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महावीर : परिचय और वाणी भी असत्य हो गया। महावीर को त्यागी नमानेवाले लोग मूलत भोगी है जो सिर्फ त्याग की मापा समझ सकते है। इसलिए हैरानी होगी कि त्यागियो के पास भोगी इकट्ठे हो जाते है, क्योकि भोगी ही त्याग को पकट पाते है। यह अद्भुत वात है कि महावीर-जैसे अपरिग्रही के पीछे, अगृही के पीछे जो वर्ग इकट्ठा हुआ है वह अत्यन्त भोगी और परिग्रही है। महावीर के पीछे जिन जनो की परम्परा खडी है उन जैनो से ज्यादा धनी और परिपही लोग इस मुक मे दूसरे नहीं । इसका मतलब केवल इतना ही है कि त्याग की भाषा भोगी को बहुत पकटती है और भोगी उसके आसपास इकट्ठा हो जाता है जो उन त्यागी दीसता है। अक्सर अनुयायी गुरु से उलटे होते है क्योकि उलटी चीजे लोगो को आकर्षित करती ही है, पास बुला लेती है । घृणा से भरे हुए लोगो को प्रेम की भापा पकड लेती है । भोगी त्याग से अपने को पूरा कर लेता है। वह खुद तो त्याग कर नहीं सकता, इसलिए त्यागी को पकड लेता है। मन के रहस्यो मे मबसे कीमती रहस्य यह है कि जो हमारे चेतन मन मे होता है उसका ठीक उलटा अचेतन मन मे होता है । अगर चेतन मन में कोई विनम्र है तो अचेतन मन में वह बहुत अहकारी होगा। अचेतन उलटा ही होता है । इसलिए अगर साधु-सन्तो को शराब पिलाई जाय तो उनके भीतर ने हत्यारे, व्यभिचारी निकलेगे और अगर व्यभिचारियों को शराब पिलायी जाय तो । उनके भीतर से साधु-सन्तो की झलक मिलेगी।
यदि चेतन-अचेतन का यह द्वन्द्व हमारे खयाल मे हो तो हम भूलकर भी महावीर को त्यागी नही कहेगे। महावीर-जैसा व्यक्तित्व अविभाज्य होता है। उसके भीतर दो खड नही होते । वह जो भी करेगा, उसमे पूरा मौजूद होगा। और ठीक अर्थों मे त्याग उसी व्यक्ति से फलित हो सकता है जिसका व्यक्तित्व अखड हो गया हो, जिसमे दूसरे व्यक्तित्व के उदय होने की कमी कोई सम्भावना न रह गई हो। अखड व्यक्ति मे द्वन्द्व विलीन हो जाता है-न वहाँ त्याग है और न भोग, न क्षमा और न क्रोध । ध्यान रहे कि जो आदमी क्रोधी नहीं है वह क्षमा कैसे करेगा? क्षमा के पहले क्रोध अनिवार्य है। और जो व्यक्ति भोगी नही, वह त्यागी कैसे हो सकता है ? चूंकि हमारी कल्पना मे यह वात नही आती, इसलिए हम एक खड को हटाकर दूसरे खड को बचा लेना चाहते है । असल मे वह हमारी आकाक्षा का सबूत है, महावीर के सत्य का नही । जो नही है, उसी की चाह होती है। चाह ठीक विपरीत की होती है। हममे घृणा है, हम चाहते है प्रेम को, हिंसा है, चाहते है अहिंसा को; क्रोध है, चाहते हैं क्षमा हो, परिग्रह है, चाहते है अपरिग्रह हो । जिन्हे हम अपना आदर्श समझ लेते है, उन्ही पर थोप देते है उन गुणो को जिनकी चाह होती है।
साधारण लोगो की जिन्दगी मे द्वन्द्व की लड़ाई का कभी अन्त नहीं होता। वे क्रोध से लडते है, घृणा और हिंसा से लड़ते हैं और जिससे लड़ते है, उस पर सवार