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बना देता है किन्तु जब हम अपना लक्ष्य 'आत्मा से परमात्मा' भली-भाँति जान लेते हैं तब मृत्यु की बात अनहोनी नहीं लगती, कोई भय नहीं पैदा करती क्योंकि उस समय हम जानते हैं कि यह तो सृष्टि-चक्र का एक क्रम है, जो फल लगे हैं उन्हें एक-न-एक दिन पक कर गिरना ही है, जो दीपक जले उन्हें समाप्त होने पर बुझना ही है । यात्मा की शाश्वतता और शरीर की नश्वरता समझ लेने पर गीता में कही गई भगवान श्रीकृष्ण की आत्मा-विषयक यह बात सत्य जान पड़ती है -
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय, नवानि गृह्णाति नरोपराणि । तथा शरीराणि विहाय जीर्णा - न्यन्यानि संयाति नवानि देही ॥
"जिस प्रकार मानव पुराने वस्त्रों को छोड़कर नए वस्त्र धारण करता है उसी प्रकार प्रात्मा पुराने शरीर को छोड़कर नूतन शरीर को धारण करती है।"
इससे भी आगे जब मानव जान लेता है कि 'प्रात्मा और परमात्मा एक हैं, जो अन्तर है वह औपाधिक है; बाह्य कारणों से पैदा हुआ है और वे बाह्य कारण कर्म ही हैं। प्रात्मा कर्म रूपी आवरणों से ढकी हुई है और परमात्मा आवरणों से अतीत, तब वह कह उठता है
"सिद्धोऽहं सुखोऽहं प्रणंतरणाणादि-गुण-समिद्धोऽहं ।" -मेरी आत्मा सिद्ध है, शुद्ध है, अनन्त ज्ञान आदि गुणों से युक्त
है
कर्मों का आवरण दूर होने पर 'तत्त्वमसि' अथवा 'एगे प्राया' का बोध होता है तथा आत्मा परमात्मा बन जाती है। कर्मों का प्रावरण
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