एक सिझनाके फूल समान रङ्गकू घरे हैं, कई एक विद्युत समान ज्योतिको थरे हैं, यह विद्याधरी महा सुगंधित शरीरवाली हैं मानो नन्दन वनकी पवन हीं से बनाई हैं सुन्दर फूलो के गहने पहरे हैं मानो बसंतकी पुत्री ही हैं, चन्द्रमा समान कांति है मानी अपनी ज्योतिरूप सरोवरमें तिरे ही हैं, अर श्याम श्वेत सुरङ्ग तीन वर्णके नेत्रकी शोभाको वरणहारी, मृग समान हैं नेत्र जिनके, हंसनी समान हैं चाल जिनकी, वे विद्याधरी देवांगना समान शोभे है, अर पुरुष विद्याधर महा सुन्दर शूर वीर सिंह समान पराक्रमी हैं । महाबाहु महापराक्रमी आकाश गमन में समर्थ भले लक्षण भली क्रियाके धरणहारे न्यायमार्गी, देवोंके समान है प्रभा जिनकी अपनी स्त्रियों सहित विमानमें बैठे अढाई द्वीपमें जहां इच्छा होय तहां ही गमन करे हैं, इस भाति दोनों श्रेणियों में वे विद्याथर देवतुल्य इष्ट भोग भोगते महा विद्याओंको घरे हैं, कामदेव समान है रूप जिनका र चन्द्रमा समान है बदन जिनका । धर्मके प्रसादसे प्राणी सुख सम्पति पावें हैं तातें एक धर्म ही में यत्न करो अर ज्ञानरूप सूर्य से अज्ञानरूप तिमेिरको हरा ॥
इति श्रीरविषेणाचार्यविरचित महापद्मपुराणकी भाषाटीकाविषै विद्याधर लोकका कथन जाविषै है एसा तीसरा नकार संपूर्ण मया ॥२॥
चौथा पर्व ॥ ४ ॥
अथानन्तर वे भगवान ऋषभदेव महाध्यानी सुवर्ण समान प्रभा के वरणहारे प्रभु जगत के हित करन निमित्त छँ मास पीछे बहार लेनेको प्रवृत्ते, लोक मुनिके आहारकी विधि जाने नहीं अनेक नगर ग्रामविषे विहार किया मानो अद्भुत सूर्य ही विहार करें हैं जिन्होंने अपने दे की कांति से पृथ्वी मंडल पर प्रकाश कर दिया है जिनके कांधे सुमेरु के शिखर समान देदीप्यमान है भर परम समाधानरूप अधोहाटे देखत जीव दया पालते विहार करे हैं । पुर ग्रामादिमें लोक
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