Book Title: Mulachar Pradip
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 6
________________ प्रभाव नहीं था। संवत् १४९२ में गलियाकोट में एक भट्टारक गावो की स्थापना की और अपने प्रापको सरस्वती गच्छ एवं बलात्कारगण को परम्परा का भट्टारक घोषित किया । ये उत्कष्ट सपस्वी ये तथा अपने जीवन में इन्होंने किसने ही व्रतों का पालन किया था। सालकीति ने जनता को जो कुछ चरित्र सम्बन्धी उपदेश दिया था, पहिले उसे अपने जीवन में उतारा । २२ वर्ष के एक छोटे से समय में ३५ से अधिक प्रन्थों की रचना, विविध ग्रामों एवं मगरों में विहार, भारत के राजस्थान, उत्तरप्रदेश, गुजरात, मध्यप्रदेश प्रावि प्रदेशों के सोपों को परयात्रा एवं विविध व्रतों का पालन केवल सफलफोति जैसे महा विधान एवं प्रभावशाली व्यक्तित्व बाते साधु से ही सम्पन्न हो सकते थे। इस प्रकार ये बडा, मान एवं चारित्र से विभूषित उत्कृष्ट एवं प्राकर्षक व्यक्तित्व वाले साधु थे। मृत्यु एक पट्टापलि के अनुसार भट्टारक सकसकोति ५६ वर्ष तक जीवित रहे। संवत् १VEL में महसाना नगर में उनका स्वर्गवास हुमा । पं० परमानम्वनो शास्त्री ने भी प्रशस्ति साह में इनकी मत्यु संवत् १४६८ में महसाना (गुजरात) में होना लिखा है। डा. ज्योतिप्रसाद खन एवं डा. प्रेमसागर भी इसी संवत को सही मानते हैं। लेकिन डा० ज्योति प्रसाद इनका पूरा जीवन १ बर्ष स्वीकार करते हैं जो पब लेखक को प्राप्त विभिन्न पट्टावलियों के अनुसार यह सही नहीं जान पड़ता। सकलकोति रास में उनकी विस्तृत जीवन गापा है। उसमें स्पष्ट रूप से संवत् १४४ को अन्म एवं संवत् १४६८ में स्वर्गवास होने को स्वीकार किया है। तत्कालीन सामाजिक अवस्था भट्टारक सकलकीति के समय देश को सामाजिक स्थिति मच्छी नहीं थी। समाज में सामाजिक एवं पार्मिक बेतमा का प्रभाष था। शिक्षा को बहुत कमी पी। माधुमों का प्रभाव पा । भट्टारकों के नग्न रहने को प्रपा पी। स्वयं भट्टारक सकलकीति भी नग्न रहते थे। लोगों में धार्मिक श्रया बहत थी। तीर्थ यात्रा बड़े-बड़े संषों में होती थी। उनका नेतृत्व करने वाले साधु होते में। तीर्थ यात्रायें बहुत लम्बी होती पी तथा यहां से सकुशल लौटने पर बड़े-बड़े उत्सव एवं समारोह किये जाते थे। भट्टारकों ने पंच-कल्याणक प्रतिष्ठानों एवं अन्य धार्मिक समारोहकरने को मच्छी प्रमा डाल दी थी। इनके सघ में मुनि, प्रायिका, धावक प्रावि सभी होते थे। साधुनों में मान प्राप्ति की काफी अभिलाषा होती थी, तथा संघ के सभी साधुओं को पढ़ाया जाता था। अन्य रचना करने का भी खूब प्रचार हो गया या । भट्टारक गण मी खूब प्रम्य रचना करते थे। वे प्रायः अपने पंप भावकों [ २५ ] ।

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