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द्वादश अध्याय
अतर्-तप सरभसमारभे, आरभे तहेव य । वाय पवत्तमाण तु नियत्तिज्ज जय जई ॥
-उत्त० अ० २४, गा० २५ तप के छ बाह्य अगो की चर्चा हो चुकी। अव आइए, हम छह अतर तपा की चचा करें। ये छ अतर् तप हैं (१) प्रायश्चित्त (२) विनय, (३) वैयावृत्य, (४) स्वाध्याय, (५) ध्यान, और (६) कायोत्सग ।
(१) प्रायश्चित, गरकाशा अनुसार, पश्चात्ताप का पयाय है। असर म प्रायश्चित्त का अर्थ यह नहीं है। पश्चात्ताप और प्रायश्चित म उतना ही अन्तर है जितना जमीन और आसमान म । पश्चाताप का अथ है-जा आपने किया उसके रिए पछतावा । आपस एक छोटी सी भूल हो गई थी, उसे मापने पश्चात्ताप करके पार दिया । आप ह बहुत अच्छे आदमी। गाली आप दे नही मक्ते। किसी परि स्थिति में गाली निकल गई होगी, इसलिए आप पछता लेत है और फिर से अच्छे आत्मी वन जात ह। पश्चात्ताप आपको बदलता नहीं, जो आप थे, आप वही रह जाते हैं। इसलिए पश्चात्ताप आपके अहवार को बचान की प्रक्रिया है। आप राज पश्चात्ताप करेंगे और आप रोज पाएंगे कि आप वही कर रहे हैं जिसके लिए आपने कर पश्चात्ताप किया था। पश्चात्ताप नापकी अतरात्मा मे कोई परिवतन नहा लाता।
जन महावीर के पास काई साधर आता तो वे उसे पिछजमा ये स्मरण म ल जाते, सिफ इसलिए कि उसे इस बात का पता चल जाए कि उसने वितनी वार एक ही भूर की है और उसके रिए पश्चात्ताप किया है। पश्चात्ताप फम फे गलत हाने के बोध से सम्बंधित है, प्रायश्चित्त इस योष से सम्बन्धित है कि मै गलत हूँ। पश्चात्ताप करोवाला वही का वही बना रहता है, प्रायश्चित्त करनेवार का अपनी जावा चेतना रूपातरित कर देनी होती है । पश्चात्ताप तो जीवन का सहज प्रम है। हर नादमी पश्चात्ताप करता है इसलिए पश्चात्ताप को साधना बनाने की क्या जरूरत है । वस्तुत यह साधना नहा केवल मन का नियम है।
१ सयमी पुरुष सरम्भ, समारम्भ लार आरम्भ म प्रयत्त होतो काया को सावधानी से नियत्रण करे।
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