Book Title: Mulachar Pradip Author(s): Publisher: ZZZ Unknown View full book textPage 4
________________ नन्द का मुख्य केन्द्र नैरगवां ( उदयपुर ) था और वे प्रागम ग्रन्थों के पारगामी विद्वान् माने जाते थे। इसलिये ये भी नेरगयां चले गये और उनके शिष्य बन कर अध्ययन करने लगे । यह उनके साधु + जीवन की प्रथम पद यात्रा थी। वहां ये प्राठ वर्ष रहे और प्राकृत एवं संस्कृत के प्रभ्थों का गम्भीर अध्ययन किया। उनके समं को समझा और भविष्य में सत् साहित्य का प्रचार-प्रसार ही अपना जीवन का एक उद्देश्य बना लिया । ३४ वें वर्ष में उन्होंने प्राचार्य पदवी प्रहरण की और नाम सकलकीर्ति रखा गया। I बिहार -- सकलकोति का वास्तविक साधु जीवन संवत् १४७७ से प्रारम्भ होकर संवत् १४६६ तक रहा। इन २२ वर्षों में इन्होंने मुख्य रूप से राजस्थान के उदयपुर, बांसवाड़ा, प्रतापगढ़ प्रादि राज्यों एवं मुजरात प्रान्त के राजस्थान के समीपस्थ प्रवेशों में खूब विहार किया । उस समय जन साधारण के जीवन में धर्म के प्रति काफी शिथिलता था गई थी। साधु-सन्तों के बिहार का प्रभाव था। अनी न सां स्वाध्याय के प्रति रुचि रही थी और न उन्हें सरल भाषा में साहित्य ही उपलब्ध होता था। इसलिये सर्वप्रथम सकलकीर्ति ने उन प्रवेशों में बिहार किया और सारे समाज को एक सूत्र में बांधने का प्रयास किया। इसी उद्द ेश्य से उन्होंने कितने ही यात्रासंध का नेतृत्व किया। सर्व प्रथम उन्होंने गिरनार की संघ के साथ मात्रा प्रारम्भ को । फिर वे चंपानेर को ओर यात्रा करने निकले। वहां से धाने के पश्चात् हूमड जातीय रतना के साथ मांगीतुंगी की यात्रा के लिये प्रस्थान किया। इसके पश्चात् उन्होंने अन्य तीर्थों को वन्दना को जिससे देश में धार्मिक चेतना फिर से जाग्रत होने लगी । प्रतिष्ठानों का आयोजन - तीर्थ यात्रा के पश्चात् सकसकीति ने नव मन्दिर निर्माण एवं प्रतिष्ठाएं करवाने का कार्य हाथ में लिया। उन्होंने अपने जीवन में १४ विभव प्रतिष्ठानों का संचालन किया। इस कार्य में योग देने वालों में संघपति नरवाल एवं उनकी पत्नी बहुरानी का नाम विशेषतः उल्लेखनीय है। गलियाकोट में संघपति मूलराज में इन्हों के उपदेश से "चतुविशति जिन बिम" की स्थापना की थी । नागदा जाति के श्रावक संघपति ठाकुरसिंह ने भी कितनी हो बिम्ब प्रतिष्ठानों में योग दिया। भट्टारक सकलकोति द्वारा संवत् १४६०, १४६२, १४६७ आदि संवतों में प्रतिष्ठापित मूर्तियां उदयपुर, डूंगरपुर एवं सागवाड़ा श्रादि स्थानों के जैन मन्दिरों में मिलती हैं। प्रतिष्ठा महोत्सवों के इन पायोजनों से तत्कालीन समाज में जो जन जाग्रति उत्पन्न हुई थी, उसने देश में जैन धर्म एवं संस्कृति के प्रचार-प्रसार में अपना पूरा योग दिया । [२३]Page Navigation
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