Book Title: Mahavir Parichay aur Vani
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Osho Rajnish

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Page 282
________________ २८६ महावीर : परिचय और वाणी तपस्वी के सघर्षरत मन से उतरती है, तपस्वी के मन मे जो छिया है उने ही बाहर प्रकट करती हैं। तप विकृत हो तो दमन होता है। और दमन मनुप्य को रुण करता है, स्वस्य नही । इसलिए मैं कहता हूँ कि महावीर के तप मे दमन का लेश भी न था। महावीर ने अगर दमन जैसे शब्दो का वही प्रयोग भी दिया है तो किसी और ही अर्थ मे । उनके लिए दमन का अर्थ था शान्त हो जाना । शान्त कर लेना भी नहीं, बरिफ शान्त हो जाना । जिस चीज से आपको दुस हुआ है, उसके विपरीत चले जाने ते दमन पैदा होता है । यदि काम-वासना ने मुझे दृस दिया है तो काम-वासना के विपरीत जाना और उससे लडना दमन कहलाएगा। (९) महावीर कहते है कि अगर घणा से मक्त होना है तो राग से भी मुक्त हो जाना पड़ेगा। अगर शव से बचना है तो मित्र से भी बच जाना पडेगा । जीवन के सभी रूप अपने विपरीत से बंधे हुए है। इसका अर्थ यह हुआ कि जो व्यक्ति जिस चीज से लडेगा वह उससे ही बँधा रहेगा। अगर आप धन से लड़ रहे हैं और धन के विपरीत जा रहे है, तो धन आपके चित्त को सदा घेरे रहेगा। तप इन्ही भूलो मे पडकर रुग्ण हो गया है और जिन्हें हम तपस्वी कहते है उनमे से ९९ प्रतिशत मानसिक चिकित्सा के लिए उम्मीदवार है। (१०-१२) पशु विकृत नही होता क्योकि वह प्रकृति मे ठहरा रहता है। भादमी दो कोशिशे कर सकता है । चाहे तो वह प्रकृति मे लड़ने की कोशिश करे और आज नही तो कल विकृति मे उतर आए, या फिर प्रकृति का अतिक्रमण करने की कोशिश करे और सस्कृति मे प्रवेश कर जाए । अतिक्रमण तप हे, न कि विरोध और सघर्प । बुद्ध ने एक बहुत अच्छे शब्द का प्रयोग किया है। वह गद है पारमिता । वे कहते है-लड़ो मत, इस किनारे से उस किनारे चले जाओ, पार चले जाओ। (१२) मैं कहता हूँ कि अगर घाटी के अँधेरे से लडना है तो घाटी के अंधेरे मे ही रहना पडेगा। अगर मैं घाटी के अँधेरे से नही लडता तो उस पर ध्यान देने की जरूरत नहीं है । जहाँ मै खडा हूँ वहाँ चारो ओर वृत्तियाँ है भोग की। वे भी है और आप भी है । गलत त्यागी का ध्यान वृत्तियो पर होता है, सही त्यागी का ध्यान स्वय पर। गलत त्यागी कहता है कि मै इस वृत्ति को कैसे मिटाऊँ; सही त्यागी कहता है कि मै इस वृत्ति के ऊपर कैसे उठ् ? वृत्ति से जो लड़ता है, उसका ध्यान वृत्ति पर होता है। स्वय को जो ऊँचा उठाता है, उसका ध्यान स्वय पर होता है। वृत्ति से लड़नेवाले का ध्यान वहिर्मुखी होगा, स्वय को ऊर्ध्वगमन की ओर प्रवृत्ति करने वाले का ध्यान अन्तर्मुखी। . (१३) तप का मूल सूत्र यही है कि ध्यान के लिए नए केन्द्र निर्मित करो । नए केन्द्र हमारे भीतर है। उन केन्द्रो पर ध्यान को ले जाओ । ध्यान को जैसे ही कोई नया केन्द्र मिलता है, वह वैसे ही नए केन्द्र मे

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