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महावीर : परिचय और वाणी ऐसी व्यस्तता है जिससे छलाग लगाने में कठिनाई न होगी। यह सामायिक के पहले की सीढ़ी है-सिर्फ छलाग लगाने की सीढी ।
मेरी वात अच्छी तरह समझ ले। कुछ करते जाना ही वर्तमान से चूकते जाना है। इसलिए कुछ क्षणो के लिए आप कछ न करे, वस हो जायें। कमरे में पड़े है, कोने मे टिके है--सिर्फ है। कुछ भी न करें। वम है। वृक्ष है, पत्थर है, पहाड है, चांद-तारे है, सव है । शायद वे इसलिए सुन्दर है कि समय मे कही गहरे दूबे हुए है । शायद हम इसीलिए इतने कुरूप, परेशान, चिन्तित और दुसी है कि समय से भागे हुए है-मानो जीवन के मूल तोत से कही झटका लग गया हो, जडे उखड गई हो और हम कही और मा गिरे हो ।
क्रियाएँ दो तरह की है। एक तो हमारे शरीर की क्रियाएँ है जो हमारी निद्रा मे शिथिल हो जाती है, वेहोशी मे बन्द हो जाती है। गरीर की इन क्रियाओ से कोई गहरी वाधा नही है और न इन्हे रोकना ही कठिन है। असली वाधाएँ तो उपस्थित होती है मन की क्रियाओ से जो हमे समय से चकाती हैं। शरीर का अस्तित्व तो निरन्तर वर्तमान मे है, वह हमेशा समय मे है-वह एक क्षण भी न तो अतीत मे जाता है और न भविष्य मे । शरीर वही है जहाँ है । परन्तु भटकाता है मन । फिर भी लोग शरीर के ही दुश्मन हो जाते है, जब कि वेचारा शरीर हमसे शत्रुता नही ठानता । इसलिए साधक शरीर से दुश्मनी न साधे, वरन् अ-मन की स्थिति मे पहुँचने का प्रयोग करें। उनके सारे प्रयोग इसी मन पर होने चाहिए। यह बडे मजे की बात है कि मन होगा तो क्रिया होगी; क्रिया होगी तो मन होगा। मन कहता है-कुछ भी करो, हम राजी है, क्योंकि करने-मात्र से मन वच जाता हैं। आप कहते है कि मत्र जपो तो वह कहता है, चलो हम राजी है। यदि आप कहते है कि हम कुछ भी करना नही चाहते, तो मन विलकुल राजी नहीं होता।
जेन भिक्षु कहते है कि ध्यान का अर्थ ही है कुछ न करना । जव तक हम कुछ कर रहे हैं तब तक ध्यान नहीं हो सकता। फिर भी, 'ध्यान' शब्द में किया जुड़ी हुई है। 'सामाग्रिक' शब्द मे वह क्रिया नहीं है।' लगता है, ध्यान कुछ करने की
१. आचार्य रजनीश के अनुसार 'सूत्र अनुयायी बनाते है और बाँधते है। महावीर को कोई सम्बन्ध नही है इन सूत्रो से ...महावीर-जैसे लोगो को समझना ही मुश्किल है। क्योकि वह जो बात कह रहे हैं, इतनी गहराई की है, और हम जहाँ खड़े हैं वह इतने उलथेपन में है बल्कि उलयेपन मे भी तट पर खड़े हुए है और वहाँ से जो हमारी समझ में आता है, वह इन्तजाम हम कर लेते हैं। अनुयायी सारी व्यवस्था देता है, और कुछ व्यवस्थापरक मस्तिष्क होते है जो सदा व्यवस्था देते रहते है।.. महावीर : मेरी दृष्टि मे (पृ० ३११-३१२) स्पष्ट है कि जहाँ आचार्य रजनीश 'सामायिक' को महावीरकी साधना-पद्धति का केन्द्रिय शब्द' (उपरि० पृ० २९१) कहते है वहाँ दे ऐसे सूत्रो से अपनी -