________________
महावीर · परिचय और वाणी का अर्थ जीतना ही है। दोनो श्रमण-धारामो के बीच भेदक रेसा नीचने के लिए गौतम बुद्ध के अनुयायियो को बौद्ध कहा जाने लगा और महावीर के अनुयायियों को जैन। ( 'जिन' शब्द बहुत पुराना है और बुद्ध के लिए भी प्रयुक्त हुआ है।)
ध्यान रहे कि श्रमणधारा आर्यमूलधारा से ही निस्सत हुई थी और उस श्रमगधारा से वीद और जैन धर्म निकले। इसलिए महावीर के पहले के ममी तीर्थकर हिन्दू सघ के भीतर थे, महावीर हिन्दू सघ के वाहर । महावीर न तो किमी के जनुयायी थे और न कोई उनका गुरु था। फिर भी उनका दर्शन अन्य तीर्थ करी के अनुयायियो से बहुत दूर तक मेल सा गया । महावीर को चिन्ता न थी कि उनके विचार किसी और के विचारो से मेल खा जाय। यदि उनका मेल बैठ गया तो यह निपट सयोग की बात है। और इसी कारण वे अनुयायी धीरे-धीरे महावीर के पान आ गए। परन्तु इसमे यह निष्कर्प नहीं निकलता कि महावीर हूबहू वही कहते थे जो पिछले तेईस तीर्थ करो ने कहा था । किसी पिछले तीर्थ कर ने ब्रह्मचर्य की कोई बात नही की थी। पार्श्वनाथ का धर्म चतुर्यामयुक्त था-उसमे ब्रह्मचर्य को एक पृथक् याम के रूप मे स्वीकृति नही मिली थो।' महावीर ने पहली बार ब्रह्मचर्यव्रत की बात की और चार के स्थान पर पांच महाव्रतो की प्रतिष्ठा हुई। ऐसी ही अनेक बाते है जिनसे महावीर की मौलिकता प्रकट होती है। लेकिन इतना तो जाहिर है कि उनकी बातें पिछले तीर्थकरो के विरोध मे नही हैं। वस्तुत महावीर-जैसे वलगाली व्यक्ति को पाकर उनकी धारा अनुगृहीत हो गई। वे बडे साधक और सिद्ध थे मही, परन्तु उनमे एक भी ऐसा न था जो एक दर्शन निर्मित कर सके। यह क्षमता महावीर मे थी। इसलिए चौवीसवां होते हुए भी महावीर करीब-करीव प्रथम हो गए। अगर तीर्यकरों
१. चतुर्याम का अर्थ है चार महाव्रत। भ० पार्श्वनाथ को निर्ग्रन्थ-परम्परा चार महाव्रतधारी थी-चतुर्महाव्रत की परम्परा थी। उसमे अहिंसा, सत्य, असत्य, अपरिग्रह ही चार याम ( महाव्रत ) थे। किन्तु, जैसा कि पं० सुखलालजी ने कहा है, 'निम्रन्थ परम्परा मे क्रमश ऐसा शैथिल्य आ गया कि कुछ निम्रन्थ अपरिग्रह का अर्थसंग्रह न करना, इतना ही करके स्त्रियो का संग्रह या परिग्रह बिना किए भी उनके सम्पर्क से अपरिग्रह का भंग समझते नहीं थे। इस शिथिलता को दूर करने के लिए भ० महावीर ने ब्रह्मचर्य व्रत को अपरिग्रह से अलग स्थापित किया और चतुर्थ व्रत मे शुद्धि लाने का प्रयत्न किया। महावीर ने ब्रह्मचर्यव्रत की अपरिग्रह से पृथक् स्थापना अपने तीस वर्ष के लम्बे उपदेश काल मे कब की यह तो कहा नहीं जा सकता, पर उन्होने यह स्थापना ऐसी बलपूर्वक की कि जिसके कारण अगली सारी निग्रन्थ-परम्परा पंच महाव्रत की ही प्रतिष्ठा करने लगी, और जो इने-गिने पावपित्यिक निर्ग्रन्थ महावीर के पच महाव्रत-शासन से अलग रहे उनका आगें कोई अस्तित्व ही न रहा।' दर्शन और चिन्तन ( १९५७), पृ० ९८-९९ ।