________________
दूसरा पर्व
कमल है उसपर आप अलिप्त विराजे हैं । गणधर प्रश्न करे हैं और दिव्यध्वनि विर्ष सर्वका उत्तर होय है।
गणधर देवने प्रान किया कि हे प्रभो ! तत्वके स्वरूपका व्याख्यान करो तब भगवान् तत्त्वका निरूपण करते भये । तत्त्व दो प्रकार के हैं.--एक जीव दुमरा अजीव । जीवां के दो भेद हैं सिद्ध और संसारी । संरीके दो भेद है-एक भव्य दूमरा अभव्य । मुक्त होने योग्यको भव्य कहिये और कोरडू (कुडकू) मूंग समान जो कभी भी न साझे तिसको अभव्य कहिये, भगवानके भाषे तत्त्वोंका श्रद्धान भव्य जीवोंके ही होय अभव्यको न होय और संसारी जीवोंके एकेंद्रिय आदि भेद और गति काय आदि चौदह मार्गणाका स्वरूप कहा और उपशम धायक श्रेणी दोनोंका स्वरूप कहा और संसारी जीव दुःखरूप कहे । मूहों जो दुःखरूप अवस्था सुखरूप भासे हैं चारों ही गति दुख रूप हैं-नारकियों को तो आंखके पलकमात्र भी सुख नाहीं मारण ताडन छेदन शूलारोपणादिक अनेक प्रकार के दुःख निरन्तर हैं और तिर्यंचोंको ताडन मारण लादन शीत उष्ण भूख प्यास आदिक अनेक दुःख हैं और मनुष्योंको इष्ट वयोग और अनिष्टसंयोग आदि अनेक दुख हैं और देवोंको बड़े देवों की विभूति देखकर संताप उपजे है और दूसरे देवोंका मरण देख बहुत दुःख उपजै है तथा अपनी देवांगनाओंका मरण देख वियोग उपजे है और जब अपना मरण निकट आवे तब अत्यन्त विलापकर झुरे हैं इसी भांति महा दुःख कर संयुक्त चतुर्गतिमें जीव भ्रमण करे हैं। कर्म भूमिमें मनुष्य जन्म पाकर जो सुकृत (पुण्य) नहीं करे हैं उनके हस्तमें प्राप्त हुआ अमृत जाता रहै है । संसारमें अनेक योनि में भ्रमण करता हुआ यह जीव अनन्त कालमें कभी ही मनुष्य जन्म पावे है तब भीलादिक नीच कुलमें उपजा तो क्या हुआ और म्लेच्छ खण्डोंमें उपजा तो क्या हुआ अंर कदाचित् आर्य खण्डमें उत्तम कुलमें उपजा और अंगहीन हुआ तो क्या हुया और सुन्दररूप हुआ और रोगसंयुक्त हुआ तो क्या और सर्व ही सामग्री योग्य भी मिली परन्तु विषपानिलापी होकर धर्म में अनुरागी न भया तो कुछ भी नहीं, इसलिए धर्मकी प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ है, कई एक तो पराये किंकर होकर अत्यन्त दुःख से पेट भरे हैं, कई एक संग्रानमें प्रवेग करे हैं । संग्राम शस्त्रके पातसे भयानक है और रुधिरके कर्दम (की बड़) महा ग्लानि रूप है और कई एक किसाण वृत्ति र क्लेशसे कुटुम्ब का भरण पोषण कर हैं, जिसमें अनेक जीवोंकी बाधा करनी पड़ती है। इस भांति अनेक उद्यम प्राणी करें हैं उसमें दुःख क्लेश ही भोगे हैं, संवारी जीव विषय सुख के अत्यन्त अभिलापी हैं कई एक तो दरिद्रनासे महादुःखी हैं कई एक धन पायकर चोर वा अग्नि वा जल वा राजादिकके भयसे सदा आकुलतारूप रहे हैं और कई एक द्रव्यो भागते हैं परन्तु तृष्णारूप अग्नि के बढ़ से जले हैं के एकको धर्मकी रूचि उपजे है परन्तु उनको दुष्ट जीव संसार ही के मार्गमें डारे हैं परिग्रहथारियोंके वित्तकी निर्मलता कहांसे होय और चिनकी निर्मलता विना धर्मका सेवन कैसे होय जब तक परिग्रहकी आसक्तता है तब तक जीव हिंसा विष प्रवृत्त है और हिसासे नरक. निगोद आदि कयोनिमें महा दुःख भोगे हे संसार भ्रमणका मूल हिंसा ही है और जीव
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org