Book Title: Niyamsara Prabhrut
Author(s): Kundkundacharya, Gyanmati Mataji
Publisher: Digambar Jain Trilok Shodh Sansthan

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Page 10
________________ - ११ - दिङ्मात्र वर्णन किया है। इसी में स्त्रियों में स्वभाव से मायाचार होते हुये भी कुछ महिलायें जैसे कि तीर्थंकर देव की मातायें तथा ब्राह्मी सुन्दरी आदि आर्यिका यें और सोता आदि सतियाँ देवों द्वारा भी पूज्य मानी गई हैं यह दिखलाया है । गाथा १७६ की टीका में शेष ८५ प्रकृतियों का नाश कर सिद्ध पद प्राप्त होता है। उन प्रकृतियों के नाम दिखाये हैं। इसको टीका हुई थी 'मुक हुये जीव स्वभाव से ही ऊर्ध्वगमन करते हैं ।" यह प्रकरण चल रहा था । इस वर्ष महावीर स्वामी के निर्वाण दिवस प्रातः निर्वाण लड्डू चढ़ने के बाद मैंने प्रशस्त मंगल बेला में "भगवान महावीर स्वामी पावापुर से मोक्ष पधारे है आज के दिन इन्द्रों ने निर्वाणोत्सव मनाकर रात्रि में दीपावली मनाई थी आगे आने वाले वर्ष मेरे लिये, साधु संघ के लिए और सर्व भव्यों के लिये मंगलमयी होये यह भावना भायी है । इसकी पंक्तियाँ हैं— "निर्वाणगतस्यास्य भगवतोऽद्य द्विसहस्त्रपंचशतदशवर्षाणि अभूषन् । तस्य प्रभोनिंब पिकल्याणपूजां कृत्वा देवेन्द्रः प्रज्वलितदीपमालिकाभिः पावापुरी प्रकाशयुक्ता कृता । आगमिष्यन्नूतन संवत्सराणि मह्यं सर्वसंधाय सर्वभक्येभ्यश्च मंगलप्रदानि भूघांसुः । “निर्वाण प्राप्त करके आज भगवान् महावीर स्वामी को दो हजार पांच सौ दश वर्ष हो चुके हैं। उन भगवान की निर्वाण कल्याण पूजा को करके देवेन्द्रों ने दीपकों को प्रज्वलित कर पावापुरी नगरी को प्रकाशयुक्त कर दिया था | आगे आने वाले नूतन वर्ष मेरे लिये सर्वसंघ के लिये और सर्व भव्यों के लिये मंगलमग्री होवे । " इसके बाद वीर निर्वाण संवत् २५११ शुरू हो गया था जो कि अभी चल रहा है 1 गाथा १८३ की टीका में सिद्धशिला कहाँ है ? कैसी ? कितनी बड़ी है ? यह प्रकरण लिया है | गाथा १८४ में धर्मास्तिकाय का महत्त्व दिखलाया है और निमित्त अकिंचित्कर नहीं है यह बात सिद्ध की है | गाथा १८५ में जैनाचार्यों के वचन व जैनागम पूर्वापर विरोध दोष से रहित होते हैं, यह दिखाया है | गाथा १८६ में हुंडावसर्पिणी के दोष से धर्म द्वेषी, लोग होते हैं, फिर भी पंचम काल के अन्त तक जैन धर्म अविच्छिन्न चलता रहेगा । इस प्रकार प्रकाश डाला है। अंतिम गाथा १८७ की टीका में ग्रन्थकार श्री कुन्दकुन्ददेव के जीवन की कुछ विशेष घटनायें उल्लिखित की हैं। इसी में आर्यिकायें भी ग्यारह अंग तक पढ़ने-पढ़ाने को अधिकारिणी है अतः वे भी आज अध्यात्म ग्रन्थों को धवला आदि सिद्धांत ग्रन्थों को पढ़ सकती हैं, पढ़ा सकती हैं यह सिद्ध किया है । पुनः मैंने अपनी लघुता प्रदर्शित करते हुये इस अध्यात्म ग्रन्थ को पढ़ने की भव्यों को प्रेरणा दी है। अंत में टीका के नाम की सार्थकता दिखलाई हैं । यह ग्रन्थ रत्नत्रय रूपी कुमुदों को विकसित करने में चन्द्रमा के उदय के समान होने से नियम कुमुद चंद्रोदय है और इसकी टीका में पद-पद पर व्यवहार निश्चय नय, व्यवहार निश्चय क्रिया और व्यवहार निश्चय मोक्षमार्ग का वर्णन है अतः यह स्याद्वाद से समन्वित होने से स्याद्वाद चन्द्रिका इस नाम से सार्थक है । अन्त में मनुष्य लोक प्रमाण सिद्ध शिला के ऊपर सिद्धलोक सिद्ध भगवंतों से ठसाठस भरा हुआ है । ढाई द्वीप, दो समुद्र में सर्व स्थान से जीव कर्म मुक्त होकर सिद्ध लोक में पहुँचे हैं | इसका स्पष्टीकरण करके सिद्ध पद की प्राप्ति में निमित्त ऐसे अनन्त सिद्धों को नमस्कार किया है ।

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