Book Title: Mahavir Parichay aur Vani
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Osho Rajnish

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Page 318
________________ ३२४ महावीर : परिचय और वाणी के बल खडे हुए ध्यान मे कोई गति नही हो सकती। सिर के बल कोई चलेगा कैसे ? यात्रा करनी हो तो पर के बल होगी। चेतना जव पैर के वल खडी होती है तब अपनी ओर उन्मुख होती है, तव गति करती है। ध्यान 'डायनेमिक फोर्स' है, गत्यात्मक शक्ति है। उसे सिर के बल खडे करने का मतलब है उसकी हत्या कर देना। इसलिए जो लोग गलत ध्यान करते हैं, वे आत्मघात मे लगते है, रुक जाते है। मजनू ठहरा हुआ है लैला पर, बुरी तरह ठहरा हुआ है उस पर, मानो तालाव बन गया हो । वह अव ऐसी सरिता नही रहा जो सागर तक पहुँच पाए। इसलिए उसे लैला कभी नही मिल सकती। गलत ध्यान के सम्बन्ध मे यह न भूले कि जिस पर आप ध्यान लगाते हैं, उसकी उपलब्धि कभी नही होती। पर' पर केन्द्रित चेतना कुछ भी उपलब्ध नही कर पाती, क्योकि दूसरे को पाने का कोई उपाय ही नही है । इस अस्तित्व में सिर्फ एक ही चीज पाई जा सकती है, और वह है मोक्ष । वह मै स्वय हूँ। उसको ही मै पा सकता हूँ। शेप सारी चीजो को मै पाने की कितनी ही कोशिश करूँ, वह सारी कोशिश असफल होगी । जो मेरा स्वभाव हे वही केवल मेरा हो सकता है । इसलिए गलत ध्यान नक में ले जाता है। गलत ध्यान का अभाव ध्यान की शुरुआत है। गलत ध्यान का अर्थ है-अपने से बाहर किमी भी चीज पर एकाग्र हो जाना। दूसरे की ओर बहती हुई चेतना गलत ध्यान है। इसलिए महावीर ने परमात्म की तरफ बहती हुई चेतना को भी गलत ध्यान कहा है। परमात्मा को आप दूसरे की तरह ही सोच सकते हैं और अगर स्वय की तरह सोचेगे तो बड़े साहस की जरूरत होगी। अगर आप यह सोचेगे कि मै परमात्मा हूँ तो बड़ा साहस चाहिए। न तो आप ही ऐसा सोच पाएंगे और न आपके आसपास के लोग यह सोचने देगे कि आप परमात्मा है । जव कोई सोचंगा कि मैं परमात्मा हूँ तो उसे परमात्मा की तरह जीना पडेगा, क्योकि सोचना खडा नही हो सकता जब तक आप जिये नही । सोचने मे खुन नही आएगा जब तक आप जियेगे नही । अगर परमात्मा की तरह जीना हो, तब तो ध्यान की कोई जरूरत ही नहीं रह जाती। इसलिए महावीर कहते हैं कि परमात्मा को आप सदा दूसरे की तरह सोचेगे। यही कारण है कि परमात्मा को मान कर शरू होनेवाले धर्मो मे ध्यान विकसित नही होता, प्रार्थना विकसित होती है। प्रार्थना और ध्यान के मार्ग विलकुल भिन्न-भिन्न हैं। प्रार्थना का अर्थ है दूसर के प्रति निवेदन । ध्यान मे कोई निवेदन नही है। प्रार्थना का अर्थ है दूसरे की सहायता की मांग। ध्यान मे सहायता की मांग नहीं है, क्योकि महावीर कहते है दूसरे से जो मिलेगा वह मेरा नही हो सकता । पहले तो वह मिलेगा ही नहीं, लेकिन मै मान लूं कि वह मिल गया । तव तो स्पष्ट है कि दूसरे से मिला हुआ 'माना हुआ

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