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चौथा पर्व
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अथानन्तर भगवानकी दिव्य ध्वनि होती भई जो अपने नादकर दुन्दुभी बाजोंकी नको जीते है, भगवान जीवोंके कल्याण निमित्त तत्त्वार्थ का कथन करते भये कि तीन लोक में जीवोंको धर्म ही परम शरण हैं इसहीसे परम सुख होय है, सुखके अर्थ सभी चेष्टा करें हैं ऋर सुख धर्मके निमित्तसे ही होय है ऐसा जानकर धर्मका यत्न करहु । जैसे मेघ बिना वर्षा नहीं, बीज बिना धान्य नहीं तैसे जीवनि के धर्म दिना सुखं नाहीं, जैसे कोई उपंग ( लंगडा ) पुरुष चलने की इच्छा करे पर गूंगा बोलने की इच्छा करे र अन्धा देखनेकी इच्छा करे तैसे मूढ प्राणी धर्म बिना सुखकी इच्छा करे हैं, जैसे परमाणुसे घर कोई अन्य ( सूक्ष्म ) नहीं अर आकाश से कोई महान् ( वडा ) नहीं तैस धर्म समान जीवोंका अन्य कोई मित्र नहीं अर दया समान कोई धर्म नहीं | मनुष्य के भोग र स्वर्ग के भोग सब परमसुख धर्मंही से होय हैं इसलिये धर्म विना और उद्यनकर कहा ! जे पण्डित जीवदयाकर निर्मल धर्मको सेवे हैं उन्हीं का ऊ (ऊपर) गमन है दूसरे अधो ( नीचे ) गति जाय हैं, यद्यपि द्रव्यलिंगी मुनि तपकी शक्तिने स्वर्गलोक में जाय हैं तथापि बड़े देवोंके किंकर होकर तिनकी सेवा करे हैं देवलोक में नीच देव होना देव दुर्गति हैं सो देवदुर्गतिके दुःख को भोगकर तिर्यंच गतिके दुखको भोगे हैं, र जे सम्यग्दृष्टि जिन शासनके अभ्यासी तप संयम धारणाहारे देवलोक में जाय हैं ते इन्द्रादिक बड़े देव होयकर बहुत काल तक सुख योग देवलोकतें चय मनुष्य होय मोक्ष पार्श्वे हैं सो धर्म दोय प्रकारका है एक यतिधर्म, दुसरा श्रावकधर्म, तीजा धर्म जो माने हैं मोह अग्नि से दग्ध हैं, पांव त तीन गुणवत चार शिक्षा यह श्रावकका धर्म है, श्रावक मरण समर सर्व आरम्भ तज शरीर से वा निर्ममत्व होकर समाधि मरण कर उत्तगतिको जाय है, अर यती का धर्म पंच महाव्रत पंचमिनि तीन गुप्ति यह तेरह प्रकारका चारित्र है । दशों दिशा ही यति के वस्त्र हैं, जो पुरुष यतिका धर्म रह वे शुद्धोपयोग के प्रसादकरिनिर्वाण पाते हैं, श्रर जिनके शुभोपयोग की मुख्यता है ने वर्ग पावे हैं परम्पराय मोव जाय हैं । अर जे भात्रां मुनियों की स्तुति करे हैं ते हू धर्मको प्राप्त की हैं, कैसे हैं मुनि, परम अलचक धारण हारे हैं। यह प्राणी धर्मके प्रभावतें सर्व पाप से छूटे हैं पर ज्ञानकू प है; इत्यादिक धर्म का कथन देवाधिदेव ने किया सो सुन कर देव मनुष्य सर्व ही परम हर्षकू प्राप्त भए । के एक तो सम्यक्तको धारण करते भए, कैएक सम्यक्त सहित श्रावकके व्रत धारते भए, कैएक मुनित्रत धारते भए, बहुरि सुर असुर मनुष्य धर्म श्रवण कर अपने अपने धाम गए, भगवानने जिन जिन देशों में गमन किया उन उन देशों में धर्म का उद्योत भया । आप जहां जहां विराजे वहां वहां सौ सौ योजन तक दुर्भिक्षादिक सर्व बाधा मिटी, प्रभुके चौरासी गणवर भए अर चौरासी हजार साधु भए, इन करि मण्डित सर्व उचन देशनिवि विहार किया |
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अथानन्तर भरत चक्रवर्ती पदक प्राप्त भए र भरतके भाई सब ही मुनिव्रत धार परमपदकों प्राप्त भए, भरने कुछ काल है सरडका राज्य किया, अयोध्या राजधानी, नवनिधि चौदह रत्न प्रत्येककी हजार हजार देव सेवा करें, तीन कोटि गाय एक कोटि हल चौरासी लाख हाथी इतने ही रथ
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