Book Title: Mahavir Parichay aur Vani
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Osho Rajnish

View full book text
Previous | Next

Page 274
________________ २७६ महावीर : परिचय ओर वाणी हो जाती है । जो सयमी परिपूर्ण चित्त से हँस न सके, वह अभी सयमी नही है । निपेध और दमन उसके व्यक्तित्व को खडित कर डालते है । उसके भीतर अनेक ग हो जाते है | वह अपने आपको ही वॉटकर लड़ना शुरु कर देता है । इनमें कभी जीत नही होती । स्वय से लडनेवाले कभी नही जीतते । परन्तु महावीर का रास्ता जीत का रास्ता है । (४) सयम से लडना अपने ही दोनो हाथो को लडाने जैसा है । न वायां जीत सकता है और न दायाँ, क्योकि दोनो के पीछे मेरी ही ताकत लगती है । खडित व्यक्तित्व विक्षिप्तता की ओर जाता है | अगर आप चोरी करे तो कभी अखड न होगे । आपके भीतर का एक हिस्सा चोरी के खिलाफ ही खड़ा रहेगा । इसी तरह झूठ के साथ पूरी तरह राजी हो जाना असम्भव है | लेकिन अगर आप सत्य बोलें, चोरी न करें, तो आप असड हो सकते है । महावीर ने उन्ही-उन्ही बातो को पुण्य कहा है जिनसे हम अखड हो सकते हैं । वह पाप है जो हमे खडित करता है, आदमी को टुकडो मे वांटता है । आदमी का जाना ही है । महावीर लडने को नही कहते, जीतने को जरूर कहते हैं । जीतने का रास्ता यह नही कि मै अपनी इन्द्रियो से लडने लगूं ; जीतने का रास्ता यह है कि मैं अपने अतीन्द्रिय स्वरूप की खोज मे सलग्न हो जाऊँ, अपने भीतर छिपे हुए खजाने की खोज मे जुट जाऊँ। जैसे-जैसे वे खजाने प्रकट होंगे, वैसे-वैसे कल की महत्त्वपूर्ण चीजें गैरमहत्त्वपूर्ण हो जायँगी । (५) महावीर जिसे सयमी कहते हे, वह व्यक्ति इसके पागलपन से मुक्त हो जाता है । महावीर एक और भीतरी रस खोजते है, एक ऐसा रस जो भोजन से नही मिलता । एक और रस भी है जो भीतर सम्बन्धित होने से मिलता है । हमारी इन्द्रियो का काम सयोजन करना है, जोड़ना है -- वे सेतु का, सयोजक कडी का, काम करती है । स्वाद की इन्द्रिय हमे भोजन से और आँख की इन्द्रिय दृश्य जगत् से जोड देती है । महावीर कहते है कि जो इन्द्रिय हमे बाहर के जगत् से जोड सकती है, वह हमे भीतर के जगत् से भी जोड सकती है । भीतर भी ध्वनियों का एक अद्भुत जगत् है । कान उससे भी हमे जोड सकता है । भीतर भी रस का सागर लहराता होता है । जीभ भीतर के इस रस से हमे जोड सकती है। (६) आपने सुना होगा कि साधक और जोगी अपनी जीम उलटा कर लेते है । साधक और योगी का यह काम सिर्फ प्रतीक है । इसका अर्थ यह है कि जीभ का जो रस बाहर पदार्थों से जुड़ता था, वह अव भीतर आत्मा से जुड जाता है । साधक अपनी आँख उलटी चढा लेता है । इसका कुल अर्थ इतना ही है कि वह जो बाहर देखता था, अव भीतर देखने लगता है । और एक बार भीतर का स्वाद आ जाय

Loading...

Page Navigation
1 ... 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323