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-पद्म-पुराण
अज्ञानी नाना प्रकार के वस्त्र रत्न हाथी घोड़े रथ कन्यादिक भेट करेंसी प्रभु कुछ भी प्रयोजन नाहीं इस कारण प्रभु फिर बनको चले जावें इस भांति छे बहीने तक विधिपूर्वक आहारकी प्राप्ति नभई (अर्थात् दीक्षा समयने एक वर्ष विना आहार बीता । ) पीछे विहार करते हुए हस्तिनापुर सर्व लोक पुरुषोत्तम भगवानको देखकर आश्चर्यको प्राप्त भए, राजा सोमप्रभ रविनके लघुभ्रा श्रेयांस दोनों ही भाई उठकर सम्मुख चाले, त्रेयांसको भगवानके देखने से पूर्व भवका स्मरण भगा कर मुनिके आहार की विधि जानी । वह नृप भगवानकी प्रदक्षिणा देते ऐसे शोभे हैं मानो सुमेरुकी प्रदक्षिणा सूर्य ही दे रहा है, अर बारम्बार नमस्कार कर रत्नपात्र से देय चरणारविन्द थोए अर अपने शिरके केशसे पोंछे आनन्दके अश्रुपान
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श्राए श्रर गद गद वाणी भई । श्रेयांसने जिसका चित्त भगवान के गुणोंमें अनुरागी भया है महा पवित्र रत्ननके कलशोंमें रखकर महा शीतल थिए क्षुरतका आहार दिए, परम श्रद्धा नवधा भक्ति से दान दिया वर्षो पारणा बना उसके प्रविश्यसे देव हर्षित होय पांच आश्चर्य करते भए । १ रत्ननिकी वा भई । २ कल्पवृक्षोंके पंच प्रकार के पुष्प बरसे । ३ शीतल मन्द सुगंध पवन चली । ४ अनेक प्रकार दुन्दुभी बाजे बाजे । ५ यह देववाणी भई कि धन्य यह पात्र अर धन्य यह दान पर धन्य दानका देनहारा श्रेयांस । ऐसे शब्द देवताओंके आकाश में भर, श्रेयांसकी कीर्ति देखकर दानकी रीति प्रगट भई, देवतानिकारे श्रेयांस प्रशंसा योग्य भए अर भरतने अयोध्यासे आयकर बहुत स्तुति करी । अति प्रीति जनाई । भगवान आहार लेकर वनमें गये ।
अधानंतर भगवान्ने एक हजार वर्षपर्यन्त महातप किया अर शुक्लध्यानसे मोहका नाशकर केवल ज्ञान उपजाया । कैसा है वह केवलज्ञान ? लोकालोकका अवलोकन है जावियै । जब भगवान केवलज्ञानको प्राप्त भए तब अए प्रदिर्य प्रगटे । प्रथम तो आपके शरीरकी कांतिका ऐसा मण्डल हुआ जिससे चन्द्र सूर्यादिकका प्रकाश मन्द नजर आवे, रात्रि दिवसका भेद नजर न यावे अर अशोक वृक्ष रत्नमई पुष्पोंसे शोभित रक्त हैं। पल्लव जाने पर आकाशसे देवोंने फूलों की वर्षा करी जिनकी सुगन्ध भ्रमर गुंजार करें, महा दुन्दुभी वाजोंकी ध्वनि होती भई जो समुद्र के शब्द से भी अधिक देवोंने वाजे बजाए उनका शरीर मायापई नहीं दीखता है जैसा शरीर देवोंका है तैसा ही दीखे है, अर चन्द्रमाकी किरणसे भी अधिक उज्ज्वल चमर इन्द्रादिक ढोरते भये कर सुमेरुके शिखर तुल्य पृथ्वीका मुकुट सिंहासन आपके विराजनका प्रगट भया, कैसा है सिंहासन ? अपनी ज्योति कर जीती है सूर्यादिककी ज्योति जिसन पर तीन लोककी प्रभुताके चिन्ह मोतियोंकी झालर से शोभायमान तीन छत्र अति शोभे है मानो भगवानके निर्मल. यश ही हैं रसमोशरणमें भगवान सिंहासनपर विराजे सो समोशर की शोभा कहनकू केवली ही समर्थ हैं और नाहीं । चतुरनिकायक देव सर्वं ही बन्दना करने की आये, भगवानके मुख्य गणधर वृषभसेन भये आपके द्वितीय पुत्र र अन्य भी बहुत जे मुनि भए थे वह महा वैराग्यके धारणहारे मुनि आदि बारह सभाके प्राणी अपने अपने स्थानकविषै बैठे ।
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